- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 30वें अध्याय में 'निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा' का निम्न प्रकार वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
संबंध-पांचवे अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने ‘कर्मसंन्यास’ (सांख्ययोग) और ‘कर्मयोग’-इन दोनों में से कौन-सा एक साधन मेरे लिये सुनिश्चित कल्याणप्रद है?-यह बतलाने के लिये भगवान् से प्रार्थना की थी। इस पर भगवान् ने दोनों साधनों-को कल्याणप्रद सुगमता होने के कारण ‘कर्मसंन्यास’ की अपेक्षा ‘कर्मयोग’ की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। पदनंतर दोनों साधनों के स्वरूप, उनकी विधि और उनके फल का भलीभाँति निरूमण करके दोनों के लिये ही अत्यंत उपयोगी एवं परमात्मा-की प्राप्ति का प्रधान उपाय समझकर संक्षेप में ध्यानयोग का भी वर्णन किया परंतु दोनों में से कौन-सा साधन करना चाहिये, इस बात को न तो अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में आज्ञा ही की गयी और न ध्यानयोग का ही अङ्ग-प्रत्यङ्गों सहित विस्तार से वर्णन हुआ। इसलिये अब ध्यानयोग का अङ्गोंसहित विस्तृत वर्णन करने के लिये छठे अध्याय का आरम्भ करते हुए सबसे पहले अर्जुन को भक्तियुक्त कर्मयोग में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से कर्मयोग की प्रशसा करते हैं।
विषय सूची
कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्मयोग का प्रतिपादन करना
श्रीभगवान् बोले- अर्जुन जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर[2] करने योग्य कर्म करता है,[3] वह संन्यासी तथा योगी है[4] और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं हैं[5] तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं हैं[6] संबंध-पहले श्र्लोक में भगवान् ने कर्मफल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को संन्यासी और योगी बतलाया। उस पर यह शङ्का हो सकती है कि यदि ‘संन्यासी’ और ‘योग’ दोनों भिन्न-भिन्न स्थिति हैं तो उपर्युक्त साधक दोनों से सम्पन्न कैसे हो सकता है अत: इस शङ्का का निराकरण करने के लिये दूसरे श्र्लोक में ‘संन्यास’ ‘योग’ की एकता का प्रतिपादन करते हैं- हे अर्जुन! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी का तू योग जान[7] क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता। योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिये योग की प्राप्ति में निष्कामभाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता हैं[8] और योगरूढ हो जाने पर उस योगारूढ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव हैं[9] वही कल्याण में हेतु कहा जाता हैं।[1]
जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्व संकल्पों का त्यागी[10] पुरुष योगारूढ कहा जाता हैं। सम्बन्ध- परमपद की प्राप्ति में हेतु रूप योगारूढ अवस्था का वर्णन करके अब उसे प्राप्त करने के लिये उत्साहित करते हूए भगवान् मनुष्य का कर्तव्य बतलाते हैं- अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे[11] और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु हैं।[12] जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है,[13] उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिय वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता हैं[14] संबंध-जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र क्यों है, इस बात को स्पष्ट करने के लिये अब शरीर, इन्द्रिय और मन रूप आत्मा को वश में करने का फल बतलाते हैं- सरदी-गरमी और सुख-दु:खादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंत:करण की वृत्तियां भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित हैं अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं। जिसका अंत:करण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इन्द्रियां भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात् भगवत् प्राप्त हैं, ऐसे कहा जाता है। