- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 29वें अध्याय में 'कृष्ण द्वारा अर्जुन को सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग के विषय में समझाने का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
कृष्ण द्वारा अर्जुन से सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन करना
संबंध- गीता के तीसरे और चौथे अध्याय में अर्जुन ने भगवान के श्रीमुख से अनेकों प्रकार से कर्मयोग की प्रशंसासुनी और उसके सम्पादन की प्रेरणा तथा आज्ञा प्राप्त की। साथ ही वह भी सुना कि ‘कर्मयोग के द्वारा भगवत्स्वरूप का तत्त्वज्ञान अपने-आप ही हो जाता है’[2]; गीता के चौथे अध्याय के अंत में भी उन्हें भगवान के द्वारा कर्मयोग के सम्पादन की ही आज्ञा मिली। परंतु बीच-बीच में उन्होंने भवगान के श्रीमुख से ही ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि:[3]’ ‘ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति[4], ‘तद् विद्धि प्रणिपातेन[5]’ आदि वचनों द्वारा ज्ञानयोग अर्थात कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा सुनी। इससे अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है। अतएव अब भगवान के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते हैं-
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिये इन दोनों में से जो एक मेरे लिये भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये[6] श्रीभगवान बोले- कर्मसन्ंयास[7] और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।[8] हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है;[9] क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक-पृथक फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।[10] ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है।[11] इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है। परंतु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है[12] और भगवत्स्वरूप को मन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।[13] जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्त:करण वाला है[14] और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।[1]
तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी[15] तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता और मूंदता हुआ भी, सब इन्द्रियों अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर नि:संदेह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।[16] सम्बन्ध- इस प्रकार सांख्ययोगी के साधन का स्वरूप बतलाकर अब दसवें ओर ग्यारहवें श्लोकों में कर्मयोगियों के साधन का फलसहित स्वरूप बतलाते हैं- जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके[17] और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता हैं, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता। कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अन्त:करण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं।[18] कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है।[19] अन्त:करण जिसके वश में हैं, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर[20] आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता हैं। सम्बन्ध- जबकि आत्मा वास्तव में कर्म करने वाला भी नहीं है और इन्द्रियादि से करवाने वाला भी नहीं है, तो फिर सब मनुष्य अपने को कर्मों का कर्ता क्यों मानते हैं और वे कर्मफल के भागी क्यों होते हैं? इस पर कहते हैं- परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं;[21] किंतु स्वभाव ही बर्त रहा है।[22] सम्बन्ध- जो साधक समस्त कर्मों को और कर्मफलों की भगवान के अर्पण करके कर्मफल से अपना सम्बन्धविच्छेद कर लेते हैं, उनके शुभाशुभ कर्मों के फल के भागी क्या भगवान होते हैं। इस जिज्ञासा पर कहते हैं- सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता हैं;[23] किंतु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।[24][25]
परंतु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्त्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।[26] सम्बन्ध- यथार्थ ज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति होती है, यह बात संक्षेप में कहकर अब छब्बीसवें श्लोक तक ज्ञानयोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त होने के साधन तथा परमात्मा को प्राप्त सिद्ध पुरुषों के लक्षण, आचरण, महत्त्व और स्थिति का वर्णन करने के उद्देश्य से पहले यहाँ ज्ञानयोग के एकान्त साधन द्वारा परमात्मा की प्राप्ति बतलाते हैं- जिनका मन तद्रूप हो रहा है,[27] जिनकी बुद्धि तद्रुप हो रही है[28] और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरन्तर एकीभाव से स्थिति है,[29] ऐसे तत्परायण पुरुष[30] ज्ञान के द्वारा पापरहित[31] होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं।[32] वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं।