गीता के माहात्म्य का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'गीता के माहात्म्य का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

गीता के माहात्म्य का वर्णन

सम्बन्ध- इस प्रकार भगवान गीता के उपदेश का उपसंहार करके अब उस उपदेश के अध्यापन और अध्ययन आदि का माहात्म्य बतलाने के लिये पहले अनाधिकारी के लक्षण बतलाकर उसे गीता का उपदेश सुनाने को निषेध करते हैं। तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिये, न भक्तिरहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिये तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिये।[2] जो पुरुष मुझमें परमप्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त[3] गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में[4] कहेगा,[5] वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है।[6] उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।[7]

सम्बन्ध इस प्रकार उपर्युक्त दो श्लोकों में गीताशास्त्र श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवद्भक्‍तों को विस्तार करने का फल और माहात्म्य बतलाया ; किंतु सभी मनुष्य इस कार्य को नहीं कर सकते, इसका अधिकारी तो कोई बिरला ही होता है। इसलिये अब गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाते हैं- जो पुरुष इस घर्ममय[8] हम दोनों के संवादरूप गीता-शास्त्रों को पढे़गा,[9] उसके द्वारा भी में ज्ञानयज्ञ से[10] पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है। सम्बंध- इस प्रकार गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाकर, अब जो उपर्युक्त प्रकार से अध्ययन करने में असमर्थ हैं- ऐसे मनुष्य के लिये उसके श्रवण का फल बतलाते हैं- जो मनुष्य[11] श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा,[12] वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वाला श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।[13] सम्बन्ध-इस प्रकार गीताशास्त्र के कथन, पठन और श्रवण का माहात्म्य बतलाकर अब भगवान स्वयं सब कुछ जानते हुए भी अर्जुन को सचेत करने के लिये उससे उसकी स्थिति पूछते हैं- हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया?[14] और हे धनंजय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?[15][1]

अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।[16] सम्बन्ध-इस प्रकार धृतराष्ट्र के प्रश्नानुसार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हुए संजय धृतराष्ट के सामने गीता का महत्त्व प्रकट करते हैं- संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना।[17] श्रीव्यास जी की कृपा से[18] दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को[19]अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके में बार-बार हर्षित होता हूँ। हे राजन! श्रीहरि उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।[20] सम्बन्ध- इस प्रकार अपनी स्थिति वर्णन करते हुए गीता के उपदेश की और भगवान के अद्भुत रूप की स्मृति का महत्त्व प्रकट करके, अब संजय धृतराष्ट्र से पाण्डवों की विजय की निश्चित सम्भावना प्रकट करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- हे राजन! जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभुति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है।[21][22]