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य[15] और बंधुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला[16] अत्यंत श्रेष्ठ है।[17] संबंध-यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि जितात्मा पुरुष को परमात्मा की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये, वह किस साधन से परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर सकता है, इसलिये ध्यानयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं- मन और इन्द्रियों सहित शरीर वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगावे।[18][17]
शुद्ध भूमि में,[19] जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला ओर वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊंचा हैं और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापना कर के- उस आसन पर बैठकर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे। काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर[20] अपनी नासिका को अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ---ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित[21], भरतहितं[22] तथा भलीभाँति शान्त अन्त:करण वाला[23] सावधान[24] योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला[25] और मेरे परायण[26] होकर स्थित होवे।[27]
वश में किये हुए मन वाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ[28] मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठा रूप शान्ति को प्राप्त होगा हैं।[29] हे अर्जुन! यह योग[30] न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।[31] दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का[32] कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का[33] और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का[34] ही सिद्ध होता है। अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता हैं। जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है।[35] सम्बन्ध- इस प्रकार ध्यानयोगी की अन्तिम स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष के और उसके जीते हुए चित्त के लक्षण बतला देने के बाद अब तीन श्लोकों में ध्यानयोग द्वारा सच्चिदानन्द परमात्मा को प्राप्त पुरुष की स्थिति का वर्णन करते हैं। योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता हैं,[36] और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूख्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात् करता हुआ[37] सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही संतुष्ट रहता है। इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द हैं;[38] उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।[27] परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता[39] और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दु:ख से भी चलायमान नहीं होता;[40] सम्बन्ध- बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें श्लोकों में परमात्मा की प्राप्तिरूप जिस स्थिति के महत्त्व और लक्षणों का वर्णन किया गया, अब उस स्थिति का नाम ‘योग’ बतलाते हुए उसे प्राप्त करने के लिये प्रेरणा करते हैं। जो दु:खरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग हैं, उसको जानना चाहिये[41] वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से[42] निश्चय पूर्वक करना कर्तव्य है।[43] सम्बन्ध- अब दो श्लोकों में उसी स्थिति की प्राप्ति के लिये अभेद रूप से परमात्मा के ध्यानयोग का साधन करने की रीति बतलाते हैं।