[33] जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया अर्थात वे सदा के लिये जन्म-मरण से छूटकर जीवन्मुक्त हो गये; क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं[34]जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो,[35] वह स्थिर बुद्धि संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघनपरब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है। बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अंत:करण वाला साधक[36] आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है;[37] तदनंतर वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्नभाव से स्थित[38] पुरुष अक्षय आनंद का अनुभव करता है।[39] जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भोगते हैं तो भी दु:ख ही हेतु हैं[40] और आदि-अंत वाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।[41][42]
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही[43] काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है,[44] वही पुरुष योगी है और वही सुखी है। संबंध-उपर्युक्त प्रकार से ब्रह्म विषयभोगों को क्षणिक और दु:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्याग करके जो काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर चुका है, अब ऐसे सांख्ययोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन किया जाता है- जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुख वाला है,[45] आत्मा में ही रमण करने वाला है[46] तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है,[47] वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी[48] शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।[49] जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं,[50] जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्त वाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं।[51] सम्बन्ध- कर्मयोग और सांख्ययोग- दोनों साधनों द्वारा परमात्मा की प्राप्ति और परमात्मा को प्राप्त महापुरुषों के लक्षण कहे गये। उक्त दोनों ही प्रकार के साधकों के लिये वैराग्यपूर्वक मन-इन्द्रियों को वश में करके ध्यानयोग का साधन करना उपयोगी है, अत: अब संक्षेप में फलसहित ध्यानयोग का वर्णन करते हैं।[52]
बाहर के विषयभोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर[53] और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके[54] तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके,[55] जिसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि जीती हुई हैं[56]- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि[57]इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है।[58] संबंध-जो मनुष्य इस प्रकार मन, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके कर्मयोग, सांख्ययोग या ध्यानयोग का साधन करने में अपने को समर्थ नहीं समझता हो, ऐसे साधक के लिये सुगमता से परमपद की प्राप्ति कराने वाले भक्तियोग का संक्षेप में वर्णन करते हैं- मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला,[59] सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर[60] तथा सम्पूर्ण भूतप्राणियों का सुहृद[61] अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है।[62][63]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-7
- ↑ गीता 4:38
- ↑ गीता 4:24
- ↑ गीता 4:25
- ↑ गीता 4:34
- ↑ सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर ऐसा समझना कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, (गीता 3:28) तथा निरंतर परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से स्थित रहना और सर्वदा सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि रखना (गीता 4:24)’-यही ज्ञानयोग है-यही कर्मसंन्यास है। गीता के चौथे अध्याय में इसी प्रकार के ज्ञानयोग की प्रशंसा की गयी है और उसी के आधार पर अर्जुन का यह प्रश्न है।
- ↑ मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान का और शरीर तथा समस्त संसार में अहंता-ममता का पूर्णतया त्याग ही ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ है। चौथे और पांचवे श्लोकों में ‘संन्यास’ को ही ‘सांख्य’ कहकर भलीभाँति स्पष्टीकरण भी कर दिया है। अतएव यहाँ ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ ‘सांख्यायोग’ ही मानना युक्त है।
- ↑ कर्मयोगी कर्म करते हुए भी सदा संन्यासी ही है, वह सुखपूर्वक अनायास ही संसारबंधन से छूट जाता है। (गीता 5:3) उसे शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। (गीता 5:6) प्रत्येक अवस्था में भगवान उसकी रक्षा करते हैं (गीता 1:22) और कर्मयोग का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मरणरूप महान भय से उद्धार कर देता है। (गीता 2:40) किंतु ज्ञानयोग का साधन क्लेशयुक्त है (गीता 12:5), पहले कर्मयोग का साधन किये बिना उसका होना भी कठिन है। (गीता 6:6) इन्हीं सब कारणों से ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बतलाया गया है।
