अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 55वें अध्याय में 'युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होने का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

अभिमन्यु तथा धृष्टद्युम्न के पराक्रम का वर्णन

संजय कहते हैं- भारत! उस दूसरे दिन जब पूर्वाह्न का अधिक भाग व्यतीत हो गया और बहुसंख्यक रथ, हाथी, घोडे़, पैदल और सवारों का महान संहार होने लगा। उस समय पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न अकेला ही द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शल्य तथा महामनस्वी कृपाचार्य इन तीनों महारथियों साथ युद्ध करने लगा। महाबली पांचाल राजकुमार ने दस शीघ्रगामी पैने बाण मारकर अश्वत्थामा के विश्वविख्यात घोड़ों को मार डाला। वाहनों के मारे जाने पर अश्वत्थामा तुरन्त ही शल्य के रथ पर चढ़ गया और वहीं से द्यृष्टद्युम्न पर बाणों की वर्षा करने लगा।

भरतनन्दन। द्यृष्टद्युम्न को अश्वत्थामा के साथ भिड़ा हुआ देख सुभद्रानन्दन अभिमन्यु भी पैने बाण बिखेरता हुआ तुरंत वहाँ आ पहुँचा। उस पुरुषरत्न अभिमन्यु ने शल्य को पचीस, कृपाचार्य को नौ और अश्वत्थामा को आठ बाणों से बींध डाला। तब अश्वत्थामा ने शीघ्र ही एक बाण से अभिमन्यु को घायल कर दिया। तत्पश्चात् शल्य ने दस और कृपाचार्य ने तीन पैने बाण उसे मारे। तदनन्तर आपके पौत्र लक्ष्मण ने सुभद्राकुमार अभिमन्यु को सामने खड़ा देख हर्ष और उत्साह में भरकर उस पर आक्रमण किया। फिर तो दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया। राजन! शत्रु वीरों का संहार करने वाले दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण ने अत्यन्त कुपित हो समरभूमि में अनेक बाणों से अभिमन्यु को बींध डाला। वह एक अद्भुत-सी बात हुई। महाराज! भरतश्रेष्ठ! यह देख शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाला वीर अभिमन्यु कुपित हो उठा और अपने भाई लक्ष्मण को उसने पचास बाणों से घायल कर दिया।

राजन! तब लक्ष्मण ने भी पुनः एक बाण मारकर उस के धनुष को, जहाँ मुट्ठी रखी जाती है, वहीं से काट दिया। यह देख आपके सैनिक हर्ष से कोलाहल कर उठे। शत्रुवीरों का संहार करने वाले सुभद्राकुमार ने उस कटे हुए धनुष को फेंककर दूसरा विचित्र धनुष हाथ में लिया, जो अत्यन्त वेगशाली था। वे दोनों पुरुषरत्न वहाँ एक-दूसरे अस्त्रों का निवारण अथवा प्रतीकार करने की इच्छा रखकर युद्ध में संलग्न थे और पैने बाणों द्वारा एक-दूसरे को घायल कर कहे थे। तब प्रजाजनों का स्वामी राजा दुर्योधन अपने महारथी पुत्र को आपके पौत्र अभिमन्यु से पीड़ित देख वहाँ स्वयं जा पहुँचा। आपके पुत्र दुर्योधन के उधर लौटने पर कौरव पक्ष के सभी नरेशों ने विशाल रथ सेना के द्वारा अर्जुन कुमार अभिमन्यु को सब ओर से घेर लिया। राजन! अभिमन्यु का पराक्रम भगवान श्रीकृष्ण के समान था। वह युद्ध में अत्यन्त दुर्जय उन शूरवीरों से घिर जाने पर भी व्यथित या चिन्तित नहीं हुआ।[1]

