फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण द्वारा फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन करना

सम्बन्ध- इस अध्याय के चौथे से बारहवें श्लोक तक भगवान ने अपने मत के अनुसार त्याग के लक्षण बतलाये। तदनन्तर तेरहवें से सत्रहवें श्लोक तक संन्यास (सांख्य) के स्वरूप का निरूपण करके संन्यास में सहायक सत्त्वगुण का ग्रहण और उसके विरोधी रज एवं तम का त्याग कराने के उद्देश्य से अठारहवें से चालीसवें श्लोक तक गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों के भेद समझाये और अंत में समस्त सृष्टि को गुणों से युक्त बतलाकर उस विषय का उपसंहार किया। वहाँ त्याग का स्वरूप बतलाते समय भगवान ने यह बात कही थी कि नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है[2] अपितु नियत कर्मों की आसक्ति और फल के त्यागपूर्वक करते रहना ही वास्तविक त्याग है[3], किंतु वहाँ यह बात नहीं बतलायी कि किसके लिये कौन-सा कर्म नियत है। अतएव अब संक्षेप में नियत कर्मों का स्वरूप, त्याग के नाम से वर्णित कर्म-योग में भक्ति का सहयोग और उसका फल परम सिद्धि की प्राप्ति बतलाने के लिये पुनः उसी त्यागरूप कर्मयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं।[1] हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के[4] कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं।[5] अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।[6][7]

शूरवीरता,[8] तेज,[9] धैर्य,[10] चतुरता[11] और युद्ध में न भागना,[12] दान देना और स्वाभिामान[13]- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।[14] खेती,[15] गोपालन[16] और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार[17] ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना[18] शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। सम्बन्ध-इस प्रकार चारों वर्णों के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके अब भक्तियुक्त कर्मयोग का स्वरूप और फल बतलाने के लिये, उन कर्मों का किस प्रकार आचरण करने से मनुष्य अनायास परम सिद्धि प्राप्त कर लेता है- यह बात दो श्लोकों में बतलाते है- अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[19] अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन। जिस परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके[20] मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[21][7]

सम्बन्ध-पूर्वश्लोक में यह बात कही गयी कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करके परम सिद्धि को पा लेता है; इस पर यह शंका होती है कि यदि कोई क्षत्रिय अपने युद्धादि क्रुर कर्मों को न करके, ब्राह्मणों की भाँति अध्यापनादि शांतिमय कर्मों से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने की चेष्टा करे या इसी तरह कोई वैश्य या शूद्र अपने कर्मों को उच्च वर्णों के कर्मों से हीन समझकर उनका त्याग कर दे और अपने से ऊँचे वर्ण की वृति से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो उचित है या नहीं। इस पर दूसरे के धर्म की अपेक्षा स्वधर्म श्रेष्ट बतलाकर उसके त्याग निषेध करते हैं।[7]

अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से[22] गुणरहित भी अपना श्रर्मश्रेष्ठ हैं,[23] क्‍योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता।[24] अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को[25] नहीं त्यागना चाहिये, क्‍योंकि धूएं से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।[26] [27]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 36-40
