- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 41वें अध्याय में 'श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
अर्जुन का कृष्ण से प्रश्न पूछना
सम्बन्ध-गीता के सोलहवें अध्याय के आरम्भ में श्रीभगवान ने अर्जुन से निष्काम-भाव से सेवन किये जाने वाले शास्त्रविहित गुण और आचरणों का दैवीसम्पदा के नाम से वर्णन करके फिर शास्त्रविपरित आसुसी सम्पदा का कथन किया। साथ ही आसुर-स्वभाव वाले पुरुषों को नरकों में गिराने की बात कही और यह बतलाया कि काम, क्रोध, लोभी ही आसुरी सम्पदा के प्रधान अवगुण है ये तीनों ही नरकों के द्वार है इनका त्याग करके जो आत्मकल्याण के लिये साधन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। इसके अनन्तर यह भी कहा कि जो शास्त्रविधि का त्याग करके मनमाने ढंग से अपनी समझ से जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मों का फल नहीं मिलता। अब अर्जुन सोचते हैं यह तो ठीक ही है परंतु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो शास्त्रविधि का तो न जानने के कारण अथवा अन्य किसी कारण से त्याग कर बैठते हैं तथा यज्ञ-पूजादि शुभ कर्म श्रद्धापूर्व करते हैं, उनकी क्या स्थिति होती है इस जिज्ञासा को व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान से पूछते हैं-अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो श्रद्धा से युक्त मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर देवादिका पूजन करते हैं,[2] उनकी स्थिति फिर कौन-सी है सात्त्विक है अथवा राजसी किंवा तामसी।[3]
कृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देना
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन। हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, स्वयं भी वही है।[4] सम्बन्ध-श्रद्धा के अनुसार मनुष्यों की निष्ठा का स्वरूप बतलाया गया इससे यह जानने की इच्छा हो सकती है कि ऐसे मनुष्यों की पहचान कैसे हो कि कौन किस निष्ठावाला है। इस पर भगवान कहते हैं।[1] सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं,[5] राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को[6] तथा अन्य जो तामस मनुष्य है, वे प्रेत और भूतगणों को[7] पूजते हैं। जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त[8] एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त है। जो शरीर रूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं,[9] उन अज्ञानियों को तू आसुर-स्वभाव वाले जान।[10]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 40 श्लोक 4-11
- ↑ यद्यपि शास्त्रविधि के त्याग की बात गीता के सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भी कही जा चुकी थी और यहाँ भी कहते हैं पर इन दोनों के भाव में बड़ा अंतर है। वहाँ अवहेलनापूर्वक किये जानने वाले शास्त्रविधि के त्याग का वर्णन है और यहाँ न जानने के कारण होने वाले शास्त्रविधि के त्याग का है। उनको तो शास्त्र की परवाह ही नहीं है अतः वे मनमाने ढंग से जिस कर्म को अच्छा समझते है, उसे करते हैं। इसीलिये वहाँ ‘वर्तत कामकारतः’ कहा गया है परंतु यहाँ ‘यजन्ते श्रद्धयान्विताः’ कहा है, अतः इन लोगों में श्रद्धा है। जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ अवहेलना नहीं हो सकती। इन लोगों को परिस्थिति और वातावरण की प्रतिकूलता से, अवकाश के अभाव से अथवा परिश्रम तथा अध्ययन आदि की कमी से शास्त्रविधि का ज्ञान नहीं होता और इस अज्ञता के कारण ही इनके द्वारा उसका त्याग होता है।
- ↑ जो शास्त्र को न जानने के कारण शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धा के साथ पूजन आदि करने वाले हैं, वे कैसे स्वभाव वाले हैं- दैव स्वभाव वाले या आसुर स्वभाव वाले इसका स्पष्टीकरण पहले नहीं हुआ। अतः उसी को समझने के लिये अर्जुन का यह प्रश्न है कि ऐसे लोगों की स्थिति सात्त्विक है अथवा राजसी या तामसी अर्थात वे दैवी सम्पदा वाले हैं या आसुरी सम्पदा वाले। ऊपर के विवेचन यह पता लगता है कि संसार में निम्नलिखित पांच प्रकार के मनुष्य हो सकते हैं-
(1) जिनमें श्रद्धा भी है और जो शास्त्रविधि का पालन भी करते हैं, ऐसे पुरुष दो प्रकार के है- एक तो निष्काम भाव से कर्मों का आचरण करने वाले और दूसरे सकामभाव से कर्मों का आचरण करने वाले। निष्कामभाव से आचरण करने वाले दैवीसम्पदायुक्त सात्त्विक पुरुष मोक्ष को प्राप्त होते हैं; इसका वर्णन प्रधानतया गीता के सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों में तथा इन अध्याय के ग्यारहवें, चौदहवें से सतरहवें और बीसवें श्लोकों में है। सकामभाव से आचरण करने वाले सत्त्वमिश्रित राजस पुरुष सिद्धि, सुख तथा स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होते हैं इनका वर्णन गीता के दूसरे अध्याय के बयालीसवें, तैयालीसवें और चौवालीसवें में, चौथे अध्याय के बारहवें में, सातवें के बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें और नवें अध्याय के बीसवें, इक्कीसवें और तेईसवें तथा इस अध्याय के बारहवें, अठारहवें और इक्कीसवें श्लोकों मे हैं।
