वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन

वेदव्यास जी ने धृतराष्ट्र से अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन किया हैं, अब धृतराष्ट्र बोले -तात! जैसा आप जानते है, उसी प्रकार मैं भी इन बातों को समझता हूँ। महर्षे! मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती परंतु क्या करू? मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। यह सुनकर वेदव्यास धृतराष्ट्र से विजयसूचक लक्षणों का वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व के अंतर्गत तृतीय अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

धृतराष्‍ट्र द्वारा व्यास से विजयसूचक लक्षणों के बारे में पूछना

धृतराष्‍ट्र बोले- तात! जैसा आप जानते है, उसी प्रकार मैं भी इन बातों को समझता हूँ। भाव और अभाव का यथार्थ स्वरूप मुझे भी ज्ञात है, तथापि यह संसार अपने स्वार्थ के लिये मोह में पड़ा रहता है। मुझे भी संसार से अभिन्न ही समझें। आपका प्रभाव अनुपम है। आप हमारे आश्रय, मार्गदश्रक तथा धीर पुरुष हैं। मैं आपको प्रसन्न करना चाहत हूँ। महर्षे! मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती परंतु क्या करू? मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। आप ही हम भरतवंशियों की धर्म-प्रवृत्ति, यश तथा कीर्ति के हेतु हैं। आप कौरवों ओर पाण्‍डवों-दोनों के माननीय पितामह हैं। व्यासजी बोले- विचित्रवीर्यकुमार! नरेश्‍वर! तुम्हारे मन में जो संदेह है, उसे अपनी इच्छा के अनुसार प्रकट करो। मैं तुम्हारे संशय का निवारण करूंगा। धृतराष्‍ट्र बोले- भगवन्! युद्ध में निश्चित रूप से विजय पाने वाले लोगों को जो शुभ लक्षण दीख पड़ते हैं, उन सबको यथार्थरूप से सुनने की मेरी इच्छा हैं।

वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन करना

व्यासजी ने कहा- अग्नि की प्रभा निर्मल हो, उनकी लपटें ऊपर की ओर दक्षिणावर्त होकर उठें और धूआं बिल्कुल न रहे साथ ही अग्नि में जो आहुतियां डाली जायं, उनकी पवित्र सुगन्ध वायु में मिलकर सर्वत्र व्याप्त होती रहे- यह भावी विजय का स्वरूप (लक्षण) बताया गया हैं। जिस पक्ष में शङ्खों और मृदङ्गों की गम्भीर आवाज बड़े जोर-जोर से हो रही हो तथा जिन्हें सूर्य और चन्द्रमा की किरणें विशुद्ध प्रतीत होती हों, उनके लिये यह भावी विजय का शुभ लक्षण बताया हैं। जिनके प्रस्थित होने पर अथवा प्रस्थान के लिये उद्यत होने पर कौवों की मीठी आवाज फैलती है, उनकी विजय सूचित होती है राजन्! जो कौवे पीछे बोलते है, वे मानो सिद्धि की सूचना देते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करते हैं और जो सामने बोलते हैं, वे मानों युद्ध में जान से रोकते हैं। जहाँ शुभ एवं कल्याणमयी बोली बोलने वाले राजहंस, शुक, कौञ्च तथा शतपत्र (मोर) आदि पक्षी सैनिकों की प्रदक्षिणा करते हैं (दाहिने जाते हैं), उस पक्ष की युद्ध में निश्चितरूप से विजय होती हैं, यह ब्राह्मणों का कथन हैं। अलङ्कार, कवच, ध्‍वजा-पताका, सुखपूर्वक किये जाने वाले सिंहनाद अथवा घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज से जिनकी सेना अत्यन्त शोभायमान होती है तथा शत्रुओं को जिनकी सेना की ओर देखना भी कठिन जान पड़ता हैं, वे अवश्‍य अपने विपक्षियों पर विजय पाते हैं।