- ↑ कर्मयोगी न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की आकांक्षा करता है, वह द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो जाता है। वास्तव में संन्यास भी इसी स्थिति का नाम है। जो राग-द्वेष से रहित है, वही सच्चा संन्यासी है; क्योंकि उसे न तो संन्यास-आश्रम ग्रहण करने की आवश्यकता है और न सांख्ययोग की ही। अतएव यहाँ कर्मयोगी को ‘नित्यसंन्यासी’ कहकर भगवान उसका महत्त्व प्रकट करते हैं कि समस्त कर्म करते हुए भी वह सदा संन्यासी ही है और सुखपूर्वक अनायास ही कर्मबन्धन से छूट जाता है।
- ↑ ’सांख्ययोग’ और ‘कर्मयोग’ दोनों ही परमार्थतत्त्व के ज्ञान द्वारा परमपदरूप कल्याण की प्राप्ति में हेतु हैं। इस प्रकार दोनों का फल एक होने पर भी जो लोग कर्मयोग का दूसरा फल मानते हैं और सांख्ययोग का दूसरा, वे फलभेद की कल्पना करके दोनों साधनों को पृथक-पृथक मानने वाले लोग बालक हैं; क्योंकि दोनों की साधनप्रणाली में भेद होने पर भी फल में एकता होने के कारण वस्तुत: दोनों में एकता ही है। दोनों निष्ठाओं का फल एक ही है, अतएव यह कहना उचित ही है कि एक में पूर्णतया स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। गीता के तेरहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में भी भगवान ने दोनों को ही आत्मसाक्षात्कार के स्वतन्त्र साधन माना हैं।
- ↑ जैसे किसी मनुष्य को भारतवर्ष से अमेरिका को जाना है, तो वह यदि ठीक रास्ते से होकर यहाँ से पूर्व-ही-पूर्व दिशा में जाता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा और पश्चिम-ही-पश्चिम की ओर चलता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा। वैसे ही सांख्ययोग और कर्मयोग की साधनप्रणाली में परस्पर भेद होने पर भी जो मनुष्य किसी एक साधन में दृढ़तापूर्वक लगा रहता है, वह दोनों के ही एकमात्र परम लक्ष्य परमात्मा तक पहुँच ही जाता है।
- ↑ जो मुमुक्ष पुरुष यह मानता है कि ‘समस्त दृश्य-जगत स्वप्न के सदृश मिथ्या है, एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है; यह सारा प्रपञ्च माया से उसी ब्रह्म में अध्यारोपित है, वस्तुत: दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं;’ परंतु उसका अन्त:करण शुद्ध नहीं है, उसमें राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादि दोष वर्तमान हैं, वह यदि अन्त:करण की शुद्धि के लिये कर्मयोग का आचरण न करके केवल अपनी मान्यता के भरोसे पर ही सांख्ययोग के साधन में लगना चाहेगा तो उसे ‘सांख्यनिष्ठा’ सहज ही नहीं प्राप्त हो सकेगी।
- ↑ जो सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखते हुए आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके भगवदाज्ञानुसार समस्त कर्तव्यकर्मों का आचरण करता है और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नाम, गुण और प्रभावसहित श्रीभगवान के स्वरूप चिन्तन करता है, वह भक्तियुक्त कर्मयोग का साधक मुनि भगवान की दया से परमार्थज्ञान के द्वारा शीघ्र ही परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
- ↑ मन और इन्द्रियां यदि साधक के वश में न हो तो उनकी स्वाभाविक ही विषयों में प्रवृत्ति होती है और अन्त:करण में जब तक राग-द्वेषादि मल रहता है, तब तक सिद्धि और असिद्धि में समभाव रहना कठिन होता है। अतएव जब तक मन और इन्द्रियां भलीभाँति वश में न हो जायं और अन्त:करण पूर्णरूप से परिशुद्ध न हो जाय, तब तक साधक को वास्तविक कर्मयोगी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये यह कहा गया है कि जिसमें ये सब बातें हों वही पूर्ण कर्मयोगी है और उसी को शीघ्र ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
- ↑ सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्च क्षणभंगुर और अनित्य होने के कारण मृगतृष्णा के जल या स्वप्न के संसार की भाँति मायामय है, केवल एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही सत्य है; उसी में यह सारा प्रपञ्च माया से अध्यारोपित है- इस प्रकार नित्यानित्य वस्तु के तत्त्व को समझकर जो पुरुष निरन्तर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में अभिन्नभाव से स्थित रहता है, वही तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी है।
- ↑ जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य समझता है कि स्वप्नकाल में स्वप्न के शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों द्वारा मुझे जिन क्रियाओं के होने की प्रतीति होती थी, वास्तव में न तो वे क्रियाएं होती थीं और न मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध ही था; वैसे ही तत्त्व को समझकर निर्विकार अक्रिय परमात्मा में अभिन्नभाव से स्थित रहने वाले सांख्ययोगी को भी ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण और मन आदि के द्वारा लोकदृष्टि से की जाने वाली देखने-सुनने आदि की समस्त क्रियाओं को करते समय यही समझना चाहिये कि ये सब मायामय मन,प्राण और इन्द्रिय ही अपने-अपने मायामय विषयों में विचर रहे हैं। वास्तव में न तो कुछ हो रहा है और न मेरा इनसे कुछ सम्बन्ध ही है।
