- संजय द्वारा पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद अब धृतराष्ट्र संजय से सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का विस्तार से वर्णन करने को कहते हैं तो संजय इन सभी का वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत भीष्म पर्व में जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व के अंतर्गत षष्ठ अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
धृतराष्ट्र बोले- बुद्धिमान् संजय! तुमने सुदर्शन द्वीप का विधि पूर्वक थोडे़ में ही वर्णन कर दिया, परंतु तुम तो तत्त्वों के ज्ञाता हो अत: इस सम्पूर्ण द्वीप का विस्तार के साथ वर्णन करो। चन्द्रमा के शश-चिह्न में भूमि का जितना अवकाश दृष्टिगोचर होता है, उसका प्रमाण बताओं। तत्पश्चात् पिप्पलस्थान का वर्णन करना। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र के इस प्रकार पूछने पर संजय ने कहना आरम्भ किया। संजय बोले- महाराज! पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर फैले हुए ये छ: वर्ष पर्वत हैं, जो दोनों ओर पूर्व तथा पश्चिम समुद्र में घुसे हुए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- हिमवान्, हेमकूट, पर्वतश्रेष्ठ निषध, वैदूर्यमणिमय नीलगिरि, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, श्वेतगिरि तथा सब धातुओं से सम्पन्न होकर विचित्र शोभा धारण करने वाला श्रृङ्गवान् पर्वत। राजन्! ये छ: पर्वत सिद्धों तथा चरणों के निवासस्थान हैं।
विषय सूची
संजय द्वारा पर्वतों का वर्णन करना
भरतनन्दन! इनके बीच का विस्तार सहस्रों योजन हैं। वहाँ भिन्न-भिन्न वर्ष (खण्ड) हैं और उनमें बहुत-से पवित्र जनपद हैं। उनमें सब ओर नाना जातियों के प्राणी निवास करते हैं, उनमें से यह भारतवर्ष है। इसके बाद हिमालय से उत्तर हैमवतवर्ष हैं। हेमकूट पर्वत से आगे हरिवर्ष की स्थिति बतायी जाती है। महाभाग! नीलगिरि के दक्षिण और निषधपर्वत के उत्तर पूर्व से पश्चिम की ओर फैला हुआ माल्यवान् नामक पर्वत है। माल्यवान् से आगे गन्धमादन पर्वत हैं। इन दोनों के बीच में मण्डलाकार सुवर्णमय मेरूपर्वत है, जो प्रात:काल के सूर्य के समान प्रकाशमान तथा धूमरहित अग्नि-के समान कान्तिमान् है। उसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन हैं। राजन्! वह नीचे से चौरासी हजार योजन तक पृथ्वी के भीतर घुसा हुआ हैं। प्रभो! मेरूपर्वत ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल सम्पूर्ण लोकों को आवृत करके खड़ा है। उसके पार्श्वभाग में ये चार द्वीप बसे हुए हैं। भारत! उनके नाम ये हैं- भद्राश्व, केतुमाल, जम्बूद्वीप तथा उत्तरकुरू! उत्तरकुरु द्वीप में पुण्यात्मा पुरुषों का निवास हैं।
एक समय पक्षिराज गरुड़ के पुत्र सुमुख ने मेरूपर्वत पर सुनहरे शरीर वाले कौवों को देखकर सोचा कि यह सुमेरूपर्वत उत्तम, मध्यम तथा अधम पक्षियों में कुछ भी अन्तर नहीं रहने देता हैं। इसलिये मैं इसका त्याग दूंगा। ऐसा विचार करके वे वहाँ से अन्यत्र चले गये। ज्योतिर्मय ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ, सूर्यदेव, नक्षत्रों सहित चन्द्रमा तथा वायुदेव भी प्रदक्षिणक्रम से सदा मेरूगिरि की परिक्रमा करते रहते हैं। महाराज! वह पर्वत दिव्य पुष्पों और फलों से सम्पन्न हैं। वहाँ से सभी भवन जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित हैं। उनसे घिरे हुए उस पर्वत की बड़ी शोभा होती हैं। राजन्! उस पर्वत पर देवता, गन्धर्व, असुर, राक्षस तथा अप्सराएं सदा क्रीड़ा करती रहती हैं। वहाँ ब्रह्मा, रुद्र तथा देवराज