  2. गीता 28:7
  3. गीता 28:9
  4. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों ही द्विज हैं। तीनों का ही यज्ञापवीतधारणपूर्वक वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार है; इसी हेतु से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीनों को सम्मिलित करके कहा गया है। शुद्र द्विज नहीं है, अतएव उनका यज्ञोपवीतधारण में तथा वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार नहीं है- यह भाव दिखलाने के लिये उनको इस तीनों से अलग कहा गया है।
  5. प्राणियों के जन्म-जन्मान्तरों के किये हुए कर्मों के जो संस्कार हैं, उनका नाम स्वभाव है; उस स्वभाव के अनुरूप प्राणियों के अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाली सत्त्व, रज और तम- इन गुणवृत्तियों के अनुसार ही ब्राह्मण आदि वर्णों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं; इस कारण उन गुणों की अपेक्षा से ही शास्त्र में चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया जाता है। जिसके स्वभाव में केवल सत्त्वगुण अधिक होता है, वह ब्राह्मण होता है; इस कारण उसके स्वभाविक कर्म शम-दमादि बतलाये गये हैं। जिसके स्वभाव में सत्त्वमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, यह क्षत्रिय होता है; इस कारण उसके स्वाभाविक कर्म शूरवीरता, तेज आदि बतलाये गये हैं। जिसके स्वभाव में तमोमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, वह वैश्य होता है; इसलिये उसके स्वभाविक कर्म, कृषि, गोरक्षा आदि बतलाये गये हैं और जिसके स्वभाव में रजोमिश्रित तमोगुण प्रधान होता है, यह शुद्र होता है; इस कारण उसका स्वभाविक कर्म तीनों वणों की सेवा करना बतलाया गया है। इस प्रकार गुण और कर्म के विभाग से ही वर्ण-विभाग बनता है, परन्‍तु इसका यह अर्थ नहीं कि मनमाने कर्म से वर्ण बदल जाता है। वर्ण का मूल जन्म है और कर्म उसके स्वरूप की रक्षा में प्रधान कारण है। इस प्रकार जन्म और कर्म दोनों ही वर्ण में आवश्यक हैं। केवल कर्म से वर्ण को मानने वाले वस्तुतः वर्ण को मानते ही नहीं। वर्ण यदि कर्म पर ही माना जाय तब तो एक दिन में एक ही मनुष्य को न मालूम कितनी बार वर्ण बदलना पड़ेगा। फिर तो समाज में कोई श्रृंखला या नियम ही न रहेगा; सर्वथा अव्यवस्था फेल हो जायगी, परन्तु भारतीय वर्णधर्म में ऐसी बात नहीं है।
  6. ब्राह्मण में केवल सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, इस कारण उपर्युक्त कर्मों में उसकी स्वाभाविक प्रवृति होती है। उसका स्वभाव उपर्युक्त कर्मों के अनुकुल होता है, इस कारण उपर्युक्त कर्मों के करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता नहीं होती। इन कर्मों में बहुत-से सामान्य धर्मों का भी वर्णन है। इससे यह समझना चाहिये कि क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों के वे स्वाभाविक कर्म तो नहीं है; परन्तु परमात्मा की प्राप्ति में सबका अधिकार है, अतएव उनके लिये वे प्रयत्नसाध्य है।
  7. 7.0 7.1 7.2 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 41-46
  8. बडे़-से-बड़े बलवान शत्रु का न्याययुक्त सामना करने में भय न करना तथा न्याययुक्त युद्ध करने के लिये सदा ही उत्साहित रहना और युद्ध के समय साहसपूर्वक गम्भीरता से लड़ते रहना ‘शूरवीरता’ है। भीष्मपितामह का जीवन इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