- ↑ ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रमानुकूल अर्थोपार्जनसम्बन्धी और खान-पानादि शरीर निर्वाह सम्बन्धी जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं, उन सबको ममता का सर्वथा त्याग करके, सब कुछ भगवान का समझकर, उन्हीं के लिये उन्हीं की आज्ञा और इच्छा के अनुसार, जैसे वे करावें वैसे ही, कठपुतली की भाँति करना- परमात्मा में सब कर्मों का अर्पण करना है।
- ↑ कर्मप्रधान कर्मयोगी मन, बुद्धि, शरीर और इन्द्रियों में ममता नहीं रखते और लौकिक स्वार्थ से सर्वथा रहित होकर निष्कामभाव से ही समस्त कर्तव्यधर्म करते रहते हैं।
- ↑ सकामभाव से किये हुए कर्मों के फलस्वरूप बार-बार देव-मनुष्यादि योनियों में भटकना ही बन्धन है।
- ↑ स्वरूप से सब कर्मों का त्याग कर देने पर मनुष्य की शरीर यात्रा भी नहीं चल सकती। इसलिये मन से विवेकबुद्धि के द्वारा कर्तृव्य-कारयितृत्त्व का त्याग करना ही सांख्ययोगी का त्याग है।
- ↑ मनुष्यों का जो कर्मों में कर्तापन है, वह भगवान का बनाया हुआ नहीं है। अज्ञानी मनुष्य अहंकार के वश में होकर अपने को उनका कर्ता मान लेते हैं। (गीता 3:27) मनुष्यों के कर्मों की रचना भगवान नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि अमुक शुभ या अशुभ कर्म अमुक मनुष्य को करना पड़ेगा, ऐसी रचना भगवान नहीं करते; क्योंकि ऐसी रचना यदि भगवान कर दें तो विधि-निषेधशास्त्र ही व्यर्थ हो जाय- उसकी कोई सार्थकता ही नहीं रहे। कर्मफल के संयोग की रचना भी भगवान नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि कर्मों के साथ सम्बन्ध मनुष्यों का ही अज्ञानवश जोड़ा हुआ है। कोई तो आसक्ति वश उनका कर्ता बनकर और कोई कर्मफल में आसक्त होकर अपना सम्बन्ध कर्मों के साथ जोड़ लेते हैं। यदि इन तीनों की रचना भगवान की की हुई होती तो मनुष्य कर्मबन्धन से छूट ही नहीं सकता, उसके उद्धार का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। अत: साधक मनुष्य को चाहिये कि कर्मों का कर्तापन पूर्वोंक्त प्रकार से प्रकृत्ति के अर्पण करके (गीता 5।8,9) या भगवान के अर्पण करके (गीता 5:10) अथवा कर्मों के फल और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके (गीता 5:12) कर्मों से अपना सम्बन्धविच्छेद कर ले (गीता 4:20)। यही सब भाव दिखलाने के लिये यह कहा है कि परमेश्वर मनुष्यों के कर्तापन, कर्म और कर्मफल की रचना नहीं करते।
- ↑ इस कथन का यह अभिप्राय है कि सत्त्व, रज और तम तीनों गुण, राग-द्वेष आदि समस्त विकार, शुभाशुभ कर्म और उनके संस्कार, इन सबके रूप में परिणत हुई प्रकृत्ति अर्थात स्वभाव ही सब कुछ करता हैं। प्राकृत जीवों के साथ इसका अनादिसिद्ध संयोग है। इसी से उनमें कर्तृत्वभाव उत्पन्न हो रहा है अर्थात अहंकार से मोहित होकर वे अपने को उनका कर्ता मान लेते हैं (गीता 3:27) तथा इसी में कर्म और कर्मफल से भी उनका सम्बन्ध हो जाता है और वे उनके बन्धन में पड़ जाते हैं। वास्तव में आत्मा का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं।
- ↑ सबके हृदय में रहने वाले (गीता13।17;15।15;18।61) और सम्पूर्ण जगत का अपने संकल्प द्वारा संचालन करने वाले सर्वशक्तिमान सगुण निराकार परमेश्वर किसी के पुण्य-पापों का ग्रहण नहीं करते। यद्यपि समस्त कर्म उन्हीं की शक्ति से मनुष्यों द्वारा किये जाते हैं, सबको शक्ति, बुद्धि और इन्द्रियां आदि उनके कर्मानुसार वे ही प्रदान करते हैं; तथापि वे उनके द्वारा किये हुए कर्मों को ग्रहण नहीं करते अर्थात स्वयं उन कर्मों के फल के भागी नहीं बनते।
- ↑ यहाँ यह शंका होती है कि यदि वास्तव में मनुष्यों का या परमेश्वर का कर्मों से और उनके फल से सम्बन्ध नहीं है तो फिर संसार में जो मनुष्य यह समझते है कि ‘अमुक कर्म मैंने किया हैं’, ‘यह मेरा कर्म है’, ‘मुझे इसका फल मिलेगा’, यह क्या बात है? इसी शंका का निराकरण करने के लिये कहते हैं कि अनादिसिद्ध अज्ञान द्वारा सब जीवों का यथार्थ ज्ञान ढका हुआ है। इसीलिये वे अपने और परमेश्वर के स्वरूप को तथा कर्म के तत्त्व को न जानने के कारण अपने में और ईश्वर में कर्ता, कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध की कल्पना करके मोहित हो रहे हैं।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 8-15
- ↑ जिस प्रकार सूर्य अंधकार का सर्वथा नाश करके दृश्यमात्र को प्रकाशित कर देता है, वैसे ही यथार्थ ज्ञान भी अज्ञान का सर्वथा नाश करके परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँति प्रकाशित कर देता है। जिनको यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वे कभी, किसी भी अवस्था में मोहित नहीं होते।
- ↑ सांख्ययोग (ज्ञानयोग) का अभ्यास करने वाले को चाहिये कि आचार्य और शास्त्र के उपदेश से सम्पूर्ण जगत को मायामय और एक सच्चिदानंदघन परमात्मा को ही सत्य वस्तु समझकर तथा सम्पूर्ण अनात्मवस्तुओं के चिंतन को सर्वथा छोड़कर, मन को परमात्मा के स्वरूप में निश्चल स्थित करने के लिये उनके आनंदमय स्वरूप का चिंतन करे। बार-बार आनंद की आवृत्ति करता हुआ ऐसी धारण करे कि पूर्णआनन्द, अपार आनन्द, शांत आनन्द, धन आनन्द, अचल आनन्द, ध्रुव आनन्द, नित्य आनन्द, बोधस्वरूप आनन्द, ज्ञानस्वरूप आनन्द , परम आनन्द, महान आनन्द, अनन्त आनन्द, सम आनन्द, अचिन्त्य आनन्द, चिन्मय आनन्द, एकमात्र आनन्द-ही-आनन्द परिपूर्ण है, आनन्द से भिन्न अन्य कोई वस्तु ही नहीं है- इस प्रकार निरंतर मनन करते-करते सच्चिदानंदघन परमात्मा में मन का अभिन्नभाव से निश्चल हो जाना मन का तद्रूप होना है।
