- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 34वें अध्याय में 'कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
कृष्ण द्वारा अर्जुन से अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन करना
संबंध-गीता के सातवें अध्याय से लेकर नवें अध्याय तक विज्ञान-सहित ज्ञान का जो वर्णन कृष्ण ने पूर्वश्लोक में अर्जुन से किया था, उसके बहुत गम्भीर हो जाने के कारण अब पुन: कृष्ण ने अर्जुन से उसी विषय को दूसरे प्रकार से भलीभाँति समझाने के लिये दसवां अध्याय आरम्भ किया हैं। यहाँ पहले श्र्लोक में भगवान् पूर्वोक्त विषय का ही पुन: वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं-
श्रीभगवान् बोले-हे महाबाहो! फिर भी तेरे परम रहस्य और प्रभाव युक्त वचन को सुन,[2] जिसे मैं तुझ अतशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूंगा। संबंध-पहले श्र्लोक में भगवान् ने जिस विषय पर कहने की प्रतिज्ञा की है, उसका वर्णन आरम्भ करते हुए वे पहले पांच श्र्लोकोंमें योगशब्दवाच्य प्रभाव का और अपनी विभूति का संक्षिप्त वर्णन करते हैं। मेरी उत्पत्ति को अर्थात लीला से प्रकट होने को न देवता-लोग जानते हैं और न महर्षिजन[3] ही जानते हैं,[4] क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।[5] जो मुझको अजन्मा अर्थात वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान तत्त्व से जानता है,[6]वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा,[7] सत्य,[8] इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दु:ख,[9] उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय[10] तथा अहिंसा,[11] समता,[12] संतोष,[13] तप,[14] दान,[15] कीर्ति और अपकीर्ति-ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं।[16]
सात महर्षिजन,[17] चार[18] उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु[19] ये मुझमें भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए है,[20] जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है।[1] जो पुरुष मेरी इस परमेश्वर रूप विभूति को[21] और योग- शक्ति को[22] तत्त्व से जानता है[23] वह निश्चल भक्तियोग[24] से युक्त हो जाता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है।[25]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-6
- ↑ इस अध्याय में भगवान् ने अपने गुण, प्रभाव और तत्त्व का रहस्य समझाने के लिये जो उपदेश दिया है, वही ‘परम वचन’ है और उसे फिर से सुनने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरी भक्ति का तत्त्व अत्यंत ही गहन है अत: उसे बार-बार सुनना परम आवश्यक समझकर बड़ी सावधानी के साथ श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सुनना चाहिये।
- ↑ ‘महर्षय:’ पद से यहाँ सप्त महर्षियों को समझना चाहिये।
- ↑ भगवान् का अपने अतुलनीय प्रभाव से जगत् का सृजन, पालन और संहार करने के लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के रूप में, दुष्टों के विनाश, धर्म के विनाश, धर्म के संस्थापन तथा नाना प्रकार की लीलाओं के द्वारा जगत् के प्राणियों के उद्धार के लिये श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि दिव्य अवतारों के रूप में भक्तों को दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ करने के लिये उनके इच्छानुरूप नाना रूपों में तथा लीलावैचिव्य की अनन्त धारा प्रवाहित करने के लिये समस्त विश्व के रूप में जो प्रकट होना है-उसी का वाचक यहाँ ‘प्रभव’ शब्द है। उसे देवसमुदाय और महर्षिलोग नहीं जानते, इस कथन से भगवान्नेयह भाव दिखलाया है कि मैं किस-किस समय किन-किन रूपों में किन-किन हेतुओं से किस प्रकार प्रकट होता है-इसके रहस्य को साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है, अतीन्द्रिय विषयों को समझने में समर्थ देवता और महर्षिलोग भी यथार्थरूप से नहीं जानते।
