- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 32वें अध्याय में कृष्ण द्वारा अर्जुन के ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक के सात प्रश्न और उनके उत्तर का उल्लेख हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
सम्बन्ध- गीता के सातवें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक भगवान् ने अपने समग्र रूप का तत्त्व सुनने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए, उसके कहने की प्रतिज्ञा और जानने वालो की प्रशंसा की। फिर सत्ताईसवें श्लोक तक अनेक प्रकार से उस तत्त्व को समझाकर न जानने के कारण को भी भली-भाँति समझाया और अन्त में ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् के समग्र रूप को जानने वाले भक्त की महिमा का वर्णन करते हुए उस अध्यात्म का उपसंहार किया; किंतु उनतीसवें और तीसवें श्लोकों में वर्णित ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- इन छहों का तथा प्रयाणकाल में भगवान् को जानने की बात का रहस्य भली-भाँति न समझने के कारण इस आठवें अध्याय के आरम्भ में पहले दो श्लाकों में अर्जुन उपर्युक्त सातों विषयों को समझने के लिये भगवान् से सात प्रश्न करते हैं।
विषय सूची
अर्जुन के प्रश्नों का कृष्ण द्वारा उत्तर देना
अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं? हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्तचित्त वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय-में आप किस प्रकार जानने में आते है?
श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है,[2] अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा ‘अध्यात्म’[3] नाम से कहा गया है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है,[4] वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है। उत्पत्ति-विनाशधर्म[5] वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष अधिदैव[6] और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामीरूप से अधियज्ञ हूँ।[7] जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझ को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है[8]- इसमें कुछ भी संशय नहीं है।[9]
सम्बन्ध- यहाँ यह बात कही गयी कि भगवान् का स्मरण करते हुए मरने वाला भगवान् को ही प्राप्त होता है। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि केवल भगवान् के स्मरण के सम्बन्ध में ही यह विशेष नियम हैं या सभी के सम्बन्ध है इस पर कहते हैं।[1] हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को[10] स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस उस को ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है[11] इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।[12] इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि से युक्त होकर[13] तू नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा। हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास-रूप योग से युक्त,[14] दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश स्वरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।[15] जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता,[16] सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, चिन्त्यस्वरूप, सूर्य के सुदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिादानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है, वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी-के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
