सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 38वें अध्याय में 'सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]


सम्बन्ध-पूर्वश्लोक में जीवों के नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेने की बात कही गयी, किंतु वहाँ गुणों की कोई बात नहीं आयी। इसलिये अब वे गुण क्या है। उनका संग क्या है किस गुण के संग से अच्छी योनि में और किस गुण के संग से बुरी योनि में जन्म होता है- इन सब बातों को स्पष्ट करने के लिये इस प्रकरण का आरम्भ करते हुए भगवान अब अर्जुन से पहले उन तीनों गुणों की प्रकृति से उत्पत्ति और उनके विभिन्न नाम बतलाकर फिर उनके स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बन्धन-प्रकार का क्रमशः पृथक पृथक वर्णन करते हैं।

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की उत्पत्ति का वर्णन

कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण[2] अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं।[3] हे निष्पाप! उन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है,[4] वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उनके अभिमान से बांधता है।[5] हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान।[6] वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है।[7] हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले[8] तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान।[9] वह इस जीवात्मों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।[10] सम्बन्ध- इस प्रकार सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बांधे जाने का प्रकार बतलाकर अब उन तीनों गुणों का स्वाभावित व्यापार बतलाते हैं। हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगता है[11] और रजोगुण कर्म में[12] तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है।[13] सम्बन्ध-सत्त्व आदि तीनों गुण जिस समय अपने-अपने कार्य में जीवों को नियुक्त करते हैं, उस समय वे ऐसा करने में किस प्रकार समर्थ होते हैं- यह बात अगले श्लोक में बतलाते हैं।[1] हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण,[14] सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण,[15] वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण[16] होता है। अर्थात बढ़ता है।[17]

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के लक्षण, एवं वृद्धि का वर्णन

सम्बन्ध- इस प्रकार अन्य दो गुणों को दबाकर प्रत्येक गुणों के बढने की बात कही गयी। अब प्रत्येक गुण की वृद्धि के लक्षण जानने की इच्छा होने पर क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण, और तमोगुण, वद्धि के लक्षण बतलाये जाते हैं- जिस समय इस देह में[18] तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेक शक्ति उत्पन्न होती हैं, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है।[19] हे अर्जुन! रजोगुण के बढने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं।[20] हे अर्जुन! तमोगुण के बढने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियां- ये सब ही उत्पन्न होते हैं।[21]-[22] सम्बन्ध- इस प्रकार तीनों गुणों की वृद्धि के भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाकर अब दो श्लोकों में उन गुणों में से किस गुण की वृद्धि के समय मरकर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, यह बतलाया जाता है- जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है।