- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 41वें अध्याय में 'आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
कृष्ण का अर्जुन से आहार, यज्ञ, तप और दान के लक्षणों का वर्णन करना
सम्बन्ध-कृष्ण का अर्जुन से विविध स्वभाविक श्रद्धा वालों के तथा घोर तप करने वाले लोगों के लक्षण बतलाकर अब भगवान सात्त्विक का ग्रहण और राजस-तामस का त्याग कराने के उद्देश्य से सात्त्विक राजस तामस आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद सुनने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हैं और कहते हैं-हे अर्जुन! भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं।[2] उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझसे सुन।
वायु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय-ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। कडवें, खट्टे, लक्षणयुक्त बहुत गरम, तीखें, रूखें, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ[3] राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, वासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है। जो शास्त्रविधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करने के, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है। परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल-को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।[4][1] शास्त्रविधि से हीन,[5] अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के,[6] बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।
सम्बन्ध- इस प्रकार की तीन तरह के यज्ञों के लक्षण बतलाकर, अब तप के लक्षणों को प्रकरण आरम्भ करते हुए चार श्लोकों द्वारा सात्त्विक तप के लक्षण बतलाते हैं- देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन,[7] पवित्रता,[8] सरलता,[9] ब्रह्मचर्य[10] और अहिंसा[11] यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।[12] जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है, वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।[13] मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवतचिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भली-भाँति पवित्रता इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है। फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए[14] उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।[15]
सम्बन्ध- अब राजस तप के लक्षण बतलाये जाते हैं। जो तप संस्कार, मान और पूजा के लिये तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिये भी[16] स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप यहाँ राजस कहा गया है। सम्बन्ध- अब तामस तप के लक्षण बतलाये है, जो कि सर्वथा त्याज्य है- जो तप मूढतापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीडा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।[17]
सम्बंध- तीन प्रकार के तपों का लक्षण करके अब दान के तीन प्रकार के लक्षण कहते हैं--दान देना ही कर्तव्य है[18] ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल[19] और पात्र के प्राप्त होने पर[20] उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।[21] किंतु जो दान क्लेशपूर्वक[22] तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से[23] अथवा फल को दृष्टि में रखकर[24] फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।[25] जो दान बिना सत्कार के[26] अथवा तिरस्कारपूर्वक[27] अयोग्य देश काल में[28] और कुपात्र के[29]प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।[30]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 41 श्लोक 4-12