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने की क्या आवश्यकता है। गीता का ही अच्छी तरह से गान[23] करना चाहिये; क्योकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान के साक्षात मुखकमल से निकली हुई है। गीता सर्वशास्त्रमयी है।[24] भगवान श्रीहरि सर्वदेवमय है। गंगा सर्वतीर्थमयी है और मनु (उनका धर्मशास्त्र) सर्व वेदमय हैं। गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द- इन ‘ग’ कारयुक्त चार नामों को हृदय में धारण कर लेने पर मनुष्य का फिर इस संसार में जन्म नही होता। इस गीता में छःसौ बीस श्लोक भगवान श्रीकृष्ण ने कहे हैं, सत्तावन श्लोक अर्जुन के कहे हुए है, सड़सठ श्लोक संजय ने कहे है और एक श्लोक धृतराष्ट कहा हुआ है, यह गीता का मान बताया जाता है। भारतरूपी अमृतराशि के सर्वस्व सारभूत गीता का मन्थन करके उसका सार निकालकर श्रीकृष्ण अर्जुन के मुख में[25] डाल दिया है|[26]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 67-72
  2. इससे भगवान ने यह दिखलाया है कि इस गीताशास्त्र बड़ा ही गुप्त रखने योग्य विषय है, तुम मेरे अतिशय प्रेमी भक्त और देवी सम्पदा से युक्त हो, इसलिये इसका अधिकारी समझकर मैंने तुम्हारे हित के लिये तुम्‍हें यह उपदेश दिया है। अतः जो मनुष्य स्वधर्म पालनरूप तप करने वाला न हो, ऐसे मनुष्य को मेरे गुण, प्रभाव और तत्त्व के वर्णन से भरपूर यह गीताशास्त्र नहीं सुनाना चाहिये तथा जिसका मुझ परमेश्वर में विश्वास, प्रेम और पूज्यभाव नहीं है, जो अपने ही सर्वे-सर्वा समझने वाला नास्तिक है- ऐसे मनुष्य को भी यह अत्यन्त गोपनीय गीताशास्त्र नहीं सुनाना चाहिये। इसी प्रकार यदि कोई अपने धर्म का पालनरूप तप भी करता हो, किंतु गीताशास्त्र में श्रद्धा और प्रेम न होने के कारण वह उसे सुनना न चाहता हो, तो उसे भी यह परम गोपनीय शास्त्र नहीं सुनना चाहिये; क्‍योंकि ऐसा मनुष्य उनको ग्रहण नहीं कर सकता, इससे मेरे उपदेश का और मेरा अनादर होता है। एवं संसार का उद्धार करने के लिये सगुणरूप से प्रकट मुझ परमेश्वर में जिसकी दोषदृष्टि है, जो मेरे गुणों में दोषारापण करके मेरी निन्दा करने वाला है- ऐसे मनुष्य को तो किसी भी हाल में यह उपदेश नहीं सुनाना चाहिये; क्‍योंकि वह मेरे गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य को न सह सकने के कारण इस उपदेश को सुनकर मेरी पहले से भी अधिक अवज्ञा करेगा, अतः वह अधिक पाप का भागी होगा।
  3. यह उपदेश मनुष्य को संसारबन्धन से छुड़ाकर साक्षात परमेश्वर की प्राप्ति कराने वाला होने से अत्यन्त श्री श्रेष्ठ और गुप्त रखने योग्य है।
  4. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि जो मुझको समस्त जगत की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करने वाले, सर्वशक्तिमान और सर्वेश्वर समझकर मुझमें प्रेम करता है; जिसके चित्त में मेरे, गुण, प्रभाव, लीला और तत्त्व की बातें सुनने की उत्सुकता रहती है और सुनकर प्रसन्नता होती है- वह मेरा भक्त है। उसमें पूर्वश्लोक में वर्णित चार दोषों का अभाव अपने आप हो जाता है। इसलिये जो मेरा भक्त है, वही इसका अधिकारी है तथा सभी मनुष्य-चाहे किसी भी वर्ण और जाति के क्यों न हों-मेरे भक्त बन सकते हैं (गीता 9:32); अतः वर्ण और जाति के कारण इसका कोई भी अनधिकारी नहीं हैं।
  5. स्वयं भगवान में या उनके वचनों में अतिशय श्रद्धायुक्त होकर एवं भगवान के नाम, गुण, लीला, प्रभाव और स्वरूप की स्मृति से उनके प्रेम में विह्वल होकर केवल भगवान की प्रसन्नता के ही लिये निष्कामभाव से उपर्युक्त भगवतभक्तों में इस गीताशास्त्र का वर्णन करना, इसके मूल श्लोकों का अध्ययन कराना, उनकी व्याख्या करके अर्थ समझाना, शुद्ध पाठ करवाना, उनके भावों को भली-भाँति प्रकट करना और समझाना, श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करके गीता के उपदेश को उनके हृदय में जमा देना और गीता के उपदेशानुसार चलने की उसमें दृढ़ भावना उत्पन्न कर देना आदि सभी क्रियाएं भगवान में परम प्रेम करके भगवान के भक्तों में गीता का कथन करना है।