  9. जिस शक्ति के प्रभाव से मनुष्य दूसरों का दबाव मानकर किसी भी कर्तव्य पालन से कभी विमुख नहीं होता और दूसरे लोग न्याय के और उसके प्रतिकूल व्यवहार करने में डरते रहते है, उस शक्तिमान का नाम ‘तेज’ है। इसी को प्रताप और प्रभाव भी कहते हैं।
  10. बडे़-से-बड़ा संकट उपस्थित हो जाने पर-युद्धस्थल में शरीर पर भारी-से-भारी चोट लग जाने पर, अपने पुत्र पौत्रादि के मर जाने पर, सर्वस्व का नाश हो जाने पर या इसी तरह अन्य किसी प्रकार की भारी से भारी विपत्ति आ पड़ने पर भी व्याकुल न होना और अपने कर्तव्यपालन से कभी विचलित न होकर न्यायानुकूल कर्तव्यपालन में सलग्न रहना- इसी का नाम ‘धैर्य’ है।
  11. परस्पर झगड़ा करने वालों का न्याय करने में, अपने कर्तव्य का निर्णय और पालन करने में, युद्ध करने में तथा मित्र, वैरी और मध्यस्थों के साथ यथायोग्य व्यवहार करने आदि में जो कुशलता है, उसी का नाम ‘चतुरता’ है।
  12. युद्ध करते समय भारी-से-भारी संकट आ पड़ने पर भी पीठ न दिखलाना, हर हालत में न्यायपूर्वक सामना करके अपनी शक्ति का प्रयोग करते रहना और प्राणों की परवाह न करके युद्ध में डटे रहना ही ‘युद्ध में न भागना’ है। इसी धर्म को ध्यान में रखते हुए वीर बालक अभिमन्यु ने छः महारथियों से अकेले युद्ध करके प्राण दे दिये, किंतु शस्त्र नहीं छोड़े। (महा द्रोण 49/22)
  13. शासन द्वारा लोगों को अन्यायाचरण से रोककर सदाचार में प्रवृत करना, दुराचारियों को दण्ड देना, लोगों से अपनी आज्ञा का न्याययुक्त पालन करवाना तथा समस्त प्रजा का हित सोचकर निःस्वार्थभाव से प्रेमपूर्वक पुत्र की भाँति उसकी रक्षा और पालन-पोषण करना-‘स्वाभिमान’ है।
  14. उपर्युक्त कर्मों में क्षत्रियों की स्वाभाविक प्रवृति होती है, इसका पालन करने में उन्‍हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। इन कर्मों में भी जो धृति, दान आदि सामान्य धर्म है, उसमें सबका अधिकार होने के कारण वे अन्य वर्ण वालों के लिये अधर्म या परधर्म नहीं है; किंतु वे उनके स्वाभाविक कर्म नहीं हैं। इसी कारण वे उनके लिये प्रयत्नसाध्य है।
  15. जमीन में चीज बोकर गेहुँ, जो, चने, मूंग, धान, मक्की, उड़द, हल्दी, धनियां आदि समस्त खाद्य पदार्थों को, कपास और नाना प्रकार की औषधियों को और इसी प्रकार देवता, मनुष्य और पशु आदि के उपयोग में आने वाली अन्य पवित्र वस्तुओं को न्यायानुकूल उत्पन्न करने का नाम ‘कृषि’ यानी खेती करना है।
  16. नन्द आदि गोपी की भाँति गौओं को अपने घर में रखना; उनको जंगल में चराना, घर में भी यथावश्यक चारा देना, जल पिलाना और व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से उनको बचाना; उनसे दूध, दही, घृत आदि पदार्थों को उत्पन्न करके उन पदार्थों से लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना और उसके परिर्वतन में प्राप्त धन से अपनी गृहस्थी के सहित उन गौओं का भलीभाँति न्यायपूर्वक निर्वाह करना ‘गौरक्ष्यम्’ यानी गोपालन है। पशुओं में ‘गौ’ प्रधान है तथा मनुष्यमात्र के लिये सबसे अधिक उपकारी पशु भी ‘गौ’ ही है; इसलिये भगवान ने यहाँ ‘पशुपालनम्’ पद का प्रयोग न करके उसके बदले में ‘गौरक्ष्यम्’ पद का प्रयोग किया है। अतएव यह समझना चाहिये कि मनुष्य के उपयोगी भैंस, ऊँट, घोडे़, और हाथी आदि अन्यान्य पशुओं का पालन करना भी वैश्यों का कर्म है; अवश्य ही गौपालन उन सबकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।