सम्बन्ध- पांचवें श्लोक में भगवान् का चिन्तन करते-करते मरने वाले साधारण मनुष्य को गति का संक्षेप में वर्णन किया गया, फिर आठवें से दसवें श्लोंक तक भगवान् का ‘अधियज्ञ’ नामक सगुण निराकार दिव्य अव्यक्त स्वरूप का चिन्तन करने वाले योगियों की अन्तकालीन गति के सम्बन्ध में बतलाया, अब ग्यारहवें श्लोक से तेरहवें तक परम अक्षर निर्गुण निराकार परब्रह्म की उपासना करने-वाले योगियों की अन्तकालीन गति का वर्णन करने के लिये पहले उस अक्षर 'ब्रह्म' की प्रशंसा करके उसे बतलाते हैं। वेद के जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम-पद को अविनाशी कहते हैं,[17] आसक्ति रहित यत्नशील, संन्यासी महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिये संक्षेप में कहूंगा।[18] यहाँ भगवान् ने यह प्रतीज्ञा की है कि उपर्युक्त वाक्यों में जिस परब्रह्म परमात्मा का निर्देश किया गया है, वह ब्रह्म कौन है और अन्तकाल में किस प्रकार साधन करने वाला मनुष्य उसको प्राप्त होता है- यह बात मैं तुम्हें संक्षेप से कहूंगा।[19]
सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर[20] तथा मन को हृदेश में स्थिर करके,[21] फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक-में स्थापित करके, परमात्मा सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ऊं’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।[22] हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अन्नयचित्त[23] होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम[24] को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हुं, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हुं।[25] परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन[26] मुझको प्राप्त होकर दु:खों के घर एवं क्षणभङ्गुर[27] पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते।
सम्बन्ध- भगवत्प्राप्त महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता- इस कथन से यह प्रकट होता है कि दूसरे जीवों का पुनर्जन्म होता है। अत: यहाँ यह जानने की इच्छा होती है कि किस लोक तक पहुँचे हुए जीवों को वापस लौटना पड़ता है। इस पर भगवान् कहते हैं- हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यन्त[28] सब लोक पुनरावर्ती[29] हैं, परंतु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल के द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं। ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगी तक की अवधिवाला और रात्रि को भी एक हजार चतुर्युगी तक की अवधिवाली जो पुरुष तत्त्व से जानते हैं,[30]वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं। सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं[31] और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं।[32][33] उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है[34] सम्बन्ध- ब्रह्मा की रात्रि के आरम्भ में जिस अव्यक्त में समस्त भुत लीन होते हैं और दिन का आरम्भ होते ही जिससे उत्पन्न होते हैं वही अव्यक्त सर्वश्रेष्ठ है या उससे बढ़कर कोई दूसरा और है? इस जिज्ञासा पर कहते है। उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण और सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं होता।[35]
सम्बन्ध- आठवें और दसवें श्लोकों में अधियज्ञ की उपासना का फल परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति, तेरहवें श्लोक में परम अक्षर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का फल परम गति की प्राप्ति ओर चौदहवें श्लोक में सगुण-साकार भगवान् श्रीकृष्ण की उपासना का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया है। इससे तीनों में किसी प्रकार के भेद का भ्रम न हो जाय, इस उद्देश्य से अब सब की एकता का प्रतिपादन करते हुए उनकी प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म का अभाव दिखलाते हैं-जो अव्यक्त ‘अक्षर’[36] इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति[37] कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम हैं।[38] हे पार्थ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत परिपूर्ण हैं,[39] वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्यभक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है।[40]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-5
