- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 39वें अध्याय में 'संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
सम्बन्ध-कृष्ण द्वारा गीता के चौदहवें अध्याय में पांचवें से अठारहवें श्लोक तक तीनों गुणों के स्वरूप, उनके कार्य एवं उनकी बन्धन-कारिता का और बॅधे हुए मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम गति आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करके उन्नीसवें और बीसवें श्लोकों में उन गुणों से अतीत होने का उपाय और फल बताया फिर उसके बाद अर्जुन के पूछने पर बाईसवें से पचीसवें श्लोक तक गुणातीत पुरुष के लक्षणों और आचरणों का वर्णन करके छब्बीसवें श्लोक में सगुण परमेश्वर के अव्यभिचारी भक्तियोग को गुणा से अतीत होकर ब्रह्मप्राप्ति के लिये योग्य बनने का सरल उपाय बताया गया। अतएव भगवान में अव्यभिचारी भक्तियोग रूप अनन्य प्रेम उत्पन्न कराने के उद्देश्य से अब उस सगुण परमेश्वर पुरुषोत्तम भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप का एवं गुणों से अतीत होने में प्रधान साधन वैराग्य और भगवत-शरणागति का वर्णन करने के लिये पंद्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है। यहाँ पहले संसार में वैराग्य उत्पन्न कराने के उद्देश्य से तीन श्लोकों द्वारा संसार का वर्णन वृक्ष के रूप में करते हुए वैराग्यरूप शास्त्र द्वारा उसका छेदन करने के लिये कहते हैं।
विषय सूची
संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन करना
श्रीभगवान् बोले- आदिपुरुष परमेश्वर मूल वाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं[2] तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये है[3] उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।[4] उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जल के द्वारा बढी हुई एवं विषय भोगरूप कोंपलों वाली[5] देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनि रूप शाखाएं[6] नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासना रूप जडें भी नीचें और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। इस संसारवृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार की स्थिति ही है।[7] इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलो वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा काटकर।[8][1] उसके पश्चात् उस परम पदरूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिये।, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर इस पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हॅू, इस प्रकार दृढ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निंदिध्यासन करना चाहिये।[9]
सम्बन्ध-अब उपयुक्त प्रकार से आदिपुरुष परमपद स्वरूप परमेश्वरी की शरण होकर उसको प्राप्त हो जाने वाले पुरुषों के लक्षण बतलाये जाते हैं-जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्णरूप से नष्ट हो गयी है, वे सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त[10] ज्ञानोजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही[11] वही मेरा परम धाम है।[12][13]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-3
- ↑ यद्यपि यह संसारवृक्ष परिर्वतन शील होने के कारण नाशवान, अनित्य और क्षणभंगुर है, तो भी इसका प्रवाह अनादि काल से चला आता है, इसके प्रवाह का अंत भी देखने में नही आता इसलिये इसको अव्यय अर्थात अविनाशी कहतें है क्योंकि इसका मूल सर्वशक्तिमान परमेश्वर नित्य अविनाशी है, किंतु वास्तव में यह संसार वृक्ष अविनाशी नही हैं। यदि यह अव्यय होता तो न तो अगले तीसरे श्लोक में यह कहा जाता कि इसका जैसा स्वरूप बतलाया गया है, वैसा उपलब्ध नही होता और न इसको वैराग्यरूप दृढ शास्त्र के द्वारा ही छेदन करने के लिये ही कहना बनता।
- ↑ पत्ते वृक्ष की शाखा से उत्पन्न एवं वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले होते हैं। वेद भी इस संसार रूप वृक्ष की मुख्य शाखारूप ब्रह्मा से प्रकट हुए हैं और वेदाविहित कर्मों से ही संसार की वृद्धि और रक्षा होती है, इसलिये वेदों को पत्तो का स्थान दिया गया है।
- ↑ इससे यह भाव दिखाया गया है कि जो मनुष्य मूल सहित इस संसारवृक्ष को इस प्रकार तत्त्व से जानता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की माया से उत्पन्न यह संसार वृक्ष की भाँति उत्पत्ति-विनाशशील और क्षणिक है, अतएव इसकी चमक-दमक में न फॅसकर इसको उत्पन्न करने वाले मायापति परमेश्वर की शरण में जाना चाहिये। और ऐसा समझकर संसार से विरक्त और उपरत होकर जो भगवान् की शरण ग्रहण कर लेता है, वही वास्तव में वेदों को जानने वाला है क्योंकि पन्द्रहवें श्लोक में सब वेदों के द्वारा जानने योग्य भगवान को ही बतलाया है।