- ↑ मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा भी होती है। आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा। ‘आहारशुदौ सत्त्वशुद्धिः’। (छान्दोग्य 7/26/2) अन्तःकरण की शुद्धि से ही विचार, भाव, श्रद्धादि गुण और क्रियाएं शुद्ध होगी अत इस प्रसंग में आहार का विवेचन करके यह भाव दिखलाया गया है कि सात्त्विक, राजस और तामस आहार में जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुणवाला होता है। इसी भाव से श्लोक में ‘प्रिय’ शब्द देकर विशेष लक्ष्य कराया गया है। अतः आहार की दृष्टि से भी उसकी पहचान हो सकती है। यही बात यज्ञ, दान और तप के विषय में भी समझ लेनी चाहिये।
- ↑ नीम, करेला आदि पदार्थ कड़वे हैं, इमली आदि खट्टे है, क्षार तथा विविध भाँति के नमक नमकीन है, बहुत गरम-नरम वस्तुएं अति उष्ण है। लाल मिर्च आदि तीखे हैं, भाड में भूंजे हुए अन्नादि रूखे हैं और राई आदि पदार्थ दाहकारक है। उपयुक्त पदार्थों को खाने के समय गले आदि में तकलीफ का होना, जीभ, तालू आदि का जलना, दांतो का आम जाना, चबाने में दिक्कत होना, आंखों और नाक में पानी आ जाना, हिचकी आना आदि जो कष्ट होते हैं। उसे दुख कहते हैं। खाने के बाद जो पश्चयाताप होता है, उसे ‘चिंता’ कहते हैं और खाने से जो बिमारियां उत्पन्न होती हैं उसे ‘रोग’ कहते हैं। इस कड़वे, खट्टे पदार्थों के खाने से दुःख, चिंता और रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये इन्हें दुख, चिंता, और रोग को उत्पन्न करने वाला कहा जाता है अतएव इनका त्याग करना उचित है।
- ↑ जो यज्ञ किसी फल प्राप्ति के उदे्दश्य से किया गया है, वह शास्त्रविहित और श्रद्धापूर्वक किया हुआ होने पर भी राजस है एवं जो दम्भपूर्वक किया जाता है, वह भी राजस है; फिर जिसमें ये दोनों दोष हो, उसे ‘राजस’ होने में तो कहना ही क्या है।
- ↑ जो यज्ञ शास्त्रविहित न हो या जिसके सम्पादन में शास्त्रविधि की कमी हो अथवा जो शास्त्रोक्त विधान की अवहेलना करके मनमाने ढंग से किया गया हो, उसे ‘विधिहीन’ कहते हैं।
- ↑ जो यज्ञ शास्त्रों और मंत्रों से रहित हो, जिसमें मन्त्र प्रयोग हुए ही न हो या विधिवत्न हुए हो अथवा अवहेलना से त्रुटि रह गयी हो-उस यज्ञ को ‘मन्त्रहीन’ कहते हैं।
- ↑ ब्रह्मा, महादेव, सूर्य, चन्द्रमा, दुर्गा, अग्नि, वरुण, यम, इन्द्र आदि जिनमें भी शास्त्रोक्त देवता है- शास्त्रों में जिनके पूजन का विधान है, उस सबका वाचक यहाँ ‘देव’ शब्द है। ‘द्विज’ शब्द ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों का वाचक होने पर भी यहाँ केवल ब्राह्मणों ही के लिये युक्त है; क्योंकि शास्त्रानुसार ब्राह्मण ही सबके पूज्य है। ‘गुरु’ शब्द यहाँ माता-पिता, आचार्य, वृद्ध एवं अपने से जो वर्ण आश्रय और आयु आदि में किसी प्रकार भी बड़े हो, उन सबका वाचक है तथा ‘प्राज्ञ’ शब्द यहाँ परमेश्वर स्वरूप को भलीभाँति जानने वाले महात्मा ज्ञानी पुरुषों का वाचक है इन सबका यथायोग्य आदर-सत्कार करना इनको नमस्कार करना दण्डवत्-प्रणाम करना इनके चरण धोना; इन्हें चन्दन, पूष्प, धूप, दीप, नैवेध आदि समर्पण करना; इनकी यथायोग्य सेवा आदि करना और इन्हें सुख पहुँचाने की उचित चेष्टा करना आदि इनका पूजन करता है।
- ↑ यहाँ ‘पवित्रता’ केवल शारीरिक शोच का वाचक हैं; क्योंकि वाणी शुद्धि का वर्णन अगले पन्द्रह श्लोक में और मन की शुद्धि का वर्णन सोलहवें श्लोक में अलग किया गया है। जल-मृतिकादि के द्वारा शरीर को स्वच्छ और पवित्र रखना एवं शरीर सम्बन्धी समस्त चेष्टाओं का उत्तम होना ही शरीर की पवित्रता है। (गीता 16/3)
- ↑ यहाँ शरीर की अकड और ऐंठ आदि वक्रता के त्याग का नाम ‘सरलता’ है।
- ↑ यहाँ ‘ब्राह्मचर्य’ शब्द शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुनों के त्याग और भलीभाँति वीर्य धारण करने का बोधक है।
- ↑ शरीर द्वारा किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से कभी जरा भी कष्ट न पहुँचाने का नाम ही यहाँ ‘अहिंसा’ है।