- ↑ अक्षर के साथ ‘परम’ विशेषण देकर भगवान् यह बतलाते हैं कि गीता के सातवें अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में प्रयुक्त ‘ब्रह्म’ शब्द निर्गुण निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का वाचक है वेद, ब्रह्मा और प्रकृति आदि का नहीं।
- ↑ ’स्वों भाव: स्वभाव:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने ही भाव का नाम स्वभाव है। जीवरूपा भगवान् की चेतन परा प्रकृति रूप आत्मतत्त्व ही जब आत्म-शब्दवाच्य शरीर, इन्द्रिय, मन-बुद्धियादिरूप अपरा प्रकृति का अधिष्ठाता हो जाता है, तब उसे ‘अध्यात्म’ कहते हैं। अत एवं गीता के सातवें अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में भगवान् में ‘कृत्स्त्र’ विशेषण के साथ जो ‘अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ ‘चेतन जीवसमुदाय’ समझना चाहिये।
- ↑ ’भूत’ शब्द चराचर प्राणियों का वाचक है। इन भूतों के भाव का उद्भव और अभ्युदय जिस त्याग से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, उस ‘त्याग’ का नाम ही कर्म है। महाप्रलय में विश्व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म-संस्कारों के साथ भगवान् में विलीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में भगवान् जब यह संकल्प करते हैं कि ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊं’ तब पुन: उनकी उत्पत्ति होती हैं। भगवान् का यह ‘आदि संकल्प’ ही अचेतन प्रकृति रूप योनि में चेतनरूप बीज की स्थापना करना है। यही महान् विसर्जन है और इसी विसर्जन (त्याग) का नाम ‘विसर्ग’ है।
- ↑ अपरा प्रकृति और उसके परिणाम से उत्पन्न जो विनाशशील तत्त्व है, जिसका प्रतिक्षण क्षय होता है, उसका नाम ‘क्षरभाव’ है। इसी को गीता के तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ (शरीर) के नाम से और पंद्रहवें अध्याय में ‘क्षर’ पुरुष के नाम से कहा गया है।
- ↑ ‘पुरुष’ शब्द यहाँ ‘प्रथम पुरुष’ का वाचक है इसी को सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति या ब्रह्मा कहते हैं। जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण विश्व का यही प्राण पुरुष है, समस्त देवता इसी के अङ्ग हैं, यही सब का अधिष्ठाता, अधिपति और उत्पादक है इसी से इसका नाम ‘अधिदैव’ है।
- ↑ अर्जुन दो बातें पूछी थीं- ‘अधियज्ञ’ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? दोनों प्रश्नों का भगवान् ने एक ही साथ उत्तर दे दिया है। भगवान् ही सब यज्ञों के भोक्ता और प्रभु हैं (गीता 5/ 29;9/ 24) और समस्त फलों का विधान वे ही करते हैं (गीता 7/22) तथा वे ही अन्तर्यामीरूप से सब के अंदर व्यापक हैं इसलिये वे कहते हैं कि ‘इस शरीर में अन्तर्यामीरूप से अधियज्ञ मैं स्वयं ही हूँ।’
- ↑ यहाँ अन्तकाल का विशेष महत्त्व प्रकट किया गया है, अत: भगवान् के कहने का यहाँ यह भाव हे कि जो सदा-सर्वदा मेरा अनन्यचिन्तन करते हैं उनकी तो बात ही क्या है, जो इस मनुष्य-जन्म के अन्तिम क्षण तक भी मेरा चिन्तन करते हुए शरीर त्यागकर जाते हैं, उनको भी मेरी प्राप्ति हो जाती है।
- ↑ अन्तकाल में भगवान् का स्मरण करने वाला मनुष्य किसी भी देश और किसी भी काल में क्यों न मरे एवं पहले के उसके आचरण चाहे जैसे भी क्यों न रहें हों, उसे भगवान् की प्राप्ति नि:संदेह हो जाती है। इसमें जरा भी शङ्का नहीं है।