- ↑ उपर्युक्त प्रकार से मन के तद्रूप हो जाने पर बुद्धि में सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप का प्रत्यक्ष के सदृश निश्चय हो जाता है, उस निश्चय के अनुसार निदिध्यासन (ध्यान) करते-करते जो बुद्धि की भिन्न सत्ता न रहकर उसका सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकाकार हो जाना है, वही बुद्धि का तद्रूप हो जाना है।
- ↑ मन-बुद्धि के परमात्मा में एकाकार हो जाने के बाद साधक की दृष्टि से आत्मा और परमात्मा के भेदभ्रम का नाश हो जाना एवं ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी का अभाव होकर केवलमात्र एक वस्तु सच्चिदानंदघन परमात्मा का ही रह जाना तन्निष्ठ होना अर्थात परमात्मा में एकीभाव से स्थित होना है।
- ↑ उपर्युक्त प्रकार से आत्मा और परमात्मा के भेदभ्रम का नाश हो जाने पर जब परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं रहती, तब मन, बुद्धि, प्राण आदि सब कुछ परमात्मरूप ही हो जाते हैं। इस प्रकार सच्चिदानंदघन परमात्मा के साक्षात अपरोक्षज्ञान द्वारा उनमें एकता प्राप्त कर लेना ही तत्परायण हो जाना है।
- ↑ उपर्युक्त प्रकार के साधन से प्राप्त यथार्थ ज्ञान के द्वारा जिनके मल, विक्षेप और आवरणरूप समस्त पाप भलीभाँति नष्ट हो गये हैं, जिनमें उन पापों का लेशमात्र भी नहीं रहा है, जो सर्वथा पापरहित हो गये हैं, वे ‘ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए पुरुष’ हैं।
- ↑ जिस पद को प्राप्त होकर योगी पुन: नहीं लौटते, जिसको सोलहवें श्लोक में ‘तत्परम्’ के नाम से कहा है, गीता में जिसका वर्णन कहीं ‘अक्षय सुख’, कहीं ‘निर्वाण ब्रह्म’, कहीं ‘उत्तम सुख’, कहीं ‘परम गति’, कहीं ‘परमधाम’, कहीं ‘अव्ययपद’ और कहीं ‘दिव्य परमपुरुष’ के नाम से आया है, उस यथार्थ ज्ञान के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होना ही अपुनरावृत्ति प्राप्त होना है।
- ↑ तत्त्वज्ञानी सिद्ध पुरुषों का विषम भाव सर्वथा नष्ट हो जाता है। उनकी दृष्टि में एक सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा से अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं रहती, इसलिये उनका सर्वत्र समभाव हो जाता है। इसी बात को समझाने के लिये मनुष्यों में उत्तम-से-उत्तम श्रेष्ठ ब्राह्मण, नीच-से-नीच चाण्डाल एवं पशुओं में उत्तम गौ, मध्यम हाथी और नीच-से-नीच कुत्ते का उदाहरण देकर उनके समत्व का दिग्दर्शन कराया गया है। इन पांचों प्राणियों के साथ व्यवहार में विषमता सभी को करनी पढ़ती है। जैसे गौ का दूध सभी पीते हैं, पर कुतिया का दुध कोई भी मनुष्य नहीं पीता। वैसे ही हाथी पर सवारी की जा सकती है, कुत्ते पर नहीं जा सकती। जो वस्तु शरीरनिर्वाहार्थ पशुओं के लिये उपयोगी होती हैं, वह मनुष्यों के लिये नहीं हो सकती। श्रेष्ठ ब्राह्मण के पूजन-सत्कारादि करने की शास्त्रों की आज्ञा है, चाण्डाल के नहीं। अत: इनका उदाहरण देकर भगवान ने यह बात समझायी है कि जिनमे व्यावहारिक विषमता अनिवार्य है, उनमें भी ज्ञानी पुरुषों का समभाव ही रहता है। कभी किसी भी कारण से कहीं भी उनमें विषमभाव नहीं होता। जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ और पैर आदि अंगों के साथ भी बर्ताव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि के सदृश भेद रखता है, जो काम मस्तक और मुख से लेता है, वह हाथ और पैरों से नहीं लेता; जो हाथ-पैरों का काम है, वह सिर से नहीं लेता और सब अंगों के आदर, मान एंव शौचादि में भी भेद रखता है, तथापि उनमें आत्मभाव-अपनापन समान होने के कारण वह सभी अंगों के सुख-दु:ख का अनुभव समानभाव से ही करता है और सारे शरीर में उसका प्रेम एक-सा ही रहता है, प्रेम और आत्मभाव की दृष्टि से कहीं विषमता नहीं रहती; वैसे ही तत्त्वज्ञानी महापुरुष की सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि हो जाने के कारण लोकदृष्टि से व्यवहार में यथायोग्य भेद रहने पर भी उसका आत्मभाव और प्रेम सर्वत्र सम रहता है।
- ↑ तत्त्वज्ञानी तीनों गुणों से अतीत हो जाता है। अत: उसके राग, द्वेष, मोह, ममता, अंहकार आदि समस्त अवगुणों का और विषमभाव का सर्वथा नाश होकर उसकी स्थिति समभाव में हो जाती है। समभाव ब्रह्म का ही स्वरूप है; इसलिये जिनका मन समभाव में स्थित है, वे ब्रह्म में ही स्थित है।
- ↑ जो पदार्थ मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के अनुकूल होता है, उसे लोग ‘प्रिय’ कहते हैं; उन अनकूल पदार्थों का संयोग होने पर हर्षित नहीं होता। इसी प्रकार जो पदार्थ मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के प्रतिकूल होता है, उसे लोग ‘अप्रिय’ कहते हैं; उन प्रतिकूल पदार्थों का संयोग होने पर भी वह उद्विग्न यानी दुखी नहीं होता।