- ↑ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिन देवता और महर्षियों से इस सारे जगत् की उत्पत्ति हुई है, वे सब मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं उनका निमित्त और उपादान कारण मैं ही हूँ और उनमें जो विद्या, बुद्धि, शक्ति, तेज आदि प्रभाव हैं-वे सब भी उन्हें मुझसे ही मिलते हैं। ‘सुरगण:’ पद एकादश रुद्र, आठ वसु, बारह आदित्य, प्रजापति, उन्चास मरुद्रण, अश्र्विनी कुमार और इन्द्र आदि जितने भी शास्त्रीय देवताओं के समुदाय हैं-उन सबका वाचक है।
- ↑ भगवान् अपनी योगमाया से नाना रूपों में प्रकट होते हुए भी अजन्मा हैं (गीता 4।6), अन्य जीवों की भाँति उनका जन्म नहीं होता, वे अपने भक्तों को सुख देने और धर्म की स्थापना करने के लिये केवल जन्मधारण की लीला किया करते हैं-इस बात को श्रद्धा और विश्वास के साथ ठीक-ठीक समझ लेना तथा इसमें जरा भी संदेह न करना-यही ‘भगवान्-को अजन्मा जानना’ है तथा भगवान् ही सबके आदि अर्थात् महाकारण हैं, उनका कोई नहीं है वे नित्य हैं तथा सदा से हैं, अन्य पदार्थों की भाँति उनका किसी कालविशेष से आरम्भ नहीं हुआ है-इस बात को श्रद्धा और विश्वास के साथ ठीक-ठीक समझ लेना-‘भगवान् को अनादि जानना’ है। एवं जितने भी ईश्वर कोटि में गिने जाने वाले इन्द्र, वरुण, यम, प्रजापति आदि लोकपाल हैं-भगवान् उन सबके महान ईश्वर हैं वे ही सबके नियंता, प्रेरक, कर्ता, हर्ता, सब प्रकार से सबका भरण-पोषण और संरक्षण करने वाले सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं-इस बात को श्रद्धापूर्वक संशयरहित ठीक-ठीक समझ लेना ‘भगवान् को लोकों का महान् ईश्वर जानना’ है।
- ↑ बुरा चाहना, बुरा करना, घनादि हर लेना, अपमान करना, आघात पहुँचाना, कड़ी जबान कहना या गाली देना, निंदा या चुगली करना, आग लगाना, विष देना, मार डालना और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में क्षति पहुँचाना आदि जितने भी अपराध हैं, इनमें से एक या अधिक किसी प्रकार का भी अपराध करने वाला कोई भी प्राणी क्यों न हो, अपने में बदला लेने का पूरा सामर्थ्य रहने पर भी उससे उस अपराध का किसी प्रकार भी बदला लेने की इच्छा का सर्वथा त्याग कर देना और उस अपराध के कारण उस इस लोक या परलोक में कोई भी दण्ड न मिले-ऐसा भाव होना 'क्षमा' है।
- ↑ इन्द्रिय और अन्त:करण द्वारा जा बात जिस रूप में देखी, सुनी और अनुभव की गयी हो, ठीक उसी रूप में दूसरे को समझाने के उद्देश्य से हितकर प्रिय शब्दों में उसको प्रकट करना 'सत्य' है।
- ↑ 'सुख' शब्द यहाँ प्रिय (अनुकूल) वस्तु के संयोग से और अप्रिय (प्रतिकूल) के वियोग से होने वाले सब प्रकार के सुखों-का वाचक है। इसी प्रकार प्रिय के वियोग से अप्रिय के संयोग से होने वाले 'आधिभौतिक' 'आधिदैविक' और आध्यात्मिक-सब प्रकार के दु:खों का वाचक यहाँ 'दु:ख' शब्द है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि प्राणियों के निमितत्त से प्राप्त होने वाले कष्टों को 'आधिभौतिक', अनावृष्टि, अतिवृष्टि, भूकम्प, वज्रपात और अकाल आदि दैवी प्रकोप से होने वाले कष्टों को 'आधिदैविक' और शरीर, इन्द्रिय तथा अन्त:करण में किसी प्रकार के रोग से होने वाले कष्टों को 'अध्यात्मिक' दु:ख कहते हैं।
- ↑ सर्गकाल में समस्त चराचर जगत का उत्पन्न होना 'भव' है, प्रलय काल में उसका लीन हो जाना 'अभाव' है। किसी प्रकार की हानि या मृत्यु के कारण को देखकर अन्त:करण में उत्पन्न होने वाले भाव का नाम 'भय' है और सर्वत्र एक परमेश्वर को व्याप्त समझ लेने से अथवा अन्य किसी कारण से भय का जो सर्वथा अभाव हो जाना है वह 'अभय' है।
- ↑ किसी भी प्राणी को किसी भी समय किसी भी प्रकार से मन, वाणी या शरीर के द्वारा जरा भी कष्ट न पहुँचाने के भाव को ‘अहिंसा’ कहते हैं।