[23] तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढने पर मृत्यु को प्राप्त होकर[24] कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढने पर मरा हुआ[25] मनुष्य कीट, पशु आदि मूढयोनियों में उत्पन्न होता है। सम्बन्ध- सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों की वृद्धि में मरने के भिन्न-भिन्न फल बताये गये हैं कि किस प्रकार कभी किसी गुण की और कभी किसी गुण की वृद्धि क्‍यों होती हैं इस पर कृष्ण कहते हैं- श्रेष्ट कर्म का तो सात्त्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है।[26] राजस कर्म का फल दुःख[27] एवं तामस कर्म का फल अज्ञान[28] कहा है।

सम्बन्ध- ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में सत्त्व, रज और तमोगुण की वृद्धि के लक्षण का क्रम से वर्णन किया गया इस पर यह जानने की अच्छा होती है कि ‘ज्ञान’ आदि की उत्पत्ति को सत्त्व आदि गुणों की वृद्धि के लक्षण क्यों माना गया। अतएव कार्य की उत्पत्ति से कारण की सत्ता को जान लेने के लिये ज्ञान आदि की उत्पत्ति में सत्त्व आदि गुणों को कारण बतलाते है।[22] सत्त्वगुण ज्ञान[29] उत्पन्न होता है और रजोगुण से निसंदेह लोभ[30]तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं, और अज्ञान भी होता है। सत्त्वगुण स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्यलोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों का तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।[31]

सम्बन्ध- गीता के तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक मे जो यह बात कही थी कि गुणों का संग ही इस मनुष्य के अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्तिरूप पुनर्जन्म का कारण है उसी के अनुसार यह अध्याय में पांचवें से अठारहवें श्लोक तक गुणों के स्वरूप तथा गुणों के कार्य द्वारा मनुष्य बधें हुए मनुष्य की गति आदि का विस्तारपूर्वक प्रतिवादन किया गया। इस वर्णन से यह बात समझायी गयी। कि मनुष्य को पहले तम और रजोगुण त्याग करके सत्त्वगुण में अपनी स्थिति करनी चाहिये और उसके बाद सत्त्वगुण का भी त्याग करके गुणातीत हो जाना चाहिये। अतएव गुणातीत होने के उपाय और गुणातीत अवस्था का फल अगले दो श्लोकों द्वारा बतलाया जाता है- जिस समय दृष्टा[32] तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता[33] और तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्दनरूप मुझ परमात्मा तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।[34] यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके[35] जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।[36][37]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 4-9
  2. अभिप्राय यह है कि गुण तीन है सत्त्व, रज और तम उनके नाम हैं और तीनों परस्पर भिन्न हैं। ये तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं एवं समस्त जड पदार्थ इन्ही तीनों का विस्तार है।
  3. जिसका शरीर में अभिमान है, उसी पर इन गुणों का प्रभाव पड़ता है और वास्तव में स्वरूप से वह सब प्रकार के विकारों से रहित और अविनाशी, अतएवं उनका बन्धन हो ही नहीं सकता। अनादिसिद्ध अज्ञान के कारण उसने बन्धन मान रखा है। इन तीनों गुणों जो अपने अनुरूप भागों में और शरीर में इसका ममत्व, आसक्ति और अभिमान उत्पन्न कर देना है- यही उन तीनों गुणों का उसको शरीर में बांध देना है।
  4. सत्त्वगुण स्वरूप सर्वथा निर्मल है, उसमें किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है इसी कारण वह प्रकाशक और अनामय है। उससे अन्तःकरण और इन्द्रियों में प्रकाश की वद्धि होती है एवं दुःख, विक्षेप, दुर्गुण, और दुराचारों का नाश होकर शांति की प्राप्ति होती है।