- ↑ ईश्वर, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पंतग, वृक्ष, मकान, जमीन आदि जितने भी चेतन और जड़ पदार्थ हैं, उन सबका नाम ‘भाव’ है। अन्तकाल में किसी भी पदार्थ का चिन्तन करना, उस भाव का स्मरण करना है।
- ↑ अन्तकाल में प्राय: उसी भाव का स्मरण होता है जिस भाव से चित्त सदा भावित होता है। पूर्व संस्कार, संग, वातावरण, आसक्ति, कामना, भय और अध्ययन आदि के प्रभाव से मनुष्य जिस भाव का बार-बार चिन्तन करता है, वह उसी से भावित हो जाता है तथा मरने के बाद सूक्ष्म रूप से अन्त:करण में अङ्कित हुए उस भाव से भावित होता-होता समय पर उस भाव को पूर्णतया प्राप्त हो जाता है। किसी मनुष्य का छायाचित्र (फोटो) लेते समय जिस क्षण फोटो (चित्र) खींचा जाता हैं, उस क्षण में वह मनुष्य जिस प्रकार से स्थित होता है, उसका वैसा ही चित्र उतर जाता है; उसी प्रकार अन्तकाल में मनुष्य जैसा चिन्तन करता है, वैसे ही रूप का फोटो उसके अन्त:करण में अङ्कित हो जाता है। उसके बाद फोटो की भाँति अन्य सहकारी पदार्थो की सहायता पाकर उस भाव से भावित होता हुआ वह समय पर स्थूलरूप को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ अन्त:करण ही कैमरे का प्लेट है, उसमें होने वाला स्मरण ही प्रतिबिम्ब है और अन्य सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति ही चित्र खींचना है अतएव जैसे चित्र लेने वाला सबको सावधान करता है और उसकी बात न मानकर इधर-उधर हिलने-डुलने से चित्र बिगड़ जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण प्राणियों का चित्र उतारने वाले भगवान् मनुष्य को सावधान करते है ‘तुम्हारा फोटो उतरने का समय अत्यन्त समीप है, पता नहीं वह अन्तिम क्षण कब आ जाय; इसलिये तुम सावधान हो जाओ, नहीं तो चित्र बिगड़ जायगा।’ यहाँ निरन्तर परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करना ही सावधान होना है और परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी का चिन्तन करना ही अपने चित्र को बिगाड़ना है। - ↑ जो भगवान् के गुण और प्रभाव को भली-भाँति जानने वाला अनन्य प्रेमी भक्त है, जो सम्पूर्ण जगत् को भगवान् के द्वारा ही रचित और वास्तव में भगवान् से अभिन्न तथा भगवान् की क्रीडास्थली समझता है, उसे प्रह्लाद और गोपियों की भाँति प्रत्येक परमाणु में भगवान् के दर्शन प्रत्यक्ष की भाँति होते रहते हैं; अतएव उसके लिये तो निरन्तर भगवत्स्मरण के साथ-साथ अन्याय कर्म करते रहना बहुत आसान बात है तथा जिसका विषय भोगों में वैराग्य होकर भगवान् में मुख्य प्रेम हो गया है, जो निष्काम भाव से केवल भगवान् की आज्ञा समझकर भगवान् के लिये ही वर्णधर्म के अनुसार कर्म करता है, वह भी निरन्तर भगवान् का स्मरण करता हुआ अन्यान्य कर्म कर सकता है। जैसे अपने पैरों का ध्यान रखती हुई नटी बांस पर चढ़कर अनेक प्रकार के खेल दिखलाती है, अथवा जैसे हैंडल पर पूरा ध्यान रखता हुआ मोटर-ड्राइवर दूसरों से बातचीत करता है और विपत्ति से बचने के लिये रास्ते की ओर भी देखता रहता है, उसी प्रकार निरन्तर भगवान् का स्मरण करते हुए वर्णाश्रम के सब काम सुचारू रूप से हो सकते हैं।
- ↑ बुद्धि से भगवान् के गुण, प्रभाव, स्वरूप, रहस्य और तत्त्व को समझकर परमश्रद्धा के साथ अटक निश्चय कर लेना और मन से अनन्य श्रद्धा-प्रेमपूर्वक गुण, प्रभाव के सहित भगवान् का निरन्तर चिन्तन करते रहना- यही मन-बुद्धि को भगवान् में समर्पित कर देना है।
- ↑ यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के अभ्यास का नाम ‘अभ्यासयोग’ है। ऐसे अभ्यास-योग के द्वारा जो चित्त भलीभाँति वश में होकर निरन्तर अभ्यास में ही लगा रहता है, उसे ‘अभ्यासयोंग युक्त’ कहते है।