- ↑ सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, निंदा-स्तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु आदि जितने भी क्रिया, पदार्थ और घटना आदि विषमता हेतु माने जाते हैं, उन सब में निरंतर राग द्वेषरहित समबुद्धि रहने के भाव को 'समता' कहते हैं।
- ↑ जो कुछ भी प्राप्त हो जाय, उसे प्रारब्ध का भोग या भगवान् का विधान समझकर सदा संतुष्ट रहने के भाव को 'तुष्टि' कहते हैं।
- ↑ स्वधर्म-पालन के लिये कष्ट सहन करना 'तप' है।
- ↑ अपने स्वत्व को दूसरों के हित के लिये वितरण करना 'दान' है।
- ↑ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि विभिन्न प्राणियों के उनकी प्रकृति के अनुसार उपर्युक्त प्रकार के जितने भी विभिन्न भाव होते हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं, अर्थात् वे सब मेरी ही सहायता, शक्ति और सत्ता से होते हैं।
- ↑ सप्तर्षियों के लक्षण बतलार्ते हुए कहा गया है-
एतान् भावानधीयता ये चैत ॠषयो मता:।
सप्तैते सप्तभिश्चैव गुणै: सप्तर्षया समृता:।।
दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वर ा दिव्यचक्षुष:।
वृद्धा: प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च।।(वायुपुराण 61।93-94) 'तथा देवर्षियों के इन (उपर्युक्त) भावों का जो अध्ययन (स्मरण) करने वाले हैं, वे ऋषि माने गये हैं इन ऋषियों में जो दीर्घायु, मन्त्रकर्ता, ऐश्र्वर्यवान, दिव्य-दृष्टियुक्त, गुण, विद्या और आयु में वृद्ध, धर्म का प्रत्यक्ष (साक्षात्कार) करने वाले और गोत्र चलाने वाले हैं-ऐसे सातों गुणों से युक्त सात ऋषियों को ही सप्तर्षि कहते हैं।' इन्हीं से प्रजा का विस्तार होता है और धर्म की व्यवस्था चलती है। यहाँ जिन सप्तर्षियों का वर्णन है, उनको भगवान् ने 'महर्षि' कहा है और उन्हें संकल्प से उत्पन्न बतलाया है। इसलिये यहाँ उन्हीं का लक्ष्य है, जो ऋषियों से भी उच्च स्तर के हैं। ऐसे सप्तर्षियों का उल्लेख महाभारत-शांतिपर्व में मिलता है इनके लिये साक्षात परम पुरुष परमेश्वर ने देवताओं सहित ब्रह्मा जी से कहा है-
मरीचिरङ्गिराश्चात्रि पुलस्त्य: क्रतु:।
वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते।।
एते वेदविदो मूख्या वेदाचार्याश्र्य कल्पिता:।
प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये च कल्पिता:।।(महा० शांति० 349।69-70) 'मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ–ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजी के) द्वारा ही अपने मन से रचे हुए हैं। ये सातों वेद के ज्ञाता हैं, इनको मैंने मुख्य वेदाचार्य बनाया है। ये प्रवृत्ति मार्ग का संचालन करने वाले हैं और (मेरे ही द्वारा) प्रजापति के कर्म में नियुक्त किये गये हैं।' इस कल्प सर्वप्रथम स्वायम्भुव मन्वंतर के सप्तर्षि यही हैं (हरिवंश० 7।8, 9)। अतएव यहाँ सप्तर्षियों से इन्ही का ग्रहण करना चाहिये।
- ↑ 'चत्वार' पूर्वे' से सबसे पहले होने वाले सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार-इन चारों को लेना चाहिये। ये भी भगवान् के ही स्वरूप हैं और ब्रह्माजी के तप करने पर स्वेच्छा से प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा जी ने स्वयं कहा है-
तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया में आदौ सनात् स्वतपस: स चतु:सनोअभूत्।
प्राक्कल्पसम्प्लवविनष्टमिहात्मतत्त्वं सम्यग् जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन्।।(श्रीमद्भागवत 2।7।5 ) 'मैंने विविध प्रकार के लोकों को उत्पन्न करने की इच्छा से जो सबसे पहले तप किया, उस मेरी अखण्डित तपस्या से ही भगवान् स्वयं सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार-इन चार 'सन' नाम वाले रूपों में प्रकट हुए और पूर्वकल्य में प्रलय-काल के समय जो आत्मतत्त्व के ज्ञान के प्रचार इस संसार में नष्ट हो गया था, उसका इन्होंने भलीभाँति उपदेश किया, जिससे उन मुनियों ने अपने हृदय में आत्म्तत्त्व साक्षात्कार किया।'