इन्द्र एकत्र हो पर्याप्त दक्षिणा वाले नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं। उस समय तुम्बुरू, नारद, विश्वावसु, हाहा और हूहूनामक गन्धर्व उन देवेश्र्वरों के पास जाकर भाँति-भाँति के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं। राजन्! आपका कल्याण हो। वहाँ महात्मा सप्तर्षिगण तथा प्रजापति कश्यप प्रत्येक पर्व पर सदा पधारते हैं। भूपाल! उस मेरूपर्वत के ही शिखरपर दैत्यों के साथ शुक्राचार्य निवास करते हैं। ये सब रत्न तथा ये रत्नमय पर्वत शुक्राचार्य के ही अधिकार में हैं।[1] भगवान कुबेर उन्हीं से धन का चतुर्य भाग प्राप्त करके उसका उपभोग करते हैं और उस धन का सोलहवां भाग मनुष्यों को देते हैं।
सुमेरू पर्वत के उत्तर भाग में समस्त ॠतुओं के फूलों से भरा हुआ दिव्य एवं रमणीय कर्णिकार (कनेर वृक्षों का) वन हैं, जहाँ शिलाओं के समूह संचित हैं। वहाँ दिव्य भूतों से घिरे हुए साक्षात् भूतभावन भगवान् पशुपति पैरों तक लटकने वाली कनेर के फूलों की दिव्य माला धारण किये भगवती उमा के साथ विहार करते हैं। वे अपने तीनो नेत्रों द्वारा ऐसा प्रकाश फैलाते हैं, मानो तीन सूर्य उदित हुए हों। उग्र तपस्वी एवं उत्तम व्रतों का पालन करने वाले सत्यवादी सिद्ध पुरुष ही वहाँ उनका दर्शन करते हैं। दुराचारी लोगों को भगवान् महेश्वर का दर्शन नहीं हो सकता। नरेश्वर! उस मेरूपर्वत के शिखर से दुग्ध के समान श्वेतधार वाली, विश्वरूपा, अपरिमित शक्तिशालिनी, भयंकर वज्रपात के समान शब्द करने वाली, परम पुण्यात्मा पुरुषों द्वारा सेवित, शुभस्वरूपा पुण्यमयी भागीरथी गङ्गा बड़े प्रबलवेग से सुन्दर चन्द्रकुण्ड में गिरती हैं। वह पवित्र कुण्ड स्वयं गङ्गाजी ने ही प्रकट किया हैं, जो अपनी अगाध जल राशि के कारण समुद्र के समान शोभा पाता हैं। जिन्हें अपने ऊपर धारण करना पर्वतों के लिये भी कठिन था, उन्हीं गङ्गा को पिनाकधारी भगवान् शिव एक लाख वर्षों तक अपने मस्तक पर ही धारण किये रहे।[2]
राजन्! मेरु के पश्चिम भाग में केतुमाल द्वीप हैं, वहीं अत्यन्त विशाल जम्बूखण्ड नामक प्रदेश है, जो नन्दनवन के समान मनोहर जान पड़ता हैं। भारत! वहाँ के निवासियों की आयु दस हजार वर्षों की होती हैं। वहाँ के पुरुष सुवर्ण के समान कान्तिमान् और स्त्रियां अप्सराओं के समान सुन्दरी होती हैं। उन्हें कभी रोग और शोक नहीं होते। उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता हैं। वहाँ तपाये हुए सुवर्ण के समान गौर कान्तिवाले मनुष्य उत्पन्न होते हैं। गन्धमादन पर्वत के शिखरों पर गुह्यकों के स्वामी कुबेर राक्षसों के साथ रहते और अप्सराओं के समुदायों के साथ आमोद-प्रमोद करते हैं। गन्धमादन के अन्यान्य पार्श्वर्ती पर्वतों पर दूसरी-दूसरी नदियां हैं, जहाँ निवास करने वाले लोगों की आयु ग्यारह हजार वर्षों की होती हैं। राजन्! वहाँ के पुरुष हृष्ट-पुष्ट, तेजस्वी और महाबली होते हैं तथा सभी स्त्रियां कमल के समान कान्तिमती और देखने में अत्यन्त मनोरम होती हैं। नील पर्वत के उत्तर श्वेतवर्ष और श्वेतवर्ष से उत्तर हिरण्यकवर्ष हैं। तत्पश्चात् श्रृङ्गवान् पर्वत से आगे ऐरावत नामक वर्ष है। राजन्! वह अनेकानेक जनपदों से भरा हुआ हैं।