- ↑ इसी अध्याय के चौथे श्लोक में जिसको ‘अधियज्ञ’ कहा है और बाईसवें श्लोक में जिसको ‘परम पुरुष’ बतलाया है, भगवान् के उस सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाले सगुण निराकार सर्वव्यापी अव्यक्त ज्ञानस्वरूप को यहाँ ‘दिव्य परम पुरुष’ कहा गया है। उसका चिन्तन करते-करते उसे यथार्थरूप में जानकर उसके साथ तद्रूप हो जाना ही उसको प्राप्त होना है।
- ↑ परमेश्वर अन्तर्यामीरूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाले होने से ‘सबके नियन्ता’ हैं।
- ↑ वेद के जानने वाले ज्ञानी महात्मा पुरुष कहते हैं कि यह ‘अक्षर’ है अर्थात् यह एक ऐसा महान् तत्त्व है, जिसका किसी भी अवस्था में कभी भी किसी भी रूप में क्षय नहीं होता यह सदा अविनश्वर, एकरस और एकरुप रहता है। गीता के बारहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिस अव्यक्त अक्षर की उपासना का वर्णन है, यहाँ भी यह उसी का प्रसंग है।
- ↑ ‘ब्रह्मचर्य’, का वास्तविक अर्थ है, ब्रह्म में अथवा ब्रह्म के मार्ग में संचरण करना- जिन साधनों से ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर हुआ जा सकता है, उनका आचरण करना। ऐसे साधन ही ब्रह्मचारी के व्रत कहलाते हैं, सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना भी इन्हीं के अन्तर्गत हैं। ये ब्रह्मचर्य-आश्रम में आश्रमधर्म के रूप में अवश्य पालनीय हैं और साधारणतया तो अवस्था भेद के अनुसार सभी साधनों को यथाशक्ति उनका अवश्य पालन करना चाहिये।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 32 श्लोक 6-11
- ↑ श्रोत्रादि पांच ज्ञानेन्द्रिय और वाणी आदि पांच कर्मेन्द्रिय- इन दसों इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण होता है, इसलिये इनको ‘द्वार’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त इनके रहने के स्थानों (गोलकों) को भी ‘द्वार’ कहते हैं। इन इन्द्रियों को ब्रह्य विषयों से हटाकर अर्थात् देखने-सुनने आदि की समस्त क्रियाओं को बंद करके, साथ ही इन्द्रियों के गोलकों को भी रोक कर इन्द्रियों की वृत्ति को अन्तर्मुख कर लेना ही सब द्वारों का संयम करना है। इसी को योगशास्त्र में ‘प्रत्याहार’ कहते हैं।
- ↑ नाभि और कण्ठ- इन दोनों स्थानों के बीच का स्थान, जिसे हृदयकाल भी कहते हैं और जो मन तथा प्राणों का निवास स्थान माना गया है, हृदेश है और इधर-उधर भटकने वाले मन को संकल्प-विकल्पों से रहित करके हृदय में निरुद्ध कर देना ही उसको हृदेश में स्थिर करना हैं।
- ↑ निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अभेदभाव से प्राप्त हो जाना, परम गति को प्राप्त होना हैं। इसी को सदा के लिये आवागमन-से मुक्त होना, मुक्तिलाभ कर लेना, मोक्ष को प्राप्त होना अथवा निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होना कहते हैं।
- ↑ जिसका चित्त अन्य किसी भी वस्तु में न लग कर निरन्तर अनन्य प्रेम के साथ केवल परम प्रेमी परमेश्वर में ही लगा रहता हो, उसे ‘अनन्यचेता:’ कहते हैं।
- ↑ यहाँ ‘माम्’ पद सगुण साकार पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का वाचक है; परंतु जो श्रीविष्णु और श्रीराम या भगवान् के दूसरे रूप को इष्ट मानने वाले हैं, उनके लिये वह रूप भी ‘माम्’ का ही वाच्य है तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरन्तर भगवान् के स्वरूप का अथवा उनके नाम, गुण, प्रभाव और लीला आदि का चिन्तन करते रहना ही उनका स्मरण करना है।
- ↑ अनन्यभाव से भगवान् का चिन्तन करने वाला प्रेमी भक्त जब भगवान् के वियोग को नहीं सह सकता तब ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता 4/11) के अनुसार भगवान् को भी उसका वियोग असह्य हो जाता है और जब भगवान् स्वयं मिलने की इच्छा करते हैं, तब कठिनता के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। इसी हेतु से, ऐसे भक्त के लिये भगवान् को सुलभ बतलाया गया है।