  5. सुख शब्द यहाँ गीता के अठारवें अध्याय के छत्तीसवें और सैंत्तीसवें श्लोकों में जिसके लक्षण बतलाये गये हैं, उस सात्त्विक सुख का वाचक है। उस सुख की प्राप्ति के समय जो मैं सुखी हूँ इस प्रकार अभिमान हो जाता है तथा ज्ञान बोधशक्ति का नाम है उसके प्रकट होने पर जो उसमें 'मैं ज्ञानी हूँ', ऐसा अभिमान हो जाता है वह उसे गुणातीत अवस्था से वञ्चित रख देता है, अत: यही सत्त्वगुण जीवात्मा को सुख और ज्ञान संग से बांधता है।
  6. कामना और आसक्ति से रजोगुण बढ़ता है तथा रजोगुण से कामना और आसक्ति बढ़ती है। इसका परस्पर बीज और वृक्ष की भाँति अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है इसमें रजोगुण बीजस्थानीय और कामना, आसक्ति आदि वृक्ष स्थानीय हैं। बीज वृक्ष से ही उत्पन्न होता है, तथापि वृक्ष का कारण भी बीज ही है इसी बात को स्पष्ट करने के लिये कहीं रजोगुण से कामादि की उत्पत्ति और कहीं कामनादि से रजोगुण की उत्पत्ति बतलायी गयी है।
  7. ‘इन सब कर्मों को मैं करता हूं’ कर्मों में कर्तापन के इस अभिमानपूर्वक ‘मुझे इसका अमुक फल मिलेगा’ ऐसा मानकर कर्मों के और उनके फलों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेने का नाम ‘कर्मसंग’ है; इसके द्वारा रजोगुण जो इस जीवात्मा को जन्म-मृत्यु संसार में फॅसाये रखना है, वही उसका कर्म संग के द्वारा जीवात्मा बांधना है।
  8. अन्तःकरण और इन्द्रियों में ज्ञानशक्ति का अभाव करके उनमें मोह उत्पन्न कर देना ही तमोगुण का सब देहाभिमानियों को मोहित करना है।
  9. इस अध्याय के सतरहवें श्लोक में तो अज्ञान की उत्पत्ति तमोगुण से बतलायी है। और यहाँ तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न बतलाया गया- इसका अभिप्राय यह है कि तमोगुण से अज्ञान बढ़ता है और अज्ञान से तमोगुण बढ़ता हैं। इन दोनों में भी बीज और वृक्ष की भाँति अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है, अज्ञान बीज स्थानीय है और तमोगुण वृक्ष स्थानीय है।
  10. अन्तःकरण और इन्द्रियों व्यर्थ चेष्टा का एवं शास्त्रविहित कर्तव्य पालन में अवहेलना का नाम ‘प्रमाद’ है। कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृतिरूप निरूघमता का नाम ‘आलस्य’ है। तन्द्रा स्वप्न और सुषुप्ति-इन सब का नाम ‘निद्रा’ है। इन सब के द्वारा जो तमोगुण का इस जीवात्मा को मुक्त के साधन से संचित रखकर जन्म-मृत्यु रूप संसार में फॅसाये रखना है- यही उसका प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा जीवात्मा बांधना है।
  11. ‘सुख’ शब्द जहाँ सात्त्विक सुख का वाचक है (गीता 28/36,37) और सत्त्वगुण जो इन मनुष्य को सांसारिक भोगों और चेष्टाओं से तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा से हटाकर आत्मचिन्तन आदि के द्वारा सात्त्विक सुख से संयुक्त कर देना है- यही उसको सुख में लगाना है।
  12. ‘कर्म’ शब्द यहाँ (इस लोक और परलोक के भोग रूप फल देने वाले) शास्त्रविहित सकामकर्मों का वाचक है। नाना प्रकार के भोगों की अच्छा उत्पन्न करके उनकी प्राप्ति के लिये उन कर्मों में मनुष्य को प्रवृत कर देना ही रजोगुण का मनुष्य को उन कर्मों में लगाना है।
  13. जब तमोगुण बढ़ता है, तब वह कभी तो मनुष्य की कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने वाली विवेकशाक्ति को नष्ट कर देता हैं और कभी अन्तःकरण और इन्द्रियों की चेतना को नष्ट करके निद्रा की वृत्ति उत्पन्न कर देता हैं यही उसका मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित करना है और कर्तव्यपालन में अवहेलना कराके व्यर्थ चेष्टाओं में नियुक्त कर देना प्रमाद में लगाना है।