- ↑ ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं, प्रत्येक मनु के अधिकार काल को 'मन्तंर' कहते हैं। इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल का एक मन्वंतर होता है। मानवी वर्ष गणना के हिसाब से एक मन्वंतर तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष से और दिव्य-वर्षगणना के हिसाब से आठ लाख बावन हजार वर्ष से कुछ अधिक काल का होता है (विष्णुपुराण 13) सूर्यसिद्धांत में मन्वंतर आदि का जो वर्णन है, उसके अनुसार इस प्रकार समझना चाहिये-
सौरमान से 43,20,000 वर्ष की अथवा देवमान से 12,000 वर्ष की एक चतुर्युगी होती है। इसी को महायुग कहते हैं। ऐसे इकहत्तर युगों का एक मन्वंतर होता है। प्रत्येक मन्वंतर के अंत में सत्ययुग के मान की अर्थात 17,28,000 वर्ष की संध्या होती है। मन्वंतर बीतने पर जब संध्या होती है, तब सारी पृथ्वी जल में डूब जाती है। प्रत्येक कल्प में (ब्रह्मा के एक दिन में) चौदह मन्वंतर अपनी-अपनी संध्याओं के मान के सहित होते हैं। इसके सिवा कल्प के आरम्भकाल में एक सत्ययुग के मान काल की संध्या होती है। इस प्रकार एक कल्प के चौदह मनुओं में 71 चतुर्युगी के अतिरिक्त सत्ययुग के मान की 15 संध्याएं होती हैं। 71 महायुगों के मान से 14 मनुओं में 994 महायुग होते हैं और सत्ययुग के मान की 15 संध्याओं का काल पूरा 6 महायुगों के समान हो जाता है। दोनों का योग मिलाने पर पूरे एक हजार महायुग या दिव्ययुग बीत जाते हैं।
इस हिसाब से निम्नलिखित अङ्कों के द्वारा इसको समझिये –
सौरमान या मानव वर्ष देवमान या दिव्य वर्ष
एक चतुर्युगी (महायुग या दिव्ययुग) 43,20,000 12,000
इकहत्तर चतुर्युगी 30,67,20,000 8,52,000
कल्पकी संधि 17,28,000 4,800
मन्वंतर की चौदह संध्या 2,41,92,000 67,200
संधिसहित एक मन्वंतर 30,84,48,000 8,56,800
चौदह संध्यासहित चौदह मन्वंतर 4,31,82,72,000 1,19,96,200
कल्प की संधिसहित चौदह मन्वंतर या एक कल्प 4,32,00,00,000 1,20,00,000ब्रह्माजी का दिन ही कल्प है, इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि है। इस अहोरात्र के मान से ब्रह्माजी की परमायु एक सौ वर्ष है। इसे 'पर' कहते हैं। इस समय ब्रह्माजी अपनी आयु का आधा भाग अर्थात् एक परार्द्ध बिताकर दूसरे परार्द्ध में चल रहे हैं। यह उनके 51 वे वर्ष का प्रथम दिन या कल्प है। वर्तमान कल्प के आरम्भ में अब तक स्वायम्भुव आदि छ: मन्वंतर अपनी-अपनी संध्याओं सहित बीत चुके हैं, कल्प की संध्या समेत सात संध्याएं बीत चुकी हैं। वर्तमान सातवें वैवस्तन मन्वंतर के 27 चतुर्युग बीत चुके हैं। इस समय अट्ठाईसवें चतुर्युग के कलियुग का संध्याकाल चल रहा है। (सूर्यसिद्धात, मध्यमाधिकार, श्लोक 15 से 14 देखिये) इस 2013 वि० तक कलियुग के 5057 वर्ष बीते हैं। कलियुग के आरम्भ में 36,000 वर्ष संध्याकाल का मान होता है। इस हिसाब से अभी कलियुग की संध्या के 30,943 सौर वर्ष बीतने बाकी हैं। प्रत्येक मन्वंतर में धर्म की व्यवस्था और लोकरक्षण के लिये भिन्न–भिन्न सप्तर्षि होते हैं। एक मन्वंतर के बीत जाने पर जब मनु बदल जाते हैं, तब उन्हीं के साथ सप्तर्षि, देवता, इन्द्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं। वर्तमान कल्प के मनुओं के नाम ये हैं-स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि। चौदह मनुओं का एक कल्प बीत जाने पर सब मनु भी बदल जाते हैं।
- ↑ ये सभी भगवान् में श्रद्धा ओर प्रेम रखने वाले हैं, यही भाव दिखलाने के लिये इनको मुझ में भाव वाले बतलाया गया है तथा इनकी जो ब्रह्माजी से उत्पत्ति होती है, वह वस्तुत: भगवान् से ही होती है क्योंकि स्वयं भगवान् ही जगत् की रचना के लिये ब्रह्मा का रूप धारण करते हैं। अतएव ब्रह्मा के मन से उत्पन्न होने वालों को भगवान् 'अपने मन से उत्पन्न होने वाले' कहें तो इसमें कोई विरोध की बात नहीं है।