- ↑ अतिशय श्रद्धा और प्रेम के साथ नित्य-निरन्तर भजन-ध्यान का साधन करते-करते जब साधन की वह पराकाष्ठा रूप स्थिति प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होने के बाद फिर कुछ भी साधन करना शेष नहीं रह जाता और तत्काल ही उसे भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाता है- उस पराकाष्ठा की स्थिति को ‘परम सिद्धि’ कहते हैं और भगवान् के जो भक्त इस परम सिद्धि को प्राप्त हैं, उन ज्ञानी भक्तों के लिये ‘महात्मा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
- ↑ मरने के बाद कर्मपरवश होकर देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में से किसी भी योनि में जन्म लेना ही पुनर्जन्म कहलाता है और ऐसी कोई भी योनि नहीं है, जो दु:खपूर्ण और अनित्य न हो। अत: पुनर्जन्म में गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त दु:ख-ही-दु:ख होने के कारण उसे दु:खों का घर कहा गया है और किसी भी योनि का तथा उस योनि में प्राप्त भोगों का संयोग सदा न रहने वाला होने से उसे अशातश्वत (क्षणभङ्गुर) बतलाया गया है।
- ↑ जो चतुर्मुख ब्रह्मा सृष्टि के आदि में भगवान् के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सारी सृष्टि की रचना करते हैं, जिनको प्रजापति, हिरण्यगर्भ और सूत्रात्मा भी कहते हैं तथा इसी अध्याय में जिनको ‘अधिदैव’ कहा गया है (गीता 8/4), वे जिस ऊर्ध्वलोक में निवास करते हैं, उस लोक विशेष का नाम ‘ब्रह्मलोक’ हैं। उपर्युक्त ब्रह्मलोक के सहित उससे नीचे के जितने भी विभिन्न लोक हैं, उन सबको पुनरावर्ती समझना चाहिये।
- ↑ बार-बार नष्ट होना और उत्पन्न होना जिनका स्वभाव हो, उन लोकों को ‘पुनरावर्ती’ कहते हैं।
- ↑ यहाँ ‘युग’ शब्द ‘दिव्य युग’ का वाचक है- जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग चारों युगों के समय को मिलाने पर होता है। यह देवताओं का युग है, इसलिये इस को ‘दिव्यु युग’ कहते है। इस देवताओं के समय का परिणाम हमारे समय के परिणाम से तीन सौ साठ गुना अधिक माना गया है। अर्थात् हमारा एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात, हमारे तीस वर्ष देवताओं का एक महीना और हमारे तीन सौ साठ वर्ष उनका एक दिव्य वर्ष होता है। ऐसे बारह हजार दिव्य वर्षो का एक ‘दिव्य युग’ होता है। इसे ‘महायुग’ और ‘चतुर्युगी’ भी कहते है। इस संख्या के जोड़ने पर हमारे 43,20,000 वर्ष होते हैं। दिव्य वर्षों के हिसाब से बारह सौ दिव्य वर्षो का हमारा कलियुग, चौबीस सौ का द्वापर, छत्तीस सौ का त्रेता और अड़तालीस सौ वर्षों का सत्ययुग होता है। कुल मिलाकर 12,000 वर्ष होते हैं।इसे दूसरी तरह समझिये। हमारे युगों के समय का परिमाण इस प्रकार है-
कलियुग – 4,32,000 वर्ष
द्वापरयुग- 8,64,000 वर्ष (कलियुग से दुगुना)
त्रेतायुग- 12,96,000 वर्ष (कलियुग से तिगुना)
सत्ययुग- 17,28,000 वर्ष (कलियुग से चौगुना)------------------------------ कुल जोड़- 43,20,000 वर्षयह एक दिव्य युग हुआ। ऐसे हजार दिव्य युगों का अर्थात् हमारे 4,32,00,00,000 (चार अरब बत्तीस करोड़) वर्ष का ब्रह्मा का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है। मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में चौंसठवें से तिहत्तरवें श्लोक तक इस विषय का विशद वर्णन है। ब्रह्मा के दिन को ‘कल्प’ या ‘संग’ ओर रात्रि को प्रलय कहते है। ऐसे तीस दिन-रात का ब्रह्मा का एक महिना, ऐसे बारह महीनों का एक वर्ष और ऐसे सौ वर्षों की ब्रह्मा की पूर्णायु होती है। ब्रह्मा के दिन-रात्रि का परिमाण बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार ब्रह्मा का जीवन ओर उनका लोक भी सीमित तथा काल की अवधिवाला है, इसलिये वह भी अनित्य ही है और जब वही अनित्य है, तब उसके नीचे के लोक ओर उनमें रहने वाले प्राणियों के शरीर अनित्य हों, इसमें तो कहना ही क्या है?