  6. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि गीताशास्त्र का उपर्युक्त प्रकार से प्रचार करना- यह मेरी प्राप्ति का ऐकान्तिक उपाय है; इसलिये मेरी प्राप्ति चाहने वाला अधिकारी भक्तों को इस गीताशास्त्र के कथन तथा प्रचार का कार्य अवश्य करना चाहिये।
  7. यहाँ भगवान यह बतलाते हैं कि यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा और जप, ध्यान आदि जितने भी मेरे प्रिय कार्य हैं, उन सबसे बढ़कर ‘मेरे भावों को मेरे भक्तों में विस्तार करना’ मुझे अधिक प्रिय है। इस कारण जो मेरा प्रेमी भक्त मेरे भावों का शद्धा-भक्तिपूर्वक मेरे भक्तों में विस्तार करता है, वही सबसे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला है; उससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं। केवल इस समय ही उससे बढ़कर मेरा कोई प्रिय कार्य करने वाला नहीं है, यही बात नहीं है; किंतु उससे बढ़कर मेरा ‘प्यारा काम करने वाला कोई हो सकेगा’ यह भी सम्भव नहीं है। इसलिये मेरी प्राप्ति के जितने भी साधन हैं, उन सबमें यह ‘भक्तिपूर्वक मेरे भक्तों में मेरे भावों का विस्तार करना रूप’ साधन सर्वोत्तम है- ऐसा समझकर मेरे भक्तों को यह कार्य करना चाहिये।
  8. यह साक्षात परमेश्वर के द्वारा कहा हुआ शास्त्र है, इस कारण इसमें जो कुछ उपदेश दिया गया है, वह सब-का-सब धर्म से ओतप्रोत है।
  9. गीता का मर्म जानने वाले भगवान के भक्तों से इस गीताशास्त्र को पढ़ना, इसका नित्य पाठ करना, इसके अर्थ का पाठ करना, अर्थ पर विचार करना और इसके अर्थ को जानने वाले भक्तों से इसके अर्थ को समझने की चेष्टा करना आदि सभी अभ्यास गीताशास्त्र को पढ़ने के अन्तर्गत है।
    श्लोकों का अर्थ बिना समझे इस गीता को पढ़ने और उसका नित्य पाठ करने की अपेक्षा उसके अर्थ को भी साथ-साथ पढ़ना और अर्थज्ञान के सहित उसका नित्य पाठ करना अधिक उत्तम है, तथा उसके अर्थ को समझकर पढ़ते या पाठ करते समय प्रेम में विह्वल होकर भावान्वित हो जाना उससे भी अधिक उत्तम है।
  10. इस गीताशास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य को मेरे सगुण-निर्गुण और साकार-निराकार तत्त्व का भलीभाँति यथार्थ ज्ञान हो जाता है। अतः इस गीताशास्त्र का अध्ययन करना ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी पूजा करना है; क्‍योंकि सभी साधनों का अंतिम फल भगवान के तत्त्वों को भलीभाँति जान लेना है, और वह इस ज्ञानयज्ञ से अनायास ही मिल जाता है।
  11. जिसके अंदर इस गीताशास्त्र को श्रद्धापूर्वक श्रवण करने की भी रुचि नहीं हैं, वह तो मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं है; क्‍योंकि उसका मनुष्य जन्म पाना व्यर्थ हो रहा है। इस कारण वह मनुष्य के रूप में पशु के ही तुल्य हैं।
  12. भगवान की सत्ता में और उनके गुण-प्रभाव में विश्वास करके तथा यह गीताशास्त्र साक्षात भगवान की ही वाणी है, इसमें जो कुछ भी कहा गया है सब-का-सब यथार्थ है- ऐसा निश्चयपूर्वक मानकर और उसके वक्ता पर विश्वास करके प्रेम और रुचि के साथ गीता जी के मूल श्लोकों के पाठ को या उसके अर्थ की व्याख्या का श्रवण करना, यह श्रद्धा से युक्त होकर गीताशास्त्र का श्रवण करना है और उसका श्रवण करते समय भगवान पर या भगवान के वचनों पर भी किसी प्रकार का दोषारोपण न करना- यह दोषदृष्टि से रहित होकर उसका श्रवण करना है।