(2) जो लोग शास्त्रविधि का किसी अंश में पालन करते हुए यज्ञ, दान, तप आदि कर्म तो करते हैं, परन्तु जिनमें श्रद्धा नहीं होती, उन पुरुषों के कर्म असत (निष्फल) होते हैं; उन्हें इस लोक और परलोक में उन कर्मों से कोई भी लाभ नहीं होता। इसका वर्णन गीता के इस अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में किया गया है।
(3) जो लोग अज्ञता के कारण शास्त्रविधि का तो त्याग करते हैं, परन्तु जिनमें श्रद्धा है, ऐसे पुरुष श्रद्धा के भेद से सात्त्विक भी होते हैं और राजस तथा तामस भी। इनकी गति भी इनके स्वरूप के अनुसार ही होती है। इसका वर्णन इस अध्याय के दूसरे, तीसरे, और चौथे श्लोक में किया गया है।
(4) जो लोग न तो शास्त्र को मानते हैं और न जिनमें श्रद्धा ही है। इससे जो काम, क्रोध और लोभ के वश होकर अपना पापमय जीवन बिताते है, वे आसुरी-सम्पदा वाले लोग नरकों मे गिरते हैं तथा नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। उनका वर्णन गीता के सातवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में, नवें के बारहवें में, सोलहवें अध्याय के सातवें से लेकर बीसवें तक में और इस अध्याय के पांचवें, छठे और तेरहवें श्लोक में है।
(5) जो लोग अवहेलना से शास्त्रविधि का त्याग करते हैं और अपनी समझ से उन्हें जो अच्छा लगता है, वही करते हैं, उन यथेच्छाचारी पुरुषों में जिनके कर्म शास्त्रनिषिद्ध होते हैं, उन तामस पुरुषों तो नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है और जिनके कर्म अच्छे होते हैं, उन पुरुषों को शास्त्रविधि का त्याग कर देने के कारण कोई भी फल नहीं मिलता। इसका वर्णन गीता के सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में किया गया है। ध्यान रहे कि इनके द्वारा जो पापकर्म किये जाते हैं, उनका फल-तिर्यक योनियों की प्राप्ति और नरकों की प्राप्ति-अवश्य होता है।इन पांच प्रकार के मनुष्यों के वर्णन में प्रणामस्वरूप जिन श्लोकों संकेत किया गया है, उनके अतिरिक्त अन्यान्य श्लोकों में भी इनका वर्णन है परंतु यहाँ उन सबका उल्लेख करने से बहुत विस्तार हो जाता, इसलिये नहीं किया गया।
- ↑ पुरुष का वास्तविक स्वरूप तो गुणातीत ही है परंतु यहाँ उस पुरुष की बात है, जो प्रकृति में स्थित है और प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों से सम्बन्ध है क्योंकि गुणजन्य भेद ‘प्रकृतिस्थ पुरुष’ में ही सम्भव हैं। जो गुणों से परे है, उसमें तो गुणों के भेद की कल्पना ही नहीं हो सकती। यहाँ भगवान यह बतलाते हैं कि जिसकी अन्तःकरण के अनुरूप जैसी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है।- वैसा ही उस पुरुष की निष्ठा या स्थिति होती है। अर्थात जिसकी जैसी श्रद्धा है। वही उसका स्वरूप है। इससे भगवान ने श्रद्धा, निष्ठा और स्वरूप एकता करते हुए ‘उनकी कौन-सी निष्ठा है’ अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर दिया।
- ↑ अभिप्राय यह है कि देवताओं को पूजने वाले मनुष्य सात्त्विक है- सात्त्विकी निष्ठावान है। देवताओं से यहाँ सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, यम, अश्विनीकुमार और विश्वदेव आदि शास्त्रोक्त देव समझने चाहिये।
यहाँ देव पूजनरूप क्रिया सात्त्विक होने के कारण उसे करने वाले को सात्त्विक बतलाया गया है, परन्तु पूर्ण सात्त्विक तो वही है, जो सात्त्विक क्रियाओं को निष्काम भाव से करता है। - ↑ यक्ष से कुबेरादि और राक्षसों से राहु-केतु आदि समझना चाहिये।
- ↑ मरने के बाद जो पाप-कर्मवश भूत-प्रेतादि के वायु प्रधान देह को प्राप्त होते हैं, वे भूत-प्रेत कहलाते हैं।
- ↑ जिसमें नाना प्रकार के आडम्बरों से शरीर और इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाया जाता है और जिसका स्वरूप बड़ा भयानक होता है, इस प्रकार के शास्त्र विरुद्ध भयानक तप करने वाले मनुष्यों में श्रद्धा नहीं होती। वे लोगों को ठगने के लिये और उन पर रोब जमाने के लिये पाखण्ड रचते हैं तभा सदा अहंकार से फूले रहते हैं इसी से उन्हें दम्भ और अहंकार से युक्त कहा गया है।
- ↑ शरीर क्षीण और दुर्बल करना तथा स्वयं अपने आत्मा को या किसी के भी आत्मा को दुःख पहुँचाना भूतसमूदाय- को और परमात्मा को कृश करना है क्योंकि सबके हृदय में आत्मा रूप से परमात्मा ही स्थित है।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 41 श्लोक 4-12
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