- ↑ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि जो इन्द्रियों के विषय है, उनको ‘ब्राह्य-स्पर्श’ कहते हैं; जिस पुरुष ने विवेक के द्वारा अपने मन से उनकी आसक्ति को बिल्कुल नष्ट कर डाला है, जिसका समस्त भोगों में पूर्ण वैराग्य है और जिसकी उन सब में उपरति हो गयी है, वह पुरुष बाहर के विषयों में आसक्ति रहित अंत:करण वाला है।
- ↑ इन्द्रियों के भोगों को ही सुखरूप मानने वाले मनुष्य को यह ध्यान जनित सुख नहीं मिल सकता। बाहर के भोगों में वस्तुत: सुख है ही नहीं; सुख का केवल आभासमात्र है। उसकी अपेक्षा वैराग्य का सुख कहीं बढ़कर है और वैराग्यसुख की अपेक्षा भी उपरति का सुख तो बहुत ऊंचा है; परंतु परमात्मा के ध्यान में अटल स्थिति प्राप्त होने पर जो सुख प्राप्त होता है, वह जो इन सबसे बढ़कर है। ऐसे सुख को प्राप्त होना ही आत्मा में स्थित आनंद का पाना है।
- ↑ उपर्युक्त प्रकार से जो पुरुष इन्द्रियों के समस्त विषयों में आसक्तिरहित होकर उपरति को प्राप्त हो गया है तथा परमात्मा के ध्यान की अटल स्थिति से उत्पन्न महान सुख का अनुभव करता है, उसे परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्नभाव से स्थित कहते हैं।
- ↑ सदा एकरस रहने वाला परमानंद स्वरूप अविनाशी परमात्मा ही ‘अक्षय सुख’ है और नित्य-निरंतर ध्यान करते-करते उस परमात्मा को जो अभिन्नभाव से प्रत्यक्ष कर लेना है, यही उसका अनुभव करना है।
- ↑ जैसे पतंग अज्ञानवश परिणाम न सोचकर दीपक की लौ को सुख का कारण समझते हैं और उसे प्राप्त करने के लिये उड़-उड़कर उसकी ओर जाते तथा उसमें पड़कर भयानक ताप सहते और अपने को दग्ध कर डालते हैं, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य भोगों को सुख के कारण समझकर तथा उनमें आसक्त होकर उन्हें भोगने की चेष्टा करते हैं और परिणामी में महान दु:खों को प्राप्त होते हैं। विषयों को सुख के हेतु समझकर उन्हें भोगने से उनमें आसक्ति बढ़ती है, आसक्ति से काम-क्रोधादि अनर्थों की उत्पत्ति होती है और फिर उनसे भाँति-भाँति के दुर्गुण और दुराचार आ-आकर उन्हें चारों ओर से घेर लेते हैं। परिणाम यह होता है कि उनका जीवन पापमय हो जाता है और उसके फलस्वरूप उन्हें इस लोक और परलोक में नाना प्रकार के भयानक ताप और यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। विषयभोग के समय मनुष्य भ्रमवश जिन स्त्री-प्रसंगादि भोगों को सुख का कारण समझता है, वे ही परिणाम में उसके बल, वीर्य, आयु तथा मन, बुद्धि, प्राण और इन्द्रियों की शक्ति का क्षय करके और शास्त्रविरुद्ध होने पर तो परलोक में भीषण नरकयन्त्रणादि की प्राप्ति कराकर महान दु:ख के हेतु बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि अज्ञानी मनुष्य जब दूसरे के पास आने से अधिक भोग-सामग्री देखता है, तब उसके मन में ईर्ष्या की आग जल उठती है और वह उससे जलने लगता है। सुखरूप समझकर भोगे हुए विषय कहीं प्रारब्धवश नष्ट हो जाते हैं तो उनके संस्कार बार-बार उनकी स्मृति कराते हैं और मनुष्य उन्हें याद कर-करके शोकमग्न होता, रोता-बिलखता और पछताता है। इन सब बातों पर विचार करने से यही सिद्ध होता है कि विषयों के संयोग से प्राप्त होने वाले भोग वास्तव में सर्वथा दु:ख के ही कारण हैं, उनमें सुख का लेश भी नहीं है। अज्ञानवशभ्रम से ही वे सुखरूप प्रतीत होते हैं (गीता 18:38)।
- ↑ विषय-भोग वास्तव में अनित्य, क्षणभंगुर और दु:खरूप ही हैं, परंतु विवेकहीन अज्ञानी पुरुष इस बात को न जान-मानकर उसमें रमता है और भाँति-भाँति क्लेश भोगता है; किंतु बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनकी अनित्यता और क्षणभंगुरता पर विचार करता है तथा उन्हें काम-क्रोध, पाप-ताप आदि अनर्थों में हेतु समझता है और उनकी आसक्ति के त्याग को अक्षय सुख की प्राप्ति में कारण समझता है, इसलिये वह उनमें नहीं रमता।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 16-22
- ↑ इससे यह बतलाया गया है कि शरीर नाशवान है- इसका वियोग होना निश्चित है और यह भी पता नहीं कि यह किस क्षण में नष्ट हो जायगा; इसलिये मृत्युकाल उपस्थित होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये।
- ↑ (पुरुष के लिये) स्त्री, (स्त्री के लिये) पुरुष, (दोनों ही के लिये) पुत्र, धन, मकान या स्वार्गादि जो कुछ भी देखे-सुने हुए मन और इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें आसक्ति हो जाने के कारण उनको प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, उसका नाम ‘काम’ हैं और उसके कारण अन्त:करण में होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह काम से उत्पन्न होने वाला ‘वेग’ है। इसी प्रकार मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रतिकुल विषयों की प्राप्ति होने पर अथवा इष्ट-प्राप्ति की इच्छापूर्ति में बाधा उपस्थित होने पर उस स्थिति के कारणभूत पदार्थ या जीवों के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न होकर अन्त:करण में जो ‘उत्तेजना’ का भाव आता है, उसका नाम ‘क्रोध’ है और उस क्रोध के कारण होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह क्रोध से उत्पन्न होने वाला ‘वेग’ है। इन वेगों को शान्तिपूर्वक सहन करने की अर्थात इन्हें कार्यान्वित न होने देने की शक्ति प्राप्त कर लेना ही इनको सहन करने में समर्थ होना है।