- ↑ देव, मनुष्य, पितर, पशु, पक्षी आदि योनियों में जितने भी व्यक्त रूप में स्थित देहधारी चराचर प्राणी है, उन सबको ‘व्यक्ति’ कहा है। प्रकृति का जो सूक्ष्म परिणाम है, जिसको ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर भी कहते हैं, स्थूल पञ्चमहाभुतों के उत्पन्न होने से पूर्व की जो स्थिति है, उस सूक्ष्म अपरा प्राकृति का नाम यहाँ ‘अव्यक्त’ हैं। ब्रह्मा के दिन के आगम में अर्थात् जब ब्रह्मा अपनी सुषुप्ति-अवस्था का त्याग करके जागत् अवस्था को स्वीकार करते है, तब उस सूक्ष्म प्रकृति में विकार उत्पन्न होता है और वह स्थूल रूप में परिणत हो जाती है एवं उस स्थूल रूप में परिणत प्रकृति के साथ सब प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार विभिन्न रूपों में सम्बद्ध हो जाते है। यही अव्यक्त से व्यक्तियों का उत्पन्न होता है।
- ↑ एक हजार दिव्य युगों के बीत जाने पर जिस क्षण में ब्रह्मा जाग्रत्-अवस्था का त्याग करके सुषुप्ति-अवस्था को स्वीकार करते हैं, उस प्रथम क्षण का नाम ब्रह्मा की रात्रि का आगम प्रवेशकाल है। उस समय स्थूल रूप में परिणत प्रकृति सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त हो जाती है और समस्त देहधारी प्राणी भिन्न-भिन्न स्थूल शरीरों से रहित होकर प्रकृति की सूक्ष्म अवस्था में स्थित हो जाते हैं। यही उस अव्यक्त में समस्त व्यक्तियों का लय होना हैं।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 32 श्लोक 12-18
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अव्यक्त में लीन हो जाने से भूतप्राणी न तो मुक्त होते हैं और न उसकी भिन्न सत्ता ही मिटती है। इसीलिये ब्रह्मा की रात्रि का समय समाप्त होते ही वे सब पुन: अपने-अपने गुण और कर्मों के अनुसार यथायोग्य स्थूल शरीरों को प्राप्त करके प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार यह भूतसमुदाय अनादि काल से उत्पन्न हो-होकर लीन होता चला आ रहा है। ब्रह्मा की आयु के सौ वर्ष पूर्ण होने पर जब ब्रह्मा का शरीर भी मूल प्रकृति मे लीन हो जाता है ओर उसके साथ-साथ सब भुतसमुदाय भी उसीमें लीन हो जाते हैं (गीता 9/7), तब भी इनके इस चक्कर का अन्त नहीं आता। ये उसके बाद भी उसी तरह पुन: पुन: उत्पन्न होते रहते है (गीता 9/8)। जब तक प्राणी को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक वह बार-बार इसी प्रकार उत्पन्न हो-होकर प्रकृति में लीन होता रहेगा। यहाँ ब्रह्मा के दिन-रात का प्रसंग होने से यही समझना चाहिये कि ब्रह्मा ही समस्त प्राणियों को उनके गुण-कर्मानुसार शरीरों से सम्बद्ध करके बार-बार उत्पन्न करते हैं। महाप्रलय के बाद जिस समय ब्रह्मा की उत्पत्ति नहीं होती, उस समय तो सृष्टि की रचना स्वयं भगवान् करते हैं; परंतु ब्रह्मा के उत्पन्न होने के बाद सबकी रचना ब्रह्मा ही करते हैं। गीता के नवें अध्याय में (श्लोक 7 से 10) और चौदहवें अध्याय में (श्लोक 3,4) जो सृष्टि रचना का प्रसंग है, वह महाप्रलय के बाद महासर्ग के आदि काल का है और यहाँ का वर्णन ब्रह्मा की रात्रि के (प्रलय के) बाद ब्रह्मा के दिन के (सर्ग के) आरम्भ-समय का हैं। - ↑ अठारहवें श्लोक में जिस ‘अव्यक्त’ में समस्त व्यक्तियों (भूत-प्राणियों) का लय होना बतलाया गया है, उसी का वाचक यहाँ ‘अव्यक्तात्’ पद है उस पूर्वोक्त ‘अव्यक्त’ से इस ‘अव्यक्त’ को ‘पर’ और ‘अन्य’ बतलाकर उस से इसकी अत्यन्त श्रेष्ठता और विलक्षणता सिद्ध की गयी है। अभिप्राय यह है कि दोनों का स्वरूप ‘अव्यक्त’ होने पर भी दोनों एक जाति की वस्तु नहीं हैं। वह पहला ‘अव्यक्त’ जड, नाशवान् और ज्ञेय है परंतु यह दूसरा चेतन, अविनाशी और ज्ञाता है। साथ ही यह उसका स्वामी, संचालक और अधिष्ठाता है अतएव यह उससे अत्यन्त श्रेष्ठ और विलक्षण है। अनादि और अनन्त होने के कारण इसे ‘सनातन’ कहा गया है। इसलिये यह सबके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।