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-3
- ↑ स्त्री, पुत्र, धन, मान और बड़ाई आदि इस लोक के और स्वर्गसुखादि परलोक के जितने भी भोग हैं, उन सभी का ‘कर्मफल’ में कर लेना चाहिये। साधारण मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, किसी-न-किसी फल का आश्रय लेकर ही करता है। इसलिये उसके कर्म उसे बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में गिराने वाले होते हैं। अतएव इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों को अनित्य, क्षणभङ्गुर और दु:खों में हेतु समझकर समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का सर्वथा त्याग कर देना ही कर्मफल के आश्रय का त्याग करना है।
- ↑ अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार जितने भी शास्त्रविहित नित्य-नैमित्तिक यज्ञ, दान, तप, शरीरनिवाह संबंधी तथा लोक सेवा आदि के लिये किये जाने वाले शुभ कर्म हैं, वे सभी करने योग्य कर्म हैं। उन सबको यथाविधि तथा यथायोग्य आलस्यरहित होकर अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्यबुद्धि से उत्साहपूर्वक सदा करते रहना ही उनका करना है।
- ↑ ऐसा कर्मयोगी पुरुष समस्त संकल्पों का त्यागी होता है और उस यथार्थ ज्ञान को प्राप्त हो जाता है जो सांख्ययोग और कर्मयोग दोनों ही निष्ठाओं का चरम फल है, इसलिये वह ‘संन्यासित्व’ और ‘योगित्व’ दोनों ही गुणों में युक्त माना जाता है।
- ↑ जिसने अग्नि को त्यागकर संन्यास-आश्रम का तो ग्रहण कर लिया है; परंतु जो ज्ञानयोग (सांख्ययोग) के लक्षणों से युक्त नहीं है, वह वस्तुत: संन्यासी नहीं है, कयोंकि उसने केवल अग्नि का ही त्याग किया है, समस्त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमानका त्याग तथा ममता, आसक्ति और देहाभिमान का त्याग नहीं किया।
- ↑ जो सब क्रियाओं का त्याग करके ध्यान लगाकर तो बैठ गया है, परंतु जिसके अंत:करण में अहंता, ममता, राग, द्वेष, कामना आदि दोष वर्तमान हैं, वह भी वास्तव में योगी नहीं है; क्योंकि उसने भी केवल बाहरी क्रियाओं का ही त्याग किया है, ममता, अभिमान, आसक्ति, कामना ओर क्रोध आदि का त्याग नहीं किया।
- ↑ यहाँ संन्यास शब्द का अर्थ है- शरीर, इन्द्रिय और मनद्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन का भाव मिटाकर केवल परमात्मा में ही अभिन्न-भाव से स्थित हो जाना। यह सांख्ययोग की पराकाष्ठा है तथा ‘योग’ शब्द का अर्थ है- ममता, आसक्ति और कामना के त्याग द्वारा होने वाली ‘कर्मयोग’ की पराकाष्ठा रूप नैष्कर्म्य-सिद्धि। दोनों में ही संकल्पों का सर्वथा अभाव हो जाता हैं और सांख्ययोगी जिस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है, कर्मयोगी भी उसी को प्राप्त होता है। इस प्रकार दोनों में ही समस्त संकल्पों का त्याग है और दोनों का एक ही फल हैं इसलिये दोनों की एकता की गयी हैं।
- ↑ अपने वर्ण, आश्रम, अधिकार और स्थिति के अनुकूल जिस समय जो कर्तव्य-कर्म हों, फल और आसक्ति का त्याग करके उनका आचरण करना योगारूढ अवस्था की प्राप्ति में हेतु हैं- इसीलिये गीता के तीसरे अध्याय के चौथे श्लोक में भी कहा हैं कि कर्मों का आरम्भ किये बिना मनुष्य नैष्कर्म्य अर्थात् योगारूढ-अवस्था को नहीं प्राप्त हो सकता।
- ↑ मन वश में होकर शान्त हो जाने पर ही संकल्पों का सर्वथा अभाव होता है। इसके अतिरिक्त कर्मों का स्वरूपत: सर्वथा त्याग हो भी नहीं सकता। अतएव यहाँ ‘शम:’ का अर्थ सर्वसंकल्पों का अभाव माना गया हैं।