- ↑ अच्छी और बुरी योनियो की प्राप्ति गुणों के संग से होती है (गीता 13/21) एवं समस्त लोंक और प्राणियों के शरीर तीनों गुणों के ही परिणाम है, यह भाव समझाने के लिये उन शाखाओं को गुणों के द्वारा बढी हुई कहा गया है और उन शाखा-स्थानीय देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योनियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध -इन पांचों विषयों के रसोपभोग को ही यहाँ कोंपल बतलाया गया है।
- ↑ ब्रह्मलोक से ऊपर पातालपर्यन्त जितनें भी लोक और उनके निवास करने वाली योनियां है, वे ही सब इस संसारवृक्ष की बहुत-सी शाखाएं है।
- ↑ इस बात का पता नहीं है कि इसकी यह प्रकट होने और लय होने की परम्परा कब से आरम्भ हुई कब तक चलती रहेगी। स्थितिकाल में भी यह निरन्तर परिवर्तित होता रहता है जो रूप पहले क्षण में है, वह दूसरे क्षण में नही रहता-इस प्रकार इस संसार वृक्ष का आदि, अन्त और स्थिति- तीनों ही उपलब्ध नहीं होते।
- ↑ इस संसार वृक्ष को अविद्यामूलक अहंता, ममता और वासनारूप मूल हैं, वे अनादिकाल से पुष्ट होते रहने के कारण अत्यन्त दृढ़ हो गये हैं अतएव उस वृक्ष को अति दृढ मूलों से युक्त बताया गया है। विवेक द्वारा समस्त संसार को नाशवान और क्षणिक समझकर इस लोक और परलोक के स्त्री-पुत्र, धन, मकान तथा मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग आदि समस्त भागों में सुख, प्रीति और रमणीयता का न भासना- उनमें आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाना ही दृढ वैराग्य है, उसी का नाम यहाँ ‘असंग-शस्त्र’ है। इस असंग-शस्त्र द्वारा जो चराचर समस्त संसार के चिन्तन का त्याग कर देना- उससे उपरत हो जाना है एवं अहंता, ममता और वासना रूप मूलों का उच्छेद कर देना है- यही उस संसारवृक्ष का दृढ वैराग्य रूप शस्त्र के द्वारा समूल उच्छेद करना है।
- ↑ इस अध्याय के पहले श्लोक में जिसे ‘ऊर्ध्व’ कहा गया है, गीता के चौदहवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक मे जो ‘माम्’ पद से और सत्ताईसवें श्लोक में ‘अहम्’ पद से कहा गया है एवं अन्यान्य स्थलों में जिसका कही परम् पद, कही अव्यय पद और कहीं परम गति तथा कहीं परम धाम के नाम से भी कहा है, उसी को यहाँ परम पद के नाम से कहते हैं। उस सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वर को प्राप्त करने की इच्छा से जो बार बार उनके गुण और प्रभाव के सहित स्वरूप का मनन और निदिध्यासन द्वारा अनुसंधान करते रहना है, यही उस परम् पद को खोजना है। अतः उपयुक्त प्रकार से उसका अनुसंधान करने के लिये अपने अंदर जरा भी अभिमान न आने देकर और सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण लेकर-उसका अनन्य आश्रय लेकर उसी पर पूर्ण विश्वासपूर्वक निर्भर हो जाना चाहिये।
- ↑ शीत-उष्ण, प्रिय-अप्रिय, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा - इत्यादि द्वन्द्वों को सुख और दुःख हेतु होने से सुख-दुःख संज्ञक कहा गया है। इन सबसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न रखना अर्थात किसी भी द्वन्द्व के संयोग-वियोग में जरा भी राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकार का न होना ही उन द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त होना है।
- ↑ समस्त संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि एवं ये जिनके देवता है-वे चक्षु, मन और वाणी कोई भी उस परम पद को प्रकाशित नहीं कर सकते। इनके अतिरिक्त और भी जितने प्रकाशक तत्त्व माने गये हैं, उनमें से भी कोई या सब मिलकर भी उस परम पद को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं है क्योंकि ये सब उसी के प्रकाश से उसी की सत्ता-स्फुति किसी अंश से स्वयं प्रकाशित होते हैं। (गीता 15/12)
- ↑ जहाँ पहुँचने के बाद इस संसार से कभी किसी भी काल में और किसी भी अवस्था में पुनः सम्बन्ध नहीं हो सकता, वही मेरा परम धाम अर्थात् मायातीत धाम है और वही मेरा भाव और स्वरूप है। इसी को अव्यक्त, अक्षर और परम गति भी कहते हैं (गीता 8/21)। इसी का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है
‘यंत्र न सूर्यस्तपति यत्र न वायूर्वाति यत्र न चन्द्रमा भाति यत्र न नक्षत्राणि भान्ति यत्र नाग्निर्दहति यत्र न मृत्यूः प्रविशति यत्र न दुःखानि प्रविशन्ति सदानंद परमानंद शांत शाश्वत सदाशिवं ब्रह्मादिवन्दितं योगिध्येय परं पदं यत्र गत्वा न निवर्तन्ते योगिनः।’
‘जहाँ सूर्य नहीं तपता, जहाँ वायु नहीं बहता, जहाँ चन्द्रमा नहीं प्रकाशित होता, जहाँ तारे नहीं चमकते’ जहाँ अग्नि नहीं जलाता, जहाँ मृत्यु नहीं प्रवेश करती, जहाँ दुःख नहीं प्रवेश करते और जहाँ जाकर योगी लौटते नहीं-वह सदानन्द, परमानन्द, शांत सनातन, सदाकल्याण स्वरूप, ब्रह्मादि देवताओं के द्वारा वन्दित, योगियों का ध्येय परम पद है’ - ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 4-8
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| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
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| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
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