- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 81वें अध्याय में कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
भीष्म द्वारा पुन: दुर्योधन को आश्वासन देना
संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर आपके पुत्र को चिन्ता में निमग्न देख भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने उससे पुनः हर्ष बढ़ाने वाली बात कही- ‘राजन्। मैं, द्रोणाचार्य, शल्य, यदुवंशी कृतवर्मा, अश्वत्थामा, विकर्ण, भगदत्त, सुबल पुत्र शकुनि, अवन्ति देश के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, बाहिकदेशीय वीरों के साथ राजा बाहीक, बलवान् त्रिगर्तराज, अत्यन्त दुर्जय मगध-राज, कोसलनरेश बृहद्वल, चित्रसेन, विविंशति तथा विशाल ध्वजाओं वाले परम सुन्दर कई हजार रथ, घुड़सवारों से युक्त देशीय घोड़े, गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मदोन्मत्त गजराज और भाँति-भाँति के आयुध एवं ध्वज धारण करने वाले विभिन्न देशों के शूरवीर पैदल सैनिक तुम्हारे लिये युद्ध करने को उद्यत है। ‘ये तथा और भी बहुत से ऐसे सैनिक हैं, जिन्होंने तुम्हारे लिये अपना जीवन निछावर कर दिया है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये सब मिलकर युद्धस्थल में देवताओं को भी जीतने में समर्थ हैं। ‘राजन! मुझे सदा तुम्हारे हित की बात अवश्य कहनी चाहिये, इसीलिये कहता हूँ- पाण्डवों को इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी जीत नहीं सकते। ‘राजेन्द्र! एक तो वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, दूसरे साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं, (अतः उन्हें जीतना असम्भव है तथापि) मैं सर्वथा तुम्हारे वचन का पालन करूँगा। ‘पाण्डवों को मैं युद्ध में जीतूँगा अथवा पाण्डव ही मुझे परास्त कर देंगे।’ ऐसा कहकर भीष्मजी ने दुर्योधन को विशल्यकरणी नामक शुभ एवं शक्तिशालिनी ओषधि प्रदान की। उस समय उसके प्रभाव से दुर्योधन के शरीर में धँसे हुए बाण आसानी से निकल गये और वह आघातजनित घाव तथा उसकी पीड़ा से मुक्त हो गया।
भीष्म द्वारा मंडल व्यूह की रचना करना
तदनन्तर निर्मल प्रभात की बेला में व्यूनविशारद नरश्रेष्ठ बलवान् भीष्म ने अपनी सेना के द्वारा स्वयं ही मण्डल नामक व्यूह का निर्माण किया, जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न था। वह व्यूह हाथी और पैदल आदि मुख्य-मुख्य योद्धाओं से भरा हुआ था। कई सहस्र रथों ने उसे सब ओर से घेर रखा था। वह व्यूह ऋष्टि और तोमर धारण करने वाले अश्वारोहियों के महान् समुदायों से भरा था। एक-एक हाथी के पीछे सात-सात रथ, एक-एक रथ के साथ सात-सात घुड़सवार, प्रत्येक घुड़सवार के पीछे दस-दस धनुर्धर और प्रत्येक धनुर्धर के साथ दस-दस ढाल-तलवार लिये रहने वाले वीर खड़े थे। महाराज! इस प्रकार महारथियों के द्वारा व्यूहबद्ध होकर आपकी सेना महायुद्ध के लिये खड़ी थी और भीष्म युद्धस्थल में उसकी रक्षा करते थे। उसमें दस हजार घोड़े, उतने ही हाथी और दस हजार रथ तथा आपके चित्रसेन आदि शूरवीर पुत्र कवच धारण करके पितामह भीष्म की रक्षा कर रहे थे। उन वीरों से भीष्म सुरक्षित थे और भीष्म से उन शूरवीरों की रक्षा हो रही थी। वहाँ बहुत से महाबली नरेश कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार दिखायी देते थे। शोभासम्पन्न राजा दुर्योधन भी युद्धस्थल में कवच बाँधकर रथ पर आरूढ़ हो ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो देवराज इन्द्र स्वर्ग में अपनी दिव्य प्रभा से प्रकाशित हो रहे हों। भारत! तदनन्तर आपके पुत्रों का महान् सिंहनाद सुनायी देने लगा, साथ ही रथों और वाद्यों का गम्भीर घोष गूँज उठा। भीष्म ने युद्धस्थल में कौरव सैनिकों का पश्चिमाभिमुख व्यूह बनाया था। वह मण्डल नामक महाव्यूह दुर्भेद्य होने के साथ ही शत्रुओं का संहार करने वाला था। राजन्! उस रणभूमि में सब ओर उस व्यूह की बड़ी शोभा हो रही थी। वह शत्रुओं के लिये सर्वथा दुर्गम था।