- ↑ यहाँ ‘संकल्पों का त्याग’ का अर्थ स्फुरणामात्र का सर्वथा त्याग नहीं हैं, यदि ऐसा माना जाय तो योगारूढ-अवस्था-का वर्णन ही असम्भव हो जाय। इसके अतिरिक्त गीता के चोथे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट ही कहा है कि ‘जिस महापुरुष के समस्त कर्म कामना और संकल्प के बिना ही भलीभाँति होते है, उस पण्डित कहते हैं।’ उसे वहाँ जिस महापुरुष की ऐसी प्रशंसा की गयी है, वह योगारूढ़ नहीं है-ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसी अवस्था में यह नहीं माना जा सकता कि संकल्प रहित पुरुष के द्वारा कर्म नहीं होते। इससे यही सिद्ध होता है कि संकल्पों के त्याग का अर्थ स्फुरणा या वृत्तिमात्र का त्याग नहीं है। ममता, आसक्ति और द्वेष पूर्वक जो सांसारिक विषयों का चिंतन किया जाता है, उसे ‘संकल्प’ कहते हैं। ऐसे संकल्पों का पूर्णतया त्याग ही ‘सर्वसंकल्पसंन्यास’ है।
- ↑ मानव-जीवन के दुर्लभ अवसर को व्यर्थ न खोलकर कर्मयोग, सांख्ययोग तथा भक्तियोग आदि किसी भी साधन में लगकर अपने जन्म को सफल बना लेना ही अपने द्वारा अपना उद्धारकरना है। राग-द्वेष, काम-क्रोध ओर लोभ-मोह आदि दोषों में फंसकर भाँति-भाँति के दुष्कर्म करना ओर उनके फलस्वरूप मनुष्य–शरीर के परमफल भगवत्प्राप्ति से वञ्चित रहकर पुन: शूकर-कूकरादि योनियों में जाने का कारण बनना अपने को अधोगति-में ले जाना है। मनुष्य को कभी भी यह नहीं समझना चाहिये कि प्रारब्ध बुरा है, इसलिये मेरी उन्नति होगी ही नहीं; उसका उत्थान-पतन प्रारब्ध के अधीन नहीं है, उसी के हाथ में है। मनुष्य अपने स्वभाव और कर्मों में जितना ही अधिक सुधार कर लेता है, वह उतना ही उन्नत होता है। स्वभाव और कर्मोंका सुधार ही उन्नति का उत्थान है तथा इसके विपरित स्वभाव और कर्मों में दोषों का बढ़ना ही अवनति या पतन है।
- ↑ जो अपने उद्धार के लिये चेष्टा करता है, वह आप ही अपनामित्र है और जो इसके विपरीत करता है, वही अपना शत्रु है इसलिये अपने से भिन्न दूसरा कोई भी अपना मित्र या शत्रु नहीं है।
- ↑ परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य जिन साधनों में अपने शरीर, इन्द्रिय और मन का लगाना चाहे,उनमें जब वे अनायास ही लग जायं और उनके लक्ष्य से विपरीत मार्ग की ओर ताकें ही नहीं, तब समझना चाहिये कि ये वशमें हो चुके हैं।
- ↑ असंयमी मनुष्य स्वयं मन, इन्द्रिय आदि के वश होकर कुपथ्य करने वाले रोगी की भाँति अपने ही कल्याण साधन के विपरीत आचरण करता है। वह अहंता, ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि के कारण प्रमाद, आलस्य ओर विषय-भोगों में फंसकर पाप-कर्मों के कठि बंधंन में पड़ जाता है एवं अपने-आप को बार-बार नरका आदि में डालकर और नाना प्रकार की योनियों में भटकाकर अनंत काल तक भीषण दु:ख भोगने के लिये बाध्य करता है। यही शत्रु की भाँति शत्रुता का आचरण करना है।
- ↑ संबंध और उपकार आदि की अपेक्षा न करके बिना ही कारण स्वभावत: प्रेम और हित करने वाले ‘सुहृद्’ कहलाते हैं तथा परस्पर प्रेम और एक दूसरे का हित करने वाले ‘मित्र’ कहलाते है। किसी निमित्त से बुरा करने की इच्छा या चेष्टा करने वाला ‘वेरी’ है और स्वभाव से ही प्रतिकूल आचरण करने के कारण जो द्वेष का पात्र हो, वह ‘द्वेष्य’ कहलाता है। परस्पर झगड़ा करने वालों में मेल कराने की चेष्टा करने वाले को और पक्षपात छोड़कर उनके हित के लिये न्याय करने वाले को ‘मध्यस्थ’ कहते हैं तथा उनसे किसी प्रकारका भी संबंध न रखने वाले को ‘उदासीन’ कहते हैं।
- ↑ उपर्युक्त अत्यंत विलक्षण स्वभाव वाले मित्र, वैरी, साधु और पापी आदि के आचरण, स्वभाव और व्यवहार भेद का जिस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, जिसकी बुद्धि में किसी समय, किसी परिस्थिति में, किसी भी निमित्त से राग-द्वेषपूर्वक भेदभाव नहीं आता, वही समबुद्धियुक्त पुरुष है।