- ↑ इसी अध्याय के चौथे, पांचवे और छठे श्र्लोकों में भगवान् ने जिन बुद्धि आदि भावों को और महर्षि आदि को अपने से उत्पन्न बतलाया है तथा गीता के सातवें अध्याय में 'जल में मैं रस हूं' (7।8) एवं नर्वे अध्याय में 'क्रतु मैं हूं' 'यज्ञ मैं हूं' (7।16) इत्यादि वाक्यों से जिन-जिन पदार्थों का, भावों का और देवता आदि का वर्णन किया है-उन सबका वाचक 'विभूति' शब्द है।
- ↑ भगवान् की जो अलौकिक शक्ति है, जिसे देवता और महर्षिगण भी पूर्णरूप से नहीं जानते (गीता 10।2,3) जिसके कारण स्वयं सात्त्विक, राजस और तामस भावों के अभिन्न निमितोपादान कारण होने पर भी भगवान् सदा उनसे न्यारे बने रहते हैं और यह कहा जाता है कि 'न तो वे भाव भगवान् में हैं और न भगवान् ही उनमे हैं' (गीता 7।12) जिस शक्ति से सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार आदि समस्त कर्म करते हुए भगवान् सम्पूर्ण जगत को नियम में चलाते हैं जिसके कारण वे समस्त लोकों के महान ईश्वर, समस्त भूतों के सुहृद्, समस्त यज्ञादि के भोक्ता, सर्वाधार और सर्वशक्तिमान है जिस शक्ति से भगवान् इस समस्त जगत को अपने एक अंश में धारण किये हुए हैं (गीता 10।42) और युग-युग में है अपने इच्छानुसार विभिन्न कार्यों के लिये अनेक रूप धारण करते हैं तथा सब कुछ करते हुए भी समस्त कर्मों से, सम्पूर्ण जगत से एवं जन्मादि समस्त विकारों से सर्वथा निर्लेप रहते हैं और गीता के नवम अध्याय के पांचवे श्लोक में जिसको 'ऐश्वर्य योग' कहा गया है-उस अद्भुत शक्ति (प्रभाव) का वाचक यहाँ 'योग' शब्द है।
- ↑ इस प्रकार समस्त जगत भगवान् की ही रचना है और सब उन्ही के एक अंश में स्थित हैं। इसलिये जगत में जो भी वस्तु शक्तिसम्पन्न प्रतीत हो, जहाँ भी कुछ विशेषता दिखलायी दे, उसे-अथवा समस्त जगत को ही भगवान् की विभूति अर्थात उन्हीं का स्वरूप समझना एवं उपर्युक्त प्रकार से भगवान् को समस्त जगत के कर्ता-हर्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वाधार, परम दयालु, सबके सुहृद् और सर्वांतर्यामी मानना-यही 'भगवान् की विभूति और योग को तत्त्व से जानना' है।
- ↑ भगवान् की जो अनन्यभक्ति है (गीता 11।55), जिसे 'अव्यभिचारिणी भक्ति' (गीता 13।10) और 'अव्यमिचारी भक्तियोग' (गीता 14।26) भी कहते हैं; उस 'अविचल भक्तियोग' का वाचक यहाँ 'अविकम्पेन' विशेषण के सहित 'योगेन' पद है और उसमें संलग्न रहना ही उससे युक्त हो जाना है
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 34 श्लोक 7-10
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| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
| कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति
| धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना
| भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन
| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
| कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण
| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
| अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण
| धृतराष्ट्र की चिन्ता
| भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध
| भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति
| भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन
| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
| द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध
| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
| मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय
| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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