  14. रजोगुण के कार्य लोभ, प्रवृत्ति और भोगवासनादि तथा तमोगुण के कार्य निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि को दबाकर जो सत्त्वगुण का ज्ञान, प्रकाश और सुख आदि को उत्पन्न कर देना है, यही रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ जाना है।
  15. जिस समय सत्त्वगुण और तमोगुण की प्रवृति को रोककर तमोगुण अपना कार्य आरम्भ करता है, उस समय शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण चंचलता, अशांति, लोभ, भोगवासना और नाना प्रकार के कर्मों में प्रवृत होने की उत्कष्ट इच्छा उत्पन्न हो जाती है- यही सत्त्वगुण और प्रमोदगुण दबाकर रजोगुण बढ़ जाता है।
  16. जिस समय सत्त्वगुण और रजोगुण की प्रवृति को रोककर तमोगुण अपना कार्य आरम्भ करता है, उस समय शरीर, इन्द्रियां,और अन्तःकरण मोह आदि बढ़ जाते हैं और प्रमाद में प्रवृति हो जाती है, वृतियां विवेकशून्य हो जाती है- यही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण का बढ़ना है।
  17. गुणों की वृद्धि में निम्नलिखित दस हेतु श्रीमद्रागवत में बतलायें है-आगमोअपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च। ध्यानं मन्त्रोअथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।(11/13/10) ‘शास्त्र’ जल, संतान, देश, काल, कर्म, योनि, चिन्तन, मन्त्र और संस्कार- ये दस गुणों के हेतु हैं अर्थात गुणों को बढ़ाने वाले हैं। अभिप्राय यह है कि उपयुक्त पदार्थ जिस गुण से युक्त होते हैं, उनका संग उसी गुण को बढ़ा देता हैं।
  18. अभिप्राय यह है कि सत्त्वगुण की वृद्धि का अवसर मनुष्य-शरीर में ही मिल सकता है और इसी शरीर में सत्त्वगुण की सहायता पाकर मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है, दूसरी योनियों में ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं हैं
  19. शरीर में चेतना, हलकापन तथा इन्द्रिय और अन्तःकरण में निर्मलता और चेतना की अधिकता हो जाना ही ‘प्रकाश’ का उत्पन्न होना है एवं सत्य-असत्य तथा कर्तव्य-अर्कतव्य निर्णय करने वाली विवेशक्ति का जाग्रत हो जाना ‘ज्ञान’ का उत्पन्न होना है। जिस समय प्रकाश और ज्ञान- इन दोनों का प्रादुर्भाव होता है, उस समय दुःख, शोक, चिंता, भय, चंचलता, निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि का अभाव सा हो जाता है। उस समय मनुष्य को सावधान होकर अपना मन भजन-ध्यान में लगाने की चेष्टा करनी चाहिये तभी सत्त्वगुण की प्रवृति अधिक समय ठहर सकती है अन्यथा उसकी अवहेलना कर देने से शीघ्र ही तमोगुण या रजोगुण उसे दबाकर अपना कार्य आरम्भ कर सकते हैं।
  20. जिसके कारण मनुष्य प्रतिक्षण धन की वृद्धि के उपाय सोचता रहता है, धन व्यय करने का समुचित अवसर प्राप्त होने पर भी उसका त्याग नहीं करता एवं धनोपार्जन के समय कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन छोडकर दूसरे के स्वत्व पर भी अधिकार जमाने की इच्छा या चेष्टा करने लगता है, उस धन की लालसा का नाम ‘लोभ’ है। नाना प्रकार के कर्म करने के लिये मानसिक भावों का जाग्रत होना ‘प्रवृति’ है। उन कर्मों को सकामभाव से करने लगना उनका ‘आरम्भ’ है। मन की चंचलता का नाम ‘अशांति’ है, और किसी भी प्रकार के सांसारिक पदार्थों को अपने लिये आवश्यक मानना ‘स्पृहा’ है। रजोगुण की वृद्धि के समय इन लोभ आदि भावों का प्रादुर्भाव होना ही उनका उत्पन्न हो जाना है।