- ↑ 17.0 17.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 4-10
- ↑ भोग-सामग्री के संग्रह का नाम परिग्रह है, जो उससे रहित हो उसे ‘अपरिग्रह’ कहते हैं। वह यदि गृहस्थ हो तो किसी भी वस्तु का ममतापूर्वक संग्रह न रक्खे और यदि ब्रह्मचारी, वानप्रस्थया संन्यासी हो तो स्वरूप से भी किसी प्रकार का शास्त्रप्रतिकूल संग्रह न करे। ऐसे पुरुष किसी भी आश्रमवाले हों ‘अपरिग्रह’ ही हैं।
- ↑ ध्यानयोग का साधन करने के लिये ऐसा स्थान होना चाहिये, जो स्वभाव से ही शुद्ध हो और झाड़-बुहार कर, लीप-पोत कर अथवा धो-पोंछकर स्वच्छ और निर्मल बना लिया गया हो। गङ्गा, यमुना या अन्य किसी पवित्र नदी का तीर, पर्वत की गुफा, देवालय, तीर्थस्थान अथवा बगीचे आदि, पवित्र वायुमण्डलयुक्त स्थानों में से जो सुगमता से प्राप्त हो सकता हो और स्वच्छ, पवित्र तथा एकान्त हो- ध्यान योग के लिये साधक को ऐसा ही कोई एक स्थान चुन लेना चाहिये।
- ↑ यहाँ जंघा से ऊपर और गले के स्थान का नाम ‘काया’ हैं, गले का नाम ‘ग्रीवा’ हैं और उससे ऊपर के अङ्ग का नाम ‘शिर’ है। कमर या पेट को आगे-पीछे या दाहिनें-बायें किसी ओर भी न झुकाना, अर्थात् रीढ़ की हड्डी को सीधी रखना, गले को भी किसी ओर न झुकना और सिर को भी इधर-उधर न घुमाना- इस प्रकार तीनों को एक सूत में सीधा रखते हुए किसी भी अङ्ग को जरा भी न हिलने-डुलने देना- यही इन सबको ‘सम’ और ‘अचल’ धारण करना है। ध्यानयोग के साधन में निद्रा, आलस्य, विक्षेप एवं शीतोष्णादि द्वन्द्व विध्न माने गये है। इन दोषों से बचने का यह बहुत ही अच्छा उपाय है। काया, सिर और गले को सीधा तथा नेत्रों को खुला रखने से आलस्य और निद्रा का आक्रमण नहीं हो सकता। नाक की नोक पर दृष्टि लगाकर इधर-उधर अन्य वस्तुओं को न देखने से बाह्य विक्षेपों की सम्भावना नहीं रहती और आसन से दृढ़ हो जाने से शीतोष्णादि द्वन्द्वों से भी बाधा होने का भय नहीं रहता; इसलिये ध्यानयोग का साधन करते समय इस प्रकार आसन लगाकर बैठना बहुत ही उपयोगी हैं।
- ↑ ब्रह्मचर्य का तात्त्विक अर्थ दूसरा होने पर भी वीर्यधारण उसका एक प्रधान अर्थ हैं और यहाँ वीर्यधारण अर्थ ही प्रसङ्गनुकूल भी हैं। मनुष्य के शरीर में वीर्य ही एक ऐसी अमूल्य वस्तु हैं, जिसका भलीभाँति संरक्षण किये बिना शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक- किसी प्रकार का भी बल न तो प्राप्त होता है और न उसका संचय ही होता है; इसीलिये ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित होने के लिये कहा गया है।
- ↑ ध्यान करते समय साधक को निर्भय रहना चाहिये। मन में जरा भी भय रहेगा तो एकान्त और निर्जन स्थान में स्वाभाविक ही चित्त में विक्षेप हो जायगा। इसलिये साधक को उस समय मन में यह दृढ़ सत्य धारणा कर लेनी चाहिये कि परमात्मा सर्वशक्तिमान् हैं और सर्वव्यापी होने के कारण यहाँ भी सदा हैं ही, उनके रहते किसी बात का भय नहीं है। यदि कदाचित्त प्रारब्धवश ध्यान करते-करते मृत्यु हो जाय तो उससे भी परिणाम में परम कल्याण ही होगा।
- ↑ ध्यान करते समय मन से राग-द्वेष, हर्ष-शोक और काम-क्रोध आदि दूषित वृत्तियों को तथा सांसारिक संकल्प-विकल्पों को सर्वथा दूर कर देना एवं वैराग्य के द्वारा मन को सर्वथा निर्मल और शान्त कर देना- यही ‘प्रशान्तात्मा’ होना है।
- ↑ ध्यान करते समय साधक को निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि विन्घों से बचने के लिये खूब सावधान रहना चाहिये। ऐसा न करने से मन और इन्द्रियां उसे धोखा देकर ध्यान में अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित कर सकती है। इसी बात को दिखलाने के लिये ‘युक्त’ विशेषण दिया गया हैं।