अर्जुन के शौर्य का वर्णन

इसी समय अर्जुन सुभद्राकुमार को वहाँ युद्ध में संलग्न देख अपने पुत्र की रक्षा के लिए बड़े वेग से दौडे़ आये। यह देख भीष्म और द्रोण आदि सभी कौरव-पक्षीय नरेश रथ, हाथी और घोड़ों की सेनासहित एक साथ अर्जुन पर चढ़ आये। उस समय हाथी, घोडे़, रथ और पैदल सैनिकों द्वारा उड़ायी हुई धरती की तीव्र धूल सहसा सूर्य के रथ तक पहुँचकर सब ओर व्याप्त दिखायी देने लगी। इधर सहस्रों हाथी और सैकड़ों भूमिपाल अर्जुन के बाणों के पथ में आकर किसी प्रकार आगे न बढ़ सके। समस्त प्राणी आर्तनाद करने लगे और सम्पूर्ण दिशाओं में अन्धकार छा गया।[1] भरतश्रेष्ठ! उस समय कौरवों को अपने दुःसह एवं भयंकर अन्याय का परिणाम प्रत्यक्ष दिखायी देने लगा। किरीटधारी अर्जुन के शस्त्र समूहों से सब कुछ आच्छादित हो जाने के कारण आकाश, दिशा, पृथ्वी और सूर्य किसी का भी भान नहीं होता था। उस रणभूमि में कितने ही रथ टूट गये, बहुतेरे हाथी नष्ट हो गये, कितने ही रथियों के घोडे़ मार डाले गये और कितने ही रथ-यूथपतियों के रथ भागते दिखायी दिये। अन्यान्य बहुत-से रथी रथहीन होकर अंगदभूषित भुजाओं में आयुध धारण किये जहाँ-तहाँ चारों ओर दौड़ते देखे जाते थे। महाराज! अर्जुन के भय से घुड़सवार घोड़ों को और हाथी सवार हाथियों को छोड़कर सब ओर भग चले। वहाँ बहुत-से नरेश अर्जुन के सायकों से कटकर रथों, हाथियों और घोड़ों से गिरे और गिराये जाते हुए दृष्टिगोचर हो रहे थे।

प्रजानाथ! अर्जुन ने उस रणक्षेत्र में अत्यन्त भयंकर रूप धारण किया था। उन्होंने अपने उग्रबाणों द्वारा योद्धाओं की ऊपर उठी हुई भुजाओं को, जिनमें गदा, खड्ग, प्रास, तूणीर, धनुष-बाण, अंकुश और ध्वजा-पताका आदि शोभा पा रहे थे, काट गिराया। आर्य! भरतनन्दन! भूपाल! उस रणभूमि में गिरे हुए उद्दीप्त परिघ, मुद्गर, प्रास, भिन्दिपाल, खड्ग, फरसे, तीखे तोमर, सुवर्णमय कवच, ध्वज, ढाल, सोने के डंडों से विभूषित छत्र, व्यंजन, चाबुक, जोते, कोडे़ और अंकुश ढेर-के-ढेर बिखरे दिखायी देते थे। भारत! उस समय आपकी सेना में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था, जो समर में शूरवीर अर्जुन का सामना करने के लिये किसी प्रकार आगे बढ़ सके। प्रजानाथ! उस युद्धभूमि में जो-जो वीर अर्जुन की ओर बढ़ता था, वही-वही उनके पैने बाणों द्वारा परलोक पहुँचा दिया जाता था।[2]

दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति

संजय बोले- महाराज! आपके सब योद्धा सब ओर भागने लगे। यह देख अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रेष्ठ शंख बजाये। कौरव-सेना को इस प्रकार भागती देख समरभूमि में खड़े हुए आपके ताऊ भीष्म ने वीरवर आचार्य द्रोण से मुस्कराते हुए से कहा- ‘यह श्रीकृष्ण सहित बलवान वीर पाण्डुकुमार अर्जुन कौरव-सेना की वही दशा कर रहा है, जैसी उसे करनी चाहिये। यह किसी प्रकार भी समरभूमि में जीता नहीं जा सकता, क्योंकि इसका रूप इस समय प्रलयकाल के यमराज-सा दिखायी दे रहा है। यह विशाल सेना इस समय पीछे नहीं लौटायी जा सकती। देखिये, सारे सैनिक एक-दूसरे की देखा-देखी भागे जा रहे हैं। इधर ये भगवान सूर्य सम्पूर्ण जगत के नेत्रों की ज्योति सर्वथा समेटते हुए-से गिरिश्रेष्ठ अस्तांचल को जा पहुँचे हैं। अतः नरश्रेष्ठ! मैं इस समय समस्त सैनिकों को युद्ध से हटा लेना ही उचित समझता हूँ। हमारे सभी योद्धा थके-मांदे और डरे हुए हैं, अतः इस समय किसी तरह युद्ध नहीं कर सकेंगे। आचार्यप्रवर द्रोण से ऐसा कहकर महारथी भीष्म ने आपके समस्त सैनिकों को युद्धभूमि से लौटा लिया। तदनन्तर रथ, हाथी और घोड़ों सहित सोमक, पांचाल तथा पाण्डव वीर विजय पाकर बारंबार सिंहनाद करने लगे। वे सभी महारथी विजय सूचक वाद्यों की ध्वनि के साथ अत्यन्त हर्ष में भरकर नाचने लगे और अर्जुन को आगे करके शिविर की ओर चल दिये।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 55 श्लोक 21-43

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