भारत! जिस पक्ष के योद्धाओं की बातें हर्ष और उत्साह से परिपूर्ण होती हैं, मन प्रसन्न रहता है तथा जिनके कण्‍ठ में पड़ी हुई पुष्‍पमालाएं कुम्हलाती नहीं हैं, वे युद्धरूपी महासागर से पार हो जाते हैं। जिस पक्ष के योद्धा शत्रु की सेना में प्रवेश करने की इच्छा करते समय अथवा उसमें प्रवेश कर लेने पर अभीष्‍ट वचन (मैं तुझे अभी मार भागता हुं इत्यादि शौर्यसूचक बातें) बोलते हैं और अपने रणकौशल का परिचय देते हैं, वे पीछे प्राप्त होने वाली अपनी विजय को पहले से ही निश्चित कर लेते हैं। इसके विपरीत जिन्हें शत्रुसेना में प्रवेश करते समय सामने-से निषेधसूचक वचन सुनने को मिलते हैं, उनकी पराजय होती हैं। जिनके शब्‍द, रूप, रस, गन्‍ध ओर स्‍पर्श आदि निर्विकार एवं शुभ होते हैं तथा जिन योद्धाओं के हृदय में सदा हर्ष और उत्‍साह बना रहता है, उनके विजयी होने का यही शुभ लक्षण है। राजन्! हवा जिनके अनुकूल बहती है, बादल और पक्षी भी जिनके अनुकूल होते हैं, मेघ जिनके पीछे-पीछे छत्र-छाया किये चलते हैं तथा इन्‍द्रधनुष भी जिन्‍हें अनुकूल दिशा में ही दृष्टिगोचर होते हैं, उन विजयी वीरों के लिये ये विजय के शुभ लक्षण हैं। जनेश्र्वर! मरणासन्‍न मनुष्‍यों को इसके विपरीत अशुभ लक्षण दिखायी देते हैं। सैना छोटी हो या बड़ी, उसमें सम्मिलित होने वाले सैनिकों का एकमात्र हर्ष ही निश्चित रूप से विजय का लक्षण बताया जाता है। यदि सेना का एक सैनिक भी उत्‍साहहीन होकर पीछे हटे तो अपनी ही देखा-देखी अत्‍यंत विशाल सेना को भी भगा देता है (उसके भागने में कारण बन जाता है)। उस सेना के पलायन करने पर बडे़- बड़े शूरवीर सैनिक भी भागने को विवश होते हैं।[1]


जब बड़ी भारी सेना भागने लगती है, तब डरकर भागे हुए मृगों के झुंड तथा नीची भूमि की ओर बहने वाले जल के महान् वेग की भाँति उसे पीछे लौटाना बहुत कठिन है। भरतनंदन! विशाल सेना में जब भागदड़ मच जाती है, तब उसे समझा-बुझाकर रोकना कठिन हो जाता है। सेना भाग रही है, इतना सुनकर ही बड़े-बड़े़ युद्धविद्या के विद्वान् भी भागने लगते हैं। राजन्! भयभीत होकर भागते हुए सैनिकों को देखकर अन्‍य योद्धाओं का भय, बहुत अधिक बढ़ जाता है फिर तो सहसा सारी सेना हतोत्‍साह होकर सम्‍पूर्ण दिशाओं में भागने लगती है। उस समय बहुत से शूरवीर भी उस विशाल वाहिनी को रोककर खडे‌ नहीं रख सकते। इसलिये बुद्धिमान् राजा को चाहिये कि वह सतत सावधान रहकर कोई-न-कोई उपाय करके अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना को विशेष सत्‍कारपूर्वक स्थिर रखने का यत्‍न करे।

राजन्! साम-दानरूप उपाय से जो विजय प्राप्‍त होती है, उसे श्रेष्‍ठ बताया गया है। भेदनीति के द्वारा शुत्रुसेना में फूट डालकर जो विजय प्राप्‍त की जाती है, वह मध्‍यम है तथा युद्ध के द्वारा मार-काट मचाकर जो शत्रु को पराजित किया जाता है, वह सबसे निम्रश्रेणी की विजय है। युद्ध महान् दोष का भण्‍डार है। उन दोषों में सबसे प्रधान है जनसंहार। यदि एक दूसरे को जानने वाले, हर्ष ओर उत्‍साह से भरे रहने वाले, कहीं भी आसक्‍त न होकर विजय-प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखने वाले तथा शौर्यसम्‍पन्‍न पचास सैनिक भी हों तो वे बड़ी भा‍री सेना को धूल में मिला देते हैं। यदि पीछे पैर न हटाने वाले पांच, छ: और सात ही योद्धा हो तो वे भी निश्चित रूप से विजयी होते हैं। भारत! सुंदर पंखों वाले विनतानंदन गरुड़ विशाल सेना का भी विनाश होता देखकर अधिक जनसमूह की प्रशंसा नहीं करते हैं। सदा अधिक सेना होने से ही विजय नहीं होती है। युद्ध में जीत प्राय: अनिश्चित होती है। उसमें दैव ही सबसे बड़ा सहारा है। जो संग्राम में विजयी होते है, वे ही कृतकार्य होते हैं।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 64-76
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 77-85

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