- ↑ एक जगह न रुकना और रोकते-रोकते भी बलात्कारसे विषयों में चले जाना मन का स्वभाव हैं। इस मन को भलीभाँति रोके बिना ध्यानयोग का साधन नहीं बन सकता। इसलिये ध्यानयोगी को चाहिये कि वह ध्यान करते समय मन को बाह्य विषयों से भलीभाँति हटाकर परम हितैषी, परम सुहृद्, परम प्रेमास्पद परमेश्वर के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य को समझकर, सम्पूर्ण जगत् से प्रेम हटाकर, एकमात्र उन्हीं को अपना ध्येय बनावे और अनन्यभाव से चित्त को उन्हीं में लगाने का अभ्यास करें।
- ↑ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मुझको ही परम गति, परमध्येय, परम आश्रय और परम महेश्वर तथा सबसे बढ़कर प्रेमास्पद मानकर निरन्तर मेरे ही आश्रित रहना और मुझी को अपना एकमात्र परम रक्षक, सहायक, स्वामी तथा जीवन, प्राण और सर्वस्व मानकर मेरे प्रत्येक विधान में परम संतुष्ट रहना- यही मेरे (भगवान् के) परायण होना है।
- ↑ 27.0 27.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 30 श्लोक 11-21
- ↑ उपर्युक्त प्रकार से मन-बुद्धि के द्वारा निरन्तर तैलधारा की भाँति अविच्छिन्नभाव से भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना ओर उसमें अटलभाव से तन्मय हो जाना ही आत्मा केा परमेश्वर के स्वरूप में लगाना हैं।
- ↑ जिसे नैष्ठि की शान्ति (गीता 5।12), शाश्र्वती शान्ति (गीता 9।31) और परा शान्ति (गीता 18।62) कहतें हैं और जिसका परमेश्वर की प्राप्ति, परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति, परम गति की प्राप्ति आदि नामों से वर्णन किया जाता हैं, वह शान्ति अद्वितीय अनन्त आनन्द की अवधि हैं ओर परम दयालु, परम सुहृद्, आनन्दनिधि, आनन्दस्वरूप भगवान् में नित्य-निरन्तर अचल और अटलभाव से निवास करती है। ध्यानयोग का साधक उसी शान्ति को प्राप्त करता है।
- ↑ ‘योग’ शब्द उस ‘ध्यानयोग’ का वाचक हैं, जो सम्पूर्ण दु:खों का आत्यन्तिक नाश करके परमानन्द ओर परम शान्ति के समुद्र परमेश्वर की प्राप्ति करा देने वाला है।
- ↑ उचित मात्रा में नींद ली जाय तो उससे थकावट दूर होकर शरीर में ताजगी आती है; परंतु वही नींद यदि आवश्यकता से अधिक ली जाय तो उससे तमोगुण बढ़ जाता हैं, जिससे अनवरत आलस्य घेरे रहता हैं और स्थिर होकर बैठने में कष्ट मालूम होता है। इसके अतिरिक्त अधिक सोने में मानवजीवन का अमूल्य समय भी नष्ट होता है। इसी प्रकार सदा जागते रहने से थकावट बनी रहती है। कभी ताजगी नहीं आती। शरीर, इन्द्रिय ओर प्राण शिथिल हो जाते हैं, शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
- ↑ खाने-पीने की वस्तुएं ऐसी होनी चाहिये जो अपने वर्ण और आश्रमधर्म के अनुसार सत्य ओर न्याय के द्वारा प्राप्त हों, शास्त्रनुकूल, सात्त्विक हों (गीता 17।8), रजोगुण और तमोगुण को बढा़ने वाली न हों, पवित्र हो, अपनी प्रकृति, स्थिति ओर रुचि के प्रतिकूल न हों तथा योगसाधन में सहायता देने वाली हैं। उनका परिमाण भी उतना ही परिमित होना चाहिये, जितना अपनी शक्ति, स्वास्थ्य और साधन की दृष्टि से हितकर एवं आवश्यक हो। इसी प्रकार घूमना-फिरना भी उतना ही चाहिये, जितना अपने लिये आवश्यक और हितकार हो।
- ↑ वर्ण, आश्रम, अवस्था, स्थिति ओर वातावरण आदि के अनुसार जिसके लिये शास्त्र में जो कर्तव्यकर्म बतलाये गये हैं, उन्हीं का नाम कर्म हैं। उन कर्मों का उचित स्वरूप में और उचित मात्रा में यथायोग्य सेवन करना ही कर्मों में युक्त चेष्टा करना हैं। जैसे ईश्वर-भक्ति, देवपूजन, दीन-दुखियों की सेवा, माता-पिता आचार्य आदि गुरुजनों का पूजन, यज्ञ, दान, तप तथा जीविका सम्बन्धी कर्म यानी शिक्षा, पठन-पाठन-व्यापार आदि कर्म और शौच-स्त्रानादि क्रियाएं- ये सभी कर्म वे ही करने चाहिये, जो शास्त्रविहित हों, साधुसम्मत हों, किसी का अहित करने वाले न हों, स्वावलम्बन में सहायक हों, किसी को कष्ट पहुँचाने या किसी पर भार डालने वाले न हों और ध्यानयोग में सहायक हों तथा इन कर्मों का परिमाण भी उतना ही होना चाहिये, जितना जिसके लिये आवश्यक हो, जिससे न्यायपूर्वक शरीरनिर्वाह होता रहे ओर ध्यानयोग के लिये भी आवश्यकतानुसार पर्याप्त समय मिल जाय। ऐसा करने से शरीर, इन्द्रिय और मन स्वस्थ रहते हैं और ध्यानयोग सुगमता से सिद्ध होता है।