  21. मनुष्य इन्द्रिय और अन्तःकरण में दीप्ति का अभाव हो जाना ही ‘अप्रकाश’ का उत्पन्न होना हैं। कोई भी कर्म अच्छा नहीं लगता, केवल पडे रहकर ही समय बिताने की इच्छा होना, यह ‘अप्रवृति’ का उत्पन्न होना है। शरीर और इन्द्रियों द्वारा व्यर्थ चेष्टा करते रहना और कर्तव्यकर्म में अवहेलना करना, यह ‘प्रमाद’ का उत्पन्न होना है। मन का मोहित हो जाना किसी बात की स्मृति न रहना तन्द्रा, स्वप्र या सुषुप्ति-अवस्था का प्राप्त हो जाना विवेक शक्ति का अभाव हो जाना किसी विषय को समझने की शक्ति का न रहना- यही सब ‘मोह’ का उत्पन्न होना है। ये सब लक्षण तमोगुण की वृद्धि के समय उत्पन्न होते है, अतएव इनमें से कोई सा भी लक्षण अपने में देखा जाये, तब मनुष्य को समझना चाहिये कि तमोगुण बढ़ा हुआ है।
  22. 22.0 22.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 10-16
  23. इस प्रकण में ऐसे मनुष्य की गति का निरूपण किया जाता है, जिसकी स्वाभाविक स्थिति दूसरे गुणों में होते हुए भी सात्त्विक गुण वृद्धि में मृत्यु हो जाती है। ऐसे मनुष्य में जिस समय पूर्व संस्कार आदि किसी कारण से सत्त्वगुण बढ़ जाता है- अर्थात जिस समय ग्यारहवें श्लोक के वर्णनानुसार उसके समस्त शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में ‘प्रकाश’ और ‘ज्ञान’ उत्पन्न हो जाता है, उस समय स्थूल शरीर से मन, इन्द्रियों और प्राणों के सहित जीवात्मा सम्बन्ध विच्छेद हो जाना ही सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है।
  24. सात्त्विक और तामस पुरुष भी हृदय में जिस समय बारहवें श्लोक के अनुसार लोभ, प्रवृत्ति आदि राजस भाव बढे हुए होते हैं, उस समय जो स्थूल शरीर से मन, इन्द्रियों और प्रमाणों के सहित जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाना है- वही रजोगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है।
  25. जिस समय सात्त्विक और राजस पुरुष के भी हृदय में तेरहवें श्लोक के अनुसार अप्रकाश अप्रवृत्ति और प्रमाद आदि तामस भाव बढ़े हुए हों, उस समय जो स्थूल शरीर से मन, इन्द्रियों और प्राणों के सहित जीवात्मा का सम्बन्ध विच्छेद हो जाना है, वही तमोगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होना है।
  26. जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म निष्कामभाव से किये जाते हैं, उन सात्त्विक कर्मों के संस्कारों से अन्तःकरण में जो ज्ञान वैराग्यादि निर्मल भावों का बार बार प्रादुर्भाव होता रहता है और मरने के बाद जो दुःख और दोषों से रहित दिव्य प्रकाशमय लोकों की प्राप्ति होती है, वही उनका ‘सात्त्विक और निर्मल फल’ है।
  27. जो कर्म भोगों की प्राप्ति के लिये अहंकारपूवर्क बहुत परिश्रम के साथ किये (गीता 28/24), वे राजस है। ऐसे कर्मों के करते समय तो परिश्रमरूप दुःख होता ही है, परन्तु उसके बाद भी वे दुःख ही देते रहते हैं। उसके संस्कारों के अन्तःकरण में बार बार भोग, कामना, लोभ और प्रवृत्ति आदि राजस भाव स्फुरित होते हैं- जिनसे मन विक्षिप्त होकर अशांति और दुःखों से भर जाता है। उन कर्मों के फलस्वरूप जो भोग प्राप्त होते हैं, वे भी अज्ञान सुखरूप दिखने पर भी वस्तुतः दुःख रूप ही होते हैं और फल भोगने के लिये जो बार बार जन्म मरण के चक्र में पड़े रहना पड़ता है, वह तो महान दुःख है ही।
  28. जो कर्म बिना सोचे समझे मूर्खतावश किये जाते हैं और जिनमें हिंसा आदि दोष भरे रहते हैं (गीता 28/25), वे ‘तामस’ है। उनके संस्कारों से अन्तःकरण में मोह बढता है और मरने के बाद जिन योनियों मे तमोगुण की अधिकता है- ऐसी जड़योनियों की प्राप्ति होती है वही उसका फल ‘अज्ञान’ है।
  29. यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द से यह समझना चाहिये कि ज्ञान, प्रकाश, और सुख, शांति आदि सभी सात्त्विक भावों की उत्पत्ति सत्त्वगुण से होती हैं।
  30. यहाँ लोभ शब्द से भी यही समझना चाहिये कि लोभ, प्रवृति, आसक्ति, कामना, स्वार्थपूर्वक कर्मों का आरम्भ आदि सभी राजस भावों की उत्पत्ति रजोगुण से होती है।