  13. जो अड़सठवें श्लोक में वर्णनानुसार इस गीताशास्त्र का दूसरों को अध्ययन कराता है तथा जो सत्तरवें श्लोक के कथनानुसार स्वयं अध्ययन करता है, उन लोगों की तो बात ही क्या है, पर जो इसका श्रद्धापूर्वक श्रवणमात्र भी कर पाता है, वह भी जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए पशु-पक्षी आदि नीच योनियों और नरक के हेतुभूत पापकर्म से छूटकर इन्द्रलोक से लेकर भगवान के परमधामपर्यन्त अपने-अपने प्रेम और श्रद्धा से अनुरूप भिन्न-भिन्न लोकों को प्राप्त हो जाता है।
  14. भगवान के इस प्रश्न का अभिप्राय यह है कि मेरा यह उपदेश बड़ा ही दुर्लभ है, मैं हरेक मनुष्य के सामने ‘मैं ही साक्षात परमेश्वर हूँ, ‘तू मेरी ही शरण में आ जा’ इत्यादि बातें नहीं कह सकता; इसलिये तुमने मेरे उपदेश को भलीभाँति ध्यानपूर्वक सुन तो लिया है न! क्‍योंकि यदि कहीं तुमने उस पर ध्यान न दिया होगा तो तुमने निःसंदेह बड़ी भूल की है।
  15. भगवान के इस प्रश्‍न का भाव यह है कि जिस मोह से युक्त होकर तुम धर्म के विषय में अपने को मुढचेता बतला रहे थे (गीता 2:7) तथा अपने स्‍वधर्म पालन करने में पाप समझ रहे थे। (गीता 2:36 से 39) और समस्त कर्तव्यकर्मों का त्याग करके भिक्षा के अन्न से जीवन बिताना श्रेष्ठ समझ रहे थे (गीता 2:5) एवं जिसके कारण तुम स्वजन-वध के भय से व्याकुल हो रहे थे (गीता 1:45-47) और अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर पाते थे (गीता 2:6-7) तुम्हारा वह अज्ञानजनित मोह अब नष्ट हो गया या नहीं यदि मेरे उपदेश को तुमने ध्यानपूर्वक सुना होगा तो अवश्य ही तुम्हारा मोह नष्ट हो जाना चाहिये और यदि तुम्हारा मोह नष्ट नहीं हुआ है तो यही मानना पड़ेगा कि तुमने उस उपदेश को एकाग्रचित्त से नहीं सुना।
    यहाँ भगवान के इन दोनों प्रश्नों मे यह उपदेश भरा हुआ है कि मनुष्य को इस गीताशास्त्र का अध्ययन और श्रवण बड़ी सावधानी के साथ एकाग्रचित्त से तत्पर होकर करना चाहिये और जब तक अज्ञानजनित मोह का सर्वथा नाश न हो जाय, तब तक यह समझना चाहिये कि अभी तक मैं भगवान के उपदेश को यथार्थ नहीं समझ सका हूं, अतः उस पर श्रद्धा और विवेकपूर्वक विचार करना आवश्यक है।
  16. अर्जुन के कहने का अभिप्राय यह है कि आपने यह दिव्य उपदेश सुनाकर मुझ पर बड़ी भारी दया की है, आपके उपदेश को सुनने से मेरा अज्ञानजनित मोह सर्वथा नष्ट हो गया है, अर्थात आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप को यथार्थ न जानने के कारण जिस मोह से व्याप्त होकर मैं आपकी आज्ञा को मानने के लिये तैयार नहीं होता था (गीता 2:9) और बन्धु-बान्धवों के विनाश का भय करके शोक से व्याकुल हो रहा था (गीता 1:28 से 47 तक)- वह सब मोह अब सर्वथा नष्ट हो गया है तथा मुझे आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप की पूर्ण स्मृति प्राप्त हो गयी है और आपका समग्र रूप मेरे प्रत्यक्ष हो गया है- मुझे कुछ भी अज्ञात नहीं रहा है। अब आपके गुण, प्रभाव ऐश्वर्य और सगुण-निर्गुण साकार-निराकार स्वरूप के विषय में तथा धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के विषय में मुझे किंचिन्मात्र भी संशय नहीं रहा है। आपकी दया से मैं कृतकृत्य हो गया हूँ, मेरे लिये अब कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहा; अतएव आपके कथनानुसार लोकसंग्रह के लिये युद्धादि समस्त कर्म जैसे आप करवायेंगे, निमित्तमात्र बनकर लीलारूप से में वैसे ही करूंगा।
  17. संजय के कथन का यह भाव है कि साक्षात नर ऋषि के अवतार महात्मा अर्जुन के पूछने पर सबके हृदय में निवास करने वाले सर्वव्यापी परमेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा यह उपदेश दिया गया है, इस कारण यह बड़े ही महत्त्व का है, तथा यह उपेदश बड़ा ही आश्चर्यजनक और साधारण है; इससे मनुष्य को भगवान के दिव्य अलौकिक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्ययुक्त समग्ररूप का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तथा मनुष्य इसे जैसे-जैसे सुनता और समझता है, वैसे-ही-वैसे हर्ष और आश्चर्य के कारण उसका शरीर पुलकित हो जाता है, उसके समस्त शरीर में रोमांच हो जाता है।