महाराज! दक्षिण और उत्तर के क्रमश: भारत और ऐरावत नामक दो वर्ष धनुष की दो कोटियों के समान स्थित हैं और बीच में पांच वर्ष (श्वेत, हिरण्यक, इलावृत, हरिवर्ष तथा हैमवत) हैं। इन सबके बीच में इलावृत वर्ष हैं। भारत से आरम्भ करके ये सभी वर्ष आयु के प्रमाण, आरोग्य, धर्म, अर्थ और काम- इन सभी दृष्टियों से गुणों में उत्तरोत्तर बढ़ते गये हैं। भारत! इन सब वर्षों में निवास करने वाले प्राणी परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। महाराज! इस प्रकार यह सारी पृथ्वी पर्वतों द्वारा स्थिर की गयी हैं। राजन्! विशाल पर्वत हेमकूट ही कैलास नाम से प्रसिद्ध हैं। जहाँ कुबेर गुह्यकों के साथ सानन्द निवास करते हैं। कैलास से उत्तर मैनाक है और उससे भी उत्तर दिव्य तथा महान् मणिमय पर्वत हिरण्यश्रृङ्ग हैं।[2]
गंगा नदी का वर्णन
उसी के पास विशाल, दिव्य, उज्ज्वल तथा काञ्चनमयी बालुका से सुशोभित रमणीय बिन्दुसरोवर हैं, जहाँ राजा भागीरथ ने भागीरथी गङ्गा का दर्शन करने के लिये बहुत वर्षों तक निवास किया था। वहाँ बहुत-से मणिमय यूप तथा सुवर्णमय चैत्य (महल) शोभा पाते हैं। वहीं यज्ञ करके महायशस्वी इन्द्र ने सिद्धि प्राप्त की थी। उसी स्थान पर सब और सम्पूर्ण जगत् के लोग लोकस्त्रष्टा प्रचण्ड तेजस्वी सनातन भगवान् भूतनाथ की उपासना करते हैं। नर, नारायण, ब्रह्मा, मनु और पांचवे भगवान् शिव वहाँ सदा स्थित रहते हैं। ब्रह्मलोक से उतरकर त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा पहले उस बिन्दुसरोवर में ही प्रतिष्ठित हुई थीं। वहीं से उनकी सात धाराएं विभक्त हुई हैं। उन धाराओं के नाम इस प्रकार हैं- वस्वोकसारा, नलिनी, पावनी सरस्वती, जम्बूनदी, सीता, गङ्गा और सिंधु।[3]
यह (सात धाराओं का प्रादुर्भाव जगत् के उपकार के लिये) भगवान् का ही अचिन्त्य एवं दिव्य सुन्दर विधान हैं। जहाँ लोग कल्प के अन्ततक यज्ञानुष्ठान के द्वारा परमात्मा की उपासना करते हैं। इन सात धाराओं में जो सरस्वती नामवाली धारा हैं, वह कहीं प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं और कहीं अदृश्य हो जाती है। ये सात दिव्य गङ्गाएं तीनों लोकों में विख्यात हैं। हिमालय पर राक्षस, हेमकूट पर गुह्यक तथा निषधपर्वत पर सर्प और नाग निवास करते हैं। गोकर्ण तो तपोधन है। श्वेतपर्वत सम्पूर्ण देवताओं और असुरों का निवासस्थान बताया गया हैं। निषधगिरि पर गन्धर्व तथा नीलगिरि पर ब्रह्मर्षि निवास करते हैं। महाराज! श्रृङ्गवान् पर्वत तो केवल देवताओं की ही विहारस्थली है। राजेन्द्र! इस प्रकार स्थावर और जङ्गम सम्पूर्ण प्राणी इन सात वर्षों में विभागपूर्वक स्थित हैं। उनकी अनेक प्रकार की दैवी और मानुषी समृद्धि देखी जाती हैं। उसकी गणना असम्भव है। कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को उस समृद्धि पर विश्वास करना चाहिये। इस प्रकार वह सुदर्शनद्वीप बताया गया हैं, जो दो भागों में विभक्त होकर चन्द्रमण्डल में प्रतिबिम्बित हो खरगोश की-सी आकृति में दृष्टिगोचर होता है।
शशाकृति का वर्णन
राजन्! आपने जो मुझसे इस शशकृति (खरगोशकी-सी आकृति) के विषय में प्रश्न किया है उसका वर्णन करता हूं, सुनिये। पहले जो दक्षिण और उत्तर में स्थित (भारत और ऐरावत नामक) दो द्वीप बताये गये हैं, वे ही दोनों उस शश (खरगोश) के दो पार्श्वभाग हैं। नागद्वीप तथा काश्यपद्वीप उसके दोनों कान हैं। राजन्! ताम्रवर्ण के वृक्षों और पत्रों से सुशोभित श्रीमान् मलयपर्वत ही इसका सिर हैं। इस प्रकार यह सुदर्शनद्वीप का दूसरा भाग खरगोश के आकाश में दृष्टिगोचर होता है।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-22
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 6 श्लोक 23-42
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 6 श्लोक 43-56
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| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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