  17. मनुष्‍यों के और देवता, पशु, पक्षी आदि अन्य समस्त प्राणियों के उपयोग में आने वाली समस्त पवित्र वस्तुओं को धर्मानुकूल खरीदना और बेचना तथा आवश्यकतानुसार उनको एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचाकर लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना ‘वाणिज्य’ यानी क्रय विक्रय रूप व्यवहार है। वाणिज्य करते समय वस्तुओं के खरीदने-बेचने में तौल-नाप और गिनती आदि से कम दे देना या अधिक ले लेना। वस्तु को बदल कर या एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर अच्छी के बदले खराब दे देना या खराब के बदले अच्छी ले लेना; नफा, आढ़त और दलाली आदि ठहराकर उससे अधिक लेना या कम देना; इसी तरह किसी भी व्यापार में झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती का या अन्य किसी प्रकार के अन्याय-का प्रयोग करके दूसरों के स्वत्व को हड़प लेना- ये सब वाणिज्य के दोष हैं। इन सब दोषों से रहित जो सत्य और न्याययुक्त पवित्र वस्तुओं का खरीदना और बेचना है, वही क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार है। तुलाधार ने इस व्यवहार से ही सिद्धि प्राप्त की थी (महाभारत शांतिपर्व)
  18. उपर्युक्त द्विजाति वर्णों की अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की दासवृति से रहना; उसकी आज्ञाओं का पालन करना; घर में जल भर देना, स्नान करा देना, उनके जीवन-निर्वाह के कार्यो में सुविधा कर लेना, दैनिक कार्य में यथायोग्य सहायता करना, उनके पशुओं का पालन करना, उनकी वस्तुओं को सम्हालकर रखना, कपड़े साफ करना, क्षौरकर्म करना, आदि जितने भी सेवा के कार्य हैं, उन सब को करके उनको सन्तुष्ट रखना; अथवा सबके काम में आने वाली वस्तुओं को कारीगरी के द्वारा तैयार करके उन वस्तुओं से उनकी सेवा करके अपनी जीविका चलाना- ये सब ‘परिचर्यात्मक’ यानी सब वर्णों की सेवा करना रूप कर्म के अन्‍तर्गत हैं।
  19. समाज-शरीर मस्तिष्क ब्राह्मण है, बाहु क्षत्रिय है, ऊरू वैश्य है और चरण शुद्र है। चारों एक ही समाज शरीर के चार आवश्यक अंग है और एक-दूसरे की सहायता पर सुरक्षित और जीवित है। घृणा या अपमान की तो बात ही क्या है, इनमें से किसी की तनिक भी अवहेलना नहीं की जा सकती। न इसमें ऊँच-नीच की कल्पना है। अपने-अपने स्थान और कार्य के अनुसार चारों ही बड़े है। ब्राह्मण ज्ञानबल से, क्षत्रिय बाहुबल से, वैश्य धनबल से और शुद्र जनबल या श्रमबल से बड़ा है और चारों की ही पूर्ण उपयोगिता है। एक ही घर के चार भाईयों की तरह एक ही घर की सम्मिलित उन्नति के लिये चारों भाई प्रसन्नता और योग्यता के अनुसार बांटे हुए अपने अपने पृथक-पृथक आवश्यक कर्तव्यपालन में लगे रहते थे। ये चारों वर्ण परस्पर-ब्राह्मण धर्म स्थापना के द्वारा, क्षत्रिय बाहुबल के द्वारा, वैश्य धन बल के द्वारा और शुद्ध शारीरिक श्रम बल के द्वारा एक दूसरे का हित करते हुए, समाज की शक्ति बढ़ाते हुए परम सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
  20. भगवान इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सबके प्रेरक, सबके आत्मा, सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी हैं; यह सारा जगत उन्‍हीं की रचना है और वे स्वयं ही अपनी योगमाया से जगत के रूप में प्रकट हुए हैं अतएव यह सम्‍पूर्ण जगत भगवान का है; मेरे शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा मेरे द्वारा जो कुछ भी यज्ञ, दान आदि स्ववर्णोचित कर्म किये जाते है- वे सब भी भगवान हैं और मैं स्वयं भी भगवान ही हूं; समस्त देवताओं के एवं अन्य प्राणियों के आत्मा होने के कारण वे ही समस्त कर्मों के भोक्ता हैं। (गीता 5:29)- परम श्रद