- ↑ यहाँ ‘अन्त:’ शब्द सम्पूर्ण जगत के अन्त:स्थित परमात्मा का वाचक है, अन्त:करण का नहीं। इसका यह अभिप्राय है कि जो पुरुष बाह्य विषयभोगरूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँति अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता, किंतु इन सबके अन्त:स्थित परम आनन्दस्वरूप परमात्मा में ही ‘सुख’ मानता है, वही ‘अन्त:सुख’ अर्थात अन्तरात्मा में ही सुख वाला है।
- ↑ जो बाह्य विषय-भोगों में सत्ता और सुख-बुद्धि न रहने के कारण उनमें रमण नहीं करता, इन सबमें आसक्तिरहित होकर केवल परमात्मा में ही रमण करता है अर्थात परमानन्दस्वरूप परमात्मा का ही निरन्तर अभिन्नभाव से चिन्तन करता रहता है, वह ‘अन्तराराम’ अर्थात आत्मा में ही रमण करने वाला कहलाता है।
- ↑ परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है। (गीता 13:17) सम्पूर्ण जगत उसी के प्रकाश से प्रकाशित है। जो पुरुष निरन्तर अभिन्नभाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसी में स्थित रहता है, जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृश्य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है, वही ‘अन्तज्योति’ अर्थात आत्मा में ही ज्ञान वाला है।
- ↑ सांख्ययोग का साधन करने वाला योगी अहंकार, ममता और काम-क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरन्तर अभिन्नभाव से परमात्मा का चिन्तन करते-करते जब ब्रह्मरूप हो जाता है- उसका ब्रह्म के साथ किञ्चिन्मात्र भी भेद नहीं रहता, तब इस प्रकार की अन्तिम स्थिति को प्राप्त सांख्ययोगी ‘ब्रह्मरूप’ अर्थात सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त कहलाता है।
- ↑ ‘शान्त ब्रह्म (ब्रह्मनिर्वाण)’ सच्चिदानन्दघन, निर्गुण, निराकार, निर्विकल्प एवं शान्त परमात्मा का वाचक है और अभिन्नभाव से प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है। सांख्ययोगी की जिस अन्तिम अवस्था का ‘ब्रह्मभूत’ शब्द से निर्देश किया गया है, यह उसी का फल है। श्रुति में भी कहा है- ‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्यक उप. 4।4।6) अर्थात ‘वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है।’ इसी को परम शान्ति की प्राप्ति, अक्षय सुख की प्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति, मोक्षप्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं।
- ↑ इस जन्म और जन्मांतर में किये हुए कर्मों के संस्कार, राग-द्वेषादि दोष तथा उनकी वृत्तियों के पञ्ज, जो मनुष्य के अंत:करण में इकट्ठे रहते हैं, बंधन में हेतु होने के कारण सभी कल्मष-पाप हैं। परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर इन सब का नाश हो जाता है। फिर उस पुरुष के अंत:करण में दोष का लेशमात्र भी नहीं रहता।
- ↑ यहाँ ‘कामक्रोधवियुक्तानाम्’ से मल दोष का, ‘यतचेतसाम्’, से विक्षेपदोष का और ‘विदितात्मनाम्’ से आवरण-दोष का सर्वथा अभाव दिखलाकर परमात्मा के पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति बतलायी गयी है। इसलिये ‘यति’ शब्द का अर्थ यहाँ सांख्ययोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त आत्मसंयमी तत्त्वज्ञानी मानना उचित है। परमात्म को प्राप्त ज्ञानीमहापुरुषों के अनुभव में ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर, यहां-वहां, सर्वत्र नित्य-निरंतर एक विज्ञानानंदधन परब्रह्म परमात्मा ही विद्यमान हैं- एक अद्वितीय परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ की सत्ता ही नहीं है, इसी अभिप्राय से कहा गया है कि उनके लिये सभी ओर से परमात्मा ही परिपूर्ण है।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 23-26
- ↑ विवेक और वैराग्य के बल से सम्पूर्ण बाह्यविषयों को क्षणभंगुर, अनित्य, दु:खमय और दु:खों के कारण समझकर उनके संस्कार रूप समस्त चित्रों के अंत:करण से निकाल देना-उनकी स्मृति को सर्वथा नष्ट कर देना ही बाहर के विषयों को बाहर निकाल देना है।
- ↑ नेत्रों के द्वारा चारों ओर देखते रहने से तो ध्यान में स्वाभाविक ही विघ्न-विक्षेप होता है उन्हें बंद कर लेने से आलस्य और निद्रा के वश हो जाने का भय है। इसीलिये नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करने को कहा गया है।
- ↑ प्राण और अपान की स्वाभाविक गति विषम है। कभी तो वे वाम नासिका में विचरते हैं और कभी दक्षिण नासिका में। वाम में चलने में इडानाडी में चलना और दक्षिण में चलने को पिंगला में चलना कहते हैं। ऐसी अवस्था में मनुष्य का चित्त चञ्चज रहता है। इस प्रकार विषमभाव से विचरने वाले प्राण और अपान की गति को दोनों नासिकाओं में समानभाव से कर देना उनको सम करना है। यही उनका सुषुम्णा में चलना है। सुषुम्णा नाडी पर चलते समय प्राण और अपान की गति बहुत ही सूक्ष्म और शांत रहती है। तब मन की चञ्चलता और अशांति अपने-आप ही नष्ट हो जाती है और वह सहज ही परमात्मा के ध्यान में लग जाता है।
- ↑ इन्द्रियां चाहे जब, चाहे जिस विषय में स्वच्छंद चली जाती हैं, मन सदा चंचल रहता है और अपनी आदत को छोड़ना ही नहीं चाहता, एवं बुद्धि एक परम निश्चयअटल नहीं रहती- यही इनका स्वतंत्र या उच्छृंखल हो जाना है। विवेक और वैराग्यपूर्वक अभ्यास द्वारा इन्हें सुश्रृंखल, आज्ञाकारी और अंतर्मुखी या भगवन्निष्ठ बना लेना ही इनको जीतना है।