कौरवों के परम दुर्जय मण्डलव्यूह को देखकर राजा युधिष्ठिर ने स्वयं अपनी सेना के लिये वज्रव्यूह का निर्माण किया।[1] इस प्रकार सेनाओं की व्यूह रचना हो जाने पर यथास्थान खडे़ हुए रथी और घुड़सवार आदि सब सैनिक सिंहनाद करने लगे। तत्पश्चात् प्रहार करने में कुशल सभी शूरवीर एक दूसरे का व्यूह तोड़ने और परस्पर युद्ध करने की इच्छा से सेनासहित आगे बढ़े।
पांडव तथा कौरव योद्धाओं के बीच युद्ध
द्रोणाचार्य ने विराट पर और अश्वत्थामा ने शिखण्डी पर धावा किया। स्वयं राजा दुर्योधन ने द्रुपद पर चढ़ाई की। नकुल और सहदेव ने अपने मामा मद्रराज शल्य पर धावा किया। अवन्ती के विन्द और अनुविन्द ने इरावान पर आक्रमण किया। समस्त नरेशों ने संग्राम भूमि में अर्जुन के साथ युद्ध किया। भीमसेन ने युद्ध में विचरते हुए कृतवर्मा को आगे बढ़ने से रोका। राजन्! शक्तिशाली अर्जुन कुमार अभिमन्यु ने संग्रामभूमि में आपके तीन पुत्र चित्रसेन, विकर्ण तथा दुर्मर्षण के साथ युद्ध आरम्भ किया। महाधनुर्धर भगदत्त ने राक्षसप्रवर घटोत्कच पर बड़े वेग से आक्रमण किया, मानो एक मतवाला हाथी दूसरे मतवाले हाथी पर टूट पड़ा हो। राजन्! उस समय राक्षस अलम्बुष ने युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले सेनासहित सात्यकि पर क्रोधपूर्वक धावा किया। भूरिश्रवा ने रणभूमि में प्रयत्नपूर्वक धृष्टकेतु के साथ युद्ध छेड़ दिया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने राजा श्रुतायु पर धावा किया। चेकितान ने समर में कृपाचार्य के ही साथ युद्ध छेड़ दिया। शेष योद्धा प्रयत्नपूर्वक महारथी भीष्म का ही सामना करने लगे। तदनन्तर उन राजसमूहों ने कुन्ती पुत्र धनंजय को सब ओर से घेर लिया। उन सबके हाथों में शक्ति, तोमर, नाराच, गदा और परिघ आदि आयुध शोभा पा रहे थे।[2]
अर्जुन का पराक्रम
तत्पश्चात् अर्जुन ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- ‘माधव! युद्धस्थल में दुर्योधन की इन सेनाओं को देखिये, व्यूह के विद्वान् महात्मा गंगानन्दन ने इनका व्यूह रचा है। ‘माधव! युद्ध की इच्छा से कवच बाँधकर आये हुए इन शूरवीरों पर दृष्टिपात कीजिये। केशव! यह देखिये, यह भाइयों सहित त्रिगर्तराज खड़ा है। ‘जनार्दन! यदुश्रेष्ठ! ये जो रणक्षेत्र में मुझसे युद्ध करना चाहते हैं, मैं इन सबको आज आपके देखते-देखते नष्ट कर दूँगा’। ऐसा कहकर कुन्तीनन्दन अर्जुन ने अपने धनुष की प्रत्यन्चा पर हाथ फेरा और विपक्षी नरेशों पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। जैसे बादल वर्षा ऋतु में जल की धाराओं से तालाब को भरते हैं, उसी प्रकार वे महाधनुर्धर नरेश भी बाणों की वृष्टि से अर्जुन को भरपूर करने लगे। प्रजानाथ! उस महायुद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन को बाणों से आच्छादित देख आपकी सेना में बड़े जोर से कोलाहल होने लगा।
श्रीकृष्ण और अर्जुन को उस अवस्था में देखकर देवताओं, देवर्षियों, गन्धर्वो और नागों को महान् आश्चर्य हुआ। राजन्! तब अर्जुन ने कुपित होकर इन्द्रास्त्र का प्रयोग किया। उस समय हम लोगों ने अर्जुन का अद्भुत पराक्रम देखा। उन्होंने अपने बाण समूह द्वारा शत्रुओं की की हुई बाण वर्षा को रोक दिया। संजय कहते हैं- महाराज! उस समय वहाँ कोई भी योद्धा ऐसा नहीं रह गया था, जो उनके बाणों से क्षत-विक्षत न हो गया हो। आर्य! कुन्तीकुमार अर्जुन ने उन सहस्रों राजाओं के घोड़ों तथा हाथियों में से किन्हीं को दो-दो और किन्हीं को तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। अर्जुन की मार खाकर वे सब के सब शान्तनुनन्दन भीष्म की शरण में गये। उस समय अगाध विपत्ति-समुद्र में डूबते हुए सैनिकों के लिये भीष्म जहाज बन गये। महाराज! पाण्डवों के आक्रमण करने पर आपकी सेना का व्यूह भंग हो गया। वह सेना प्रचण्ड वायु के वेग से समुद्र की भाँति विक्षुब्ध हो उठी।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-22
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 81 श्लोक 23-46
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