- ↑ उपयुक्त क्रियाओं में शरीर की प्रधानता है अर्थात इनसे शरीर का विशेष सम्बन्ध है और ये इन्द्रियों के सहित शरीर को उसके समस्त दोषों का नाश करके पवित्र बना देने वाली है, इसलिये इन सबको ‘शरीर सम्बन्धी पत’ कहते हैं।
- ↑ जो वचन किसी के भी मन में जरा भी उद्वेग उत्पन्न करने वाले न हों तथा निंदा या चुगली आदि दोषों से सर्वथा रहित हो, उन्हें ‘अनुद्वेगकर’ कहते है। जैसा देखा सुना और किया हो, ठीक वैसा का वैसा ही भाव दूसरे को समझाने के लिये जो यथार्थ वचन बोले जाय, उनको ‘सत्य’ कहते है। जो सुनने वाले को प्रिय लगते हो तथा कटुता, रूखापन, तीखापन, ताना और अपमान के भाव आदि दोषों से सर्वथा रहित हो- ऐसे प्रेमयुक्त, मीठे, सरल और शांत वचनों को ‘प्रिय’ कहते हैं; तथा जिनसे परिणाम में सबका हित होता हो; जो हिंसा, द्वेष, डाह, वैसे सर्वथा शुन्य हो और प्रेम, दया तथा मंगल से भरे हो, उनको ‘हित’ कहते हैं। जिस वाक्य में उपर्युक्त सभी गुणों का समावेश हो एवं जो शास्त्रवर्णित वाणी सम्बन्धी सब प्रकार के दोषों से रहित हो, उसी वाक्य के उच्चारण को ‘वाचिक तप’ माना जा सकता है।
- ↑ शास्त्रों में उपर्युक्त तप का जो कुछ भी महत्त्व, प्रभाव और स्वरूप बतलाया गया है, उस पर प्रत्यक्ष से भी बढ़कर सम्मानपूर्वक पूर्ण विश्वास होना ‘परम श्रद्धा’ है और ऐसी श्रद्धा से युक्त होकर बड़े से बड़े विघ्नों या कष्टों की कुछ भी परवाह न करके सदा अविचलित रहते हुए अत्यन्त आदर और उत्साहपूर्वक उपर्युक्त तप का आचरण करते रहना ही उसे परम श्रद्धा से करना है।
- ↑ अभिप्राय यह है कि शरीर, वाणी और मन सम्बन्धी उपर्युक्त तप ही सात्त्विक हो सकते हैं। साथ ही यह भी दिखलाया है कि यद्यपि ये तप स्वरूप तो सात्त्विक हैं; परंतु वे पूर्ण सात्त्विक तब होते हैं, जब इस श्लोक में बतलाये हुए भाव से किये जाते हैं।
- ↑ तप की प्रसिद्धि से जो इस प्रकार जगत में बड़ाई होती है कि यह मनुष्य बडा भारी तपस्वी है, इसकी बराबरी कौन कर सकता है, यह बडा श्रेष्ठ है आदि- उसका नाम ‘सत्कार’ है। किसी को तपस्वी समझकर उसका स्वागत करना, उसके सामने खडे हो जाना, प्रणाम करना, मान पत्र देना या अन्य किसी क्रिया से उसका आदर करना ‘मान’ है, तथा उसकी आरती उतारना, पैर धोना, पत्र-पुष्पादि षोडशोपचार से पूजा करना, उसकी आज्ञा का पालन करना, इन सब का नाम पूजा है। इस सबके लिये जो लौकिक या शास्त्रीय तप का आचरण किया जाता है, वही सत्कार, मान और पूजा के लिये तप करना है। इसके सिवा अन्य किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिये किया जाने वाला तप भी राजस है।
- ↑ जिस तप का वर्णन इसी अध्याय के पांचवें और छठे श्लोकों में किया गया है, जो अशास्त्रीय, मनःकल्पित, घोर और स्वभाव से ही तामस है, जिसमें दम्भ की प्रेरणा से या अज्ञान से पैरों को पेड़ की डाली में बांधकर सिर नीचा करके लटकना, लोहे के कांटो पर बैठना तथा इसी प्रकार की अन्यान्य घोर क्रियाएं करके बुरी भावना से अर्थात् दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने, उसका नाश करने, उनके वंश का उच्छेद करने अथवा उसका किसी प्रकार कुछ भी अनिष्ट करने के लिये जो अपने मन, वाणी, और शरीर को ताप पहुँचाना है- उसे ‘तामस तप’ कहते हैं।
- ↑ वर्ण, आश्रम, अवस्था और परिस्थिति के अनुसार शास्त्रविहित दान करना- अपने स्वत्व को यथाशक्ति दूसरों के हित में लगाना मनुष्य का परम कर्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो मनुष्यत्व से गिरता है और भगवान के कल्याणमय आदेश का अनादर करता है। अतः जो दान केवल इस कर्तव्य बुद्धि से ही दिया जाता है, जिसमें इस लोक और परलोक के किसी भी फल की जरा भी अपेक्षा नहीं होती- वही दानपूर्ण सात्त्विक है।