- ↑ दिन के समय जागते रहना, रात के समय पहले तथा पिछले पहर में जागना और बीच के दो पहरों में सोना- साधारणतया इसी को उचित सोना-जागना माना जाता हैं।
- ↑ हां ‘दीप’ शब्द प्रकाशमान दीपशिखा का वाचक हैं। दीपशिखा चित्त की भाँति प्रकाशमान् और चञ्चल हैं, इसलिये उसी के साथ मन की समानता है। जैसे वायु न लगने से दीपशिखा हिलती-डुलती नहीं, उसी प्रकार वश में किया हुआ चित्त भी ध्यानकाल में सब प्रकार से सुरक्षित होकर हिलता-डुलता नहीं, वह अविचल दीपशिखा की भाँति समभाव से प्रकाशित रहता हैं।
- ↑ जिस समय योगी का चित्त परमात्मा के स्वरूप में सब प्रकार से निरुद्ध हो जाता है, उसी समय उसका चित्त संसार से सर्वथा उपरत हो जाता है; फिर उसके अन्त:करण में संसार के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता।
- ↑ एक विज्ञान-आनन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा ही हैं। उसके सिवा कोई वस्तु है ही नहीं, केवल एकमात्र वही परिपूर्ण है। उसका यह ज्ञान भी उसी का है; क्योंकि वही ज्ञानस्वरूप है। वह सनातन, निर्विकार, असीम, अपार, अनन्त, अकल ओर अनवद्य है। मन, बुद्धि, अहंकार, द्रष्टा, दृश्य आदि जो कुछ भी हैं, सब उस ब्रह्म में ही आरोपित हैं और वस्तुत: ब्रह्मस्वरूप ही हैं। वह आनन्दमय हैं और अवर्णनीय हैं। उसका वह आनन्दमय स्वरूप भी आनन्दमय है। वह आनन्दस्वरूप पूर्ण है, नित्य है, सनातन है, अज है, अविनाशी हैं, परम है, चरम है, सत् है, चेतन है, विज्ञानमय है, कूटस्थ है, अचल है, ध्रुव है, अनामय है, बोधमय है, अनन्त है और शान्त है। इस प्रकार उसके आनन्दस्वरूप का चिन्तन करते हुए बार-बार ऐसी दृढ़ धारणा करते रहना चाहिये कि उस आनन्दस्वरूप के अतिरिक्त ओर कुछ है ही नहीं। यदि कोई संकल्प उठे तो उसे भी आनन्दमय से ही निकला हुआ, आनन्दमय ही समझकर आनन्दमय में ही विलीन कर दे। इस प्रकार धारणा करते-करते जब समस्त संकल्प आनन्दमय बोधस्वरूप परमात्मा में विलीन हो जाते हैं और एक आनन्दघन परमात्मा के अतिरिक्त किसी भी संकल्प का अस्तित्व नहीं रह जाता, तब साधक की आनन्दमय परमात्मा में अचल स्थिति हो जाती हैं। इस प्रकार नित्य-नियमित ध्यान करते-करते अपनी और संसार की समस्त सत्ता जब ब्रह्म से अभिन्न हो जाती है, जब सभी कुछ परमानन्द और परम-शान्ति स्वरूप ब्रह्म बन जाता हैं, तब साधक को परमात्मा का वास्तविक साक्षात्कार सहज ही हो जाता है।
- ↑ परमात्मा के ध्यान से होने वाला सात्त्विक सुख भी इन्द्रियों से अतीत, बुद्धिग्राह्य और अक्षय सुख में हेतु होने से अन्य सांसारिक सुखों की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण हैं, किंतु वह केवल ध्यानकाल में ही रहता हैं, सदा एकरस नहीं रहता। और वह चित्त की ही एक अवस्थाविशेष होती हैं, इसलिये उसे ‘आत्यन्तिक’ या ‘अक्षय सुख’ नहीं कहा जा सकता। परमात्मा का स्वरूपभूत यह सुख तो उस ध्यानजनित सुख का फल है। अतएव यह उससे अत्यन्त विलक्षण हैं।
- ↑ इस स्थिति में योगी को परमानन्द और परमशान्ति के निधान परमात्मा की प्राप्ति हो जाने से वह पूर्णकाम हो जाता हैं। उसकी दृष्टि में इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोग, त्रिलोकी का राज्य और ऐश्र्वर्य, विश्वव्यापी मान और बढा़ई आदि जितने भी सांसारिक सुख के साधन हैं, सभी क्षणभङ्गुर, अनित्य, रसहीन, हेय, तुच्छ और नगण्य हो जाते हैं। अत: वह संसार की किसी भी वस्तु को प्राप्त करने योग्य ही नहीं मानता, फिर अधिक मानने की तो गुंजाइश ही कहाँ हैं।