- ↑ ’मुनि’ मननशील को कहते हैं, जो पुरुष ध्यान-काल की भाँति व्यवहार काल में भी परमात्मा की सर्वव्यापकता का दृढ़ निश्चय होने के कारण सदा परमात्मा का ही मन करता रहता है, वही ‘मुनि’ है।
- ↑ जो महापुरुष उपर्युक्त साधनों द्वारा इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह ध्यान काल में या व्यवहार काल में, शरीर रहते या शरीर छूट जाने पर, सभी अवस्थाओं में सदा मुक्त ही है-संसारबंधन से सदा के लिये सर्वथा छूटकर परमात्मा को प्राप्त हो चुका है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
- ↑ अंहिसा, सत्य आदि धर्मों का पालन, देवता, ब्राह्मण, माता-पिता आदि गुरुजनों का सेवन-पूजन, दीन-दुखी, गरीब और पीड़ित जीवों की स्नेह और आदरयुक्त सेवा और उनके दु:खनाश के लिये जाने वाले उपर्युक्त साधन एवं यज्ञ, दान आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, सभी का समावेश ‘यज्ञ’ और ‘तप’ शब्दों में समझना चाहिये। भगवान सब के आत्मा हैं (गीता 10:20), अतएव देवता, ब्राह्मण, दीन-दुखी आदि के रूप में स्थित होकर भगवान ही समस्त सेवा-पूजादि ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये वे ही समस्त यज्ञ और तपों के भोक्ता हैं। (गीता 9:24) इस प्रकार समझना ही भगवान को ‘यज्ञ और तपों का भोगने वाला’ समझना है।
- ↑ इन्द्र, वरुण, कुबेर, यमराज आदि जितने भी लोकपाल हैं तथा विभिन्न ब्रह्माण्डों में अपने-अपने ब्रह्मण्ड का नियन्त्रण करने वाले जितने भी ईश्वर हैं, भगवान उन सभी के स्वामी और महान ईश्वर हैं। इसी से श्रुति में कहा है- ‘तमीश्वराणं परमं महेश्वरम्’ ‘उन ईश्वरों के भी परम महेश्वर को’ (श्वेताश्वतर उप० 6।7)। अपनी अनिर्वचनीय माया-शक्ति द्वारा भगवान अपनी लीला से ही सम्पूर्ण अनंतकोटि ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हुए सबको यथायोग्य नियन्त्रण में रखते हैं और ऐसा करते हुए भी वे सबसे ऊपर ही रहते हैं। इस प्रकार भगवान को सर्वशक्तिमान, सर्वनियंता, सर्वाध्याक्ष और सर्वेश्वरेश्वर समझना ही उन्हें ‘सर्वलोकमहेश्वर’ समझना है।
- ↑ भगवान स्वाभाविक ही सब पर अनुग्रह करके सबके हित की व्यवस्था करते हैं और बार-बार अवतीर्ण होकर नाना प्रकार के ऐसे विचित्र चरित्र करते हैं, जिन्हें गा-गाकर ही लोग तर जाते हैं। उनकी प्रत्येक क्रिया में जगत का हित भरा रहता है। भगवान जिनको मारते या दण्ड देते हैं, उन पर भी दया ही करते हैं, उनका कोई भी विधान दया और प्रेम से रहित नहीं होता। इसीलिये भगवान सब भूतों के सुहृद हैं।
- ↑ जो पुरुष इस बात को जान लेता है और विश्वास कर लेता है कि ‘भगवान मेरे अहैतुम प्रेमी हैं, वे जो कुछ भी करते हैं, मेरे मंगल के लिये ही करते हैं’, वह प्रत्येक अवस्था में जो कुछ भी होता है, उसको दयामय परमेश्वर का प्रेम और दया से ओतप्रोत मंगलविधान समझकर सदा ही प्रसन्न रहता है। इसलिये उसे अटल शांति मिल जाती है। उसकी शांति में किसी प्रकर की बाधा उपस्थित होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 27-29
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| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
| भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध
| दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध
| घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन
| भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान
| भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध
| इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध
| अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध
| युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा
| दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध
| भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा
| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
| उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध
| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
| अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन
| अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध
| अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय
| अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध
| कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध
| द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध
| भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार
| कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| रक्तमयी रणनदी का वर्णन
| अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय
| सात्यकि और भीष्म का युद्ध
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश
| शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय
| युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध
| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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