- ↑ जिसे पूर्वश्लोक में ‘सनातन अव्यक्तभाव’ के नाम से और आठवें तथा दसवें श्लोकों में ‘परम दिव्य पुरुष’ के नाम से कहा है, उसी अधियज्ञ पुरुष को यहाँ ‘अव्यक्त’ और ‘अक्षर’ कहा है।
- ↑ जो मुक्ति सर्वोत्तम प्राप्य वस्तु है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता, उसका नाम ‘परम गति’ है। इसलिये जिस निर्गुण-निराकार परमात्मा को ‘परम अक्षर’ और ‘ब्रह्म’ कहते है, उसी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को ‘परम गति’ कहा गया है। (गीता 8/13)
- ↑ अभिप्राय यह है कि भगवान् के नित्य धाम की, भगवद्भाव की और भगवान् के स्वरूप की प्राप्ति मे कोई वास्तविक भेद नहीं है। इसी तरह अव्यक्त अक्षर की प्राप्ति में तथा परमगति की प्राप्ति में और भगवान् की प्राप्ति में भी वस्तुत: कोई भेद नहीं है। साधना के भेद से साधकों की दृष्टि में फल का भेद हैं। इसी कारण उसका भिन्न-भिन्न नामों से वर्णन किया गया हैं। यथार्थ में वस्तुगत कुछ भी भेद न होने के कारण यहाँ उन सबकी एकता दिखलायी गयी है।
- ↑ जैसे वायु, तेज, जल और पृथ्वी- चारों भूत आकाश के अन्तर्गत हैं, आकाश ही उनका एकमात्र कारण और आधार है, उसी प्रकार समस्त चराचर प्राणी अर्थात सारा जगत परमेश्वर के ही अन्तर्गत है, परमेश्वर से ही उत्पन्न है और परमेश्वर के ही आधार पर स्थित है तथा जिस प्रकार वायु, तेज, जल, पृथ्वी- इन सब में आकाश व्याप्त है, उसी प्रकार यह सारा जगत् अव्यक्त परमेश्वर से व्याप्त है, यही बात गीता के नवम् अध्याय के चौथे, पांचवें और छठे श्लोकों में विस्तारपूर्वक दिखलायी गयी है।
- ↑ सर्वाधार, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, परम पुरुष परमेश्वर में ही सब कुछ समर्पण करके उनके विधान में सदा परम संतुष्ट रहना और सब प्रकार से अनन्य प्रेमपूर्वक नित्य-निरन्तर उनका स्मरण करना ही अनन्य भक्ति है। इस अनन्य भक्ति के द्वारा साधक अपने उपास्यदेव परमेश्वर के गुण, स्वभाव और तत्त्व को भलीभाँति जानकर उनमें तन्मय हो जाता है और शीघ्र ही उनका साक्षात्कार करके कृतकृत्य हो जाता है। यही साधक का उन परमेश्वर को प्राप्त कर लेना है।
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| भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन
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| गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना
| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
| विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम
| भीष्म द्वारा श्वेत का वध
| भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति
| युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन
| धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना
| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
| भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध
| भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
| कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति
| धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना
| भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन
| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
| कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण
| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
| अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण
| धृतराष्ट्र की चिन्ता
| भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध
| भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
| द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध
| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
| मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय
| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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