  31. चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकों में तो दूसरे गुणों में स्वाभाविक स्थिति होते हुए भी मरणकाल में जिस गुण की वृद्धि में मृत्यु होती हैं, उसी के अनुसार गति होने की बात कही गयी हैं और यहाँ जिनकी स्वाभाविक स्थायी स्थिति सत्त्वादि गुणों में है, उनकी गति के भेद का वर्णन किया गया है। इसलिये ही यहाँ सदा तमोगुण के कार्यों में स्थित रहने वाले तामस मनुष्य को नरकादि की प्राप्ति होने की बात भी कही गयी है।
  32. मनुष्य स्वाभाविक तो अपने को शरीरधारी समझकर कर्ता और भोक्ता बना रहता है, परंतु जिस समय शास्त्र और आचार्य के उपदेश द्वारा विवेक प्राप्त करके वह अपने को दृष्टा समझने लग जाता है, उस समय का वर्णन यहाँ किया जाता है।
  33. इन्द्रिय, अन्तःकरण और प्राण आदि की श्रवण, दर्शन, खान-पान, चिन्तन-मन, शयन-आसन और व्यवहार आदि सभी स्वाभाविक चेष्टाओं के होते समय सदा-सर्वदा अपने को निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित देखते हुए जो ऐसे समझता है कि गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है गुणों के कार्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण आदि ही गुणों के कार्यरूप इन्द्रियादि के विषयों में बरत रहे हैं (गीता 5/7/9) अतः गुण ही गुणों में बरत रहे है (गीता 3/28) मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- यही गुणों से अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता न देखना है।
  34. अपने को निर्गुण निराकार ब्रह्मा से अभिन्न समझ लेने पर जो उस एकमात्र सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म से भिन्न किसी भी सत्ता का न रहना और सर्वत्र एवं सदा सर्वदा केवल परमात्मा का प्रत्यक्ष हो जाना ही उसे तत्त्व से जानना है। ऐसी स्थिति के बाद जो सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म की अभिन्नभाव से साक्षात प्राप्ति हो जाती है। वही भगवद्राव यानी भगवान के स्वरूप को प्राप्त होना है।
  35. रज और तम का सम्बन्ध छूटने के बाद यदि सत्त्व्गुण से सम्बन्ध बना रहे तो वे भी मुक्ति में बाधक होकर पुन-जन्म का कारण बन सकता है; अतएव उसका सम्बन्ध भी त्याग देना चाहिये। आत्मा वास्तव में असंग है। गुणों के साथ, उसका कुछ भी सम्‍बन्‍ध नहीं है तथापि जो अनादिसिद्ध अज्ञान से इनके साथ सम्बन्ध हुआ है, उस सम्बन्ध को ज्ञान के द्वारा तोड़ देना और अपने को निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म से अभिन्न और गुणों से सर्वथा सम्बन्धरहित समझ लेना अर्थात प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना ही गुणों से अतीत हो जाना यानी तीना गुणों का उल्लंघन करना है।
  36. जन्म और मरण तथा बाल, युवा और वृद्धावस्था शरीर की होती है एवं आधि और व्याधि आदि सब प्रकार के दुःख भी इन्द्रिय, मन और प्राण आदि के संघातरूप शरीर में ही व्याप्त रहते हैं। अतः तत्त्वज्ञान के द्वारा शरीर से सर्वथा सम्बन्ध रहित हो जाना ही जन्म, मृत्यु, जरा और दुःखों से सर्वथा मुक्त हो जाना है तथा जो अमृतस्वरूप सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म को अभिन्नभाव से प्रत्यक्ष कर लेना है, जिसे उन्नीसवें श्लोक में भगवद्राव की प्राप्ति नाम से कहा गया है- वही यहाँ ‘अमृत’ का अनुभव करना है।
  37. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 17-21

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संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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