- ↑ जिस देश और जिस काल में जिस वस्तु की आवश्यकता हो, उस वसतु के दान द्वारा उसको यथायोग्य सुख पहूंचाने के लिये वही योग्य देश और काल हैं। इसके अतिरिक्त कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, मथुरा, काशी, प्रयाग, नैमिषारण्य आदि तीर्थ स्थान और ग्रहण, पूर्णिमा, अमावास्या, संक्रांति, एकादशी आदि पुण्यकाल- जो दान के लिये शास्त्रों में प्रशस्त माने गये हैं, वे भी योग्य देश-काल है।
- ↑ जिसके पास जहाँ जिस समय जिस वस्तु का अभाव हो, वह वहीं और उसी समय उस वस्तु के दान का पात्र हैं जैसे- भूखे, प्यासे, नंगें, दरिद्र, रोगी, आर्त, अनाथ और भयभीत प्राणी अन्न, जल, वस्त्र, निवार्हयोग्य धन, औषध, आश्वासन, आश्रय और अभय दान के पात्र है। आर्त प्राणियों की पात्रता में जाति, देश और काल का कोई बन्धन नहीं है। उनकी आतुरदशा ही पात्रता की पहचान है। इनके सिवा जो श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्, ब्राह्मण, उत्तम ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, और संन्यासी तथा सेवावृति लोग है- निको जिस वस्तु का दान देना शास्त्र में कर्तव्य बतलाया गया है- वे भी अपने अपने अधिकार के अनुसार यथाशक्ति धन आदि सभी आवश्यक वस्तु के दानपात्र है।
- ↑ जिनका उनके ऊपर उपकार है, उसकी सेवा करना तथा यथासाध्य उसे सुख पहुँचाने का प्रयास करना तो मनुष्य कर्तव्य ही है। उसे जो लोग दान समझते है, वे वस्तुतः उपकारी का तिरस्कार करते हैं और जो लोग उपकारी की सेवा नहीं करना चाहते, वे तो कृतध्न की श्रेणी में है अतएव अपना उपकार करने वाले की तो सेवा करनी ही चाहिये।
यहाँ अनुपकारी को दान देने की बात कहकर भगवान यह भाव दिखलाते हैं कि दान देने वाला दान के पात्र से बदले में किसी प्रकार की जरा भी उपकार पाने की इच्छा न रखे। जिससे किसी भी प्रकार का अपना स्वार्थ का सम्बन्ध मन में ही है, उस मनुष्य को जो दान दिया जाता है। वही सात्त्विक है। इससे वस्तुतः दाता की स्वार्थबुद्धि ही निषेध किया गया है। - ↑ किसी के धरना देने, हठ करने या भय दिखलाने अथवा प्रतिष्ठित और प्रभावशाली पुरुषों के कुछ दबाव डालने पर बिना ही इच्छा के मन में विषाद और दुःख का अनुभव करते हुए निरूपाय होकर जो दान दिया जाता है, वह क्लेशपूर्वक दान देना है।
- ↑ जो मनुष्य बराबर अपने काम में आता है या आगे चलकर जिससे अपना कोई छोटा या बडा काम निकालने की सम्भावना या आशा है, ऐसे व्यक्ति या संस्थाओं को दान देना प्रत्युपकार के प्रयोजन से दान देना है।
- ↑ मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्ति के लिये या रोग आदि की निवृति के लिये जो किसी वस्तु का दान किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है, वे फल के उद्देश्य से दान देना है।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 41 श्लोक 13-21
- ↑ यथायोग्य अभिवादन, कुशल प्रश्न, प्रियभाषण और आसन आदि द्वारा सम्मान न करके जो रूखाई से दान दिया जाता है, वह बिना सत्कार के दिया जाने वाला दान है।
- ↑ पांच बात सुनाकर, कड़वा बोलकर, धमकाकर, फिर न आने की कडी हिदायत देकर, दिल्लगी उडाकर अथवा अन्य किसी भी प्रकार से वचन, शरीर या संकेत के द्वारा अपमानित करके जो दान दिया जात है, वह तिरस्कारपूर्वक दिया जाने वाला दान है।
- ↑ जिस देश-काल में दान देना आवश्यक नहीं है अथवा जहाँ दान देना शास्त्र निषेध किया है, वे देश और काल दान के लिये अयोग्य है।
- ↑ जिस मनुष्य को दान देने की आवश्यकता नहीं है तथा जिनको दान देने का शास्त्र में निषेध है, वे धर्मध्वजी, पाखण्डी, कपट वेषधारी, हिंसा करने वाले, मद्य-मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण करने वाले, चोरी, व्यभिचार आदि नीच कर्म करने वाले, ठग, जुआरी और नास्तिक आदि सभी दान के लिये अपात्र है।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 41 श्लोक 22-28
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| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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