  18. भगवान की प्राप्ति उपायभूत कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग आदि साधनों का इसमें भलीभाँति वर्णन किया गया है तथा वह स्वयं ही अर्थात श्रद्धापूर्वक इसका पाठ भी परमात्मा की प्राप्ति साधन होने से योगरूप है।
  19. संजय के कथन का यह भाव है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दिव्य संवादरूप वह गीताशास्त्र अध्ययन, अध्यापन, श्रवण, मनन और वर्णन आदि करने वाला मनुष्य को परमपवित्र करके उसका सब प्रकार से कल्याण करने वाला दिव्य और अलौकिक है। इस उपदेश ने मेरे हृदय को इतना आकर्षित कर दिया है कि अब मुझे दूसरी कोई बात ही अच्छी नहीं लगती; मेरे मन में बार बार इस उपदेश की स्मृति हो रही है और उन भावों के आवेश में मैं असीम हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ, प्रेम और हर्ष के कारण विह्वल हो रहा हूँ।
  20. जिस अत्यन्त आश्चर्यमय दिव्य विश्वरूप का भगवान ने अर्जुन को दर्शन कराया था और जिसके दर्शन का महत्त्व भगवान ने ग्यारहवें अध्याय के सैतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों मे स्वयं बतलाया है, उसी विराट स्वरूप को लक्ष्य करके संजय यह कह रहे हैं कि भगवान का वह रूप मेरे चित्त से उतरना ही नहीं, उसे मैं बार-बार स्मरण करता रहता हूँ और मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि भगवान के अतिशय दुर्लभ उस दिव्य रूप का दर्शन मुझे कैसे हो गया! मेरा तो ऐसा कुछ भी पुण्य नहीं था, जिससे मुझे ऐसे रूप का दर्शन हो सकते। अहो! इसमें केवलमात्र भगवान की अहैतु की दया ही कारण है। साथ ही उस रूप के अत्यंत अद्भुत दृश्‍यों को और घटनाओं को याद कर-करके भी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है तथा उसे बार-बार याद करके मैं हर्ष और प्रेम में विह्वल भी हो रहा हूं; मेरे आनंद का पारावार नहीं है।
  21. यहाँ संजय के कहने का अभिप्राय यह है कि भगवान श्रीकृष्ण समस्त योगशक्तियों के स्वामी हैं; वे अपनी योग शक्ति से क्षणभर में समस्त जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार कर सकते हैं; वे साक्षात नारायण भगवान श्रीकृष्ण जिस धर्मराज युधिष्ठिर के सहायक हैं, उसकी विजय में क्या शंका है। इसके सिवा अर्जुन भी नर ऋषि के अवतार, भगवान के प्रिय सखा और गाण्डीव-धनुष के धारण करने वाले महान वीर पुरुष हैं; वे भी अपने भाई युधिष्ठिर की विजय के लिये कटिबद्ध हैं। अतः आज उस युधिष्ठिर की बराबरी दूसरा कौन कर सकता है; क्‍योंकि जहाँ सूर्य रहता है, प्रकाश उसके साथ ही रहता है- उसी प्रकार यहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन रहते हैंं, वही सम्पूर्ण शोभा, सारा ऐश्वर्य और अटल न्याय (धर्म)- ये सब उनके साथ-साथ रहते हैंं और जिस पक्ष में धर्म रहता है, उसी की विजय होती है। अतः पाण्डवों की विजय में किसी प्रकार की शंका नहीं है। यदि अब भी तुम अपना कल्याण चाहते हो तो अपने पुत्रों को समझाकर पाण्डवों से संधि कर लो।
  22. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 73-78
  23. श्रवण, कीर्तन, पठन-पाठन, मनन और धारण
  24. गीता में सब शास्त्रों के सार-तत्त्व का समावेश है
  25. कानों द्वारा मन-बुद्धि में
  26. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-19

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भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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