- ↑ शास्त्रोंद्वारा शरीर का काटा जाना, अत्यन्त दु:सह सरदी-गरमी, वर्षा और बिजली आदि से होने वाली शारीरिक पीड़ा, अति उत्कट रोगजनित व्यथा, प्रिय से भी प्रिय वस्तु का अचानक वियोग और संसार में अकारण ही महान् अपमान, तिरस्कार और निन्दा आदि जितने भी महान् दु:खों के कारण हैं, सब एक साथ उपस्थित होकर भी उसको अपनी स्थिति से जरा भी नहीं डिगा सकते।
- ↑ द्रष्टा और दृश्य का संयोग अर्थात् दृश्यप्रपञ्च से आत्मा को जो अज्ञानजनित अनादि सम्बन्ध है, वही बार-बार जन्म-मरणरूप दु:ख की प्राप्ति में मूल कारण हैं। इस योग के द्वारा उसका अभाव हो जाने पर दु:खों का भी सदा के लिये अभाव हो जाता है, अत: ‘यत्रोपरमते चित्तम्’ (गीता 6।20) से लेकर यहाँ तक जिस स्थिति का वर्णन किया गया है, उसे प्राप्त करने के लिये सिद्ध महात्मा पुरुषों के पास जाकर एवं शास्त्र का अभ्यास करके उसके स्वरूप, महत्त्व और साधन की विधि को भलीभाँति जानना चाहिये।
- ↑ साधन का फल प्रत्यक्ष न होने के कारण थोड़ा-सा साधन करने के बाद मन में जो ऐसा भाव आया करता है कि ‘न जाने यह काम कब तक पूरा होगा, मुझसे हो सकेगा या नहीं’- उसी का नाम ‘निर्विष्णता’ अर्थात् साधन से ऊब जाना है। ऐसे भाव से रहित जो धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त है, उसे ‘अनिर्विष्णचित्त’ कहते हैं, अत: साधक को अपने चित्त से निर्विष्णता का दोष सर्वथा दूर कर देना चाहिये।
- ↑ ‘निश्चय’ यहाँ विश्वास और श्रद्धा का वाचक हैं। योगी को योगसाधन में, उसका विधान करने वाले शास्त्रों में, आचार्यों में और योगसाधन के फल में पूर्णरूप से श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिये।
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| भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन
| फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन
| उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन
| भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन
| गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना
| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
| विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम
| भीष्म द्वारा श्वेत का वध
| भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति
| युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन
| धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना
| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
| भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध
| भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
| कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति
| धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना
| भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन
| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
| कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण
| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
| अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण
| धृतराष्ट्र की चिन्ता
| भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध
| भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
| द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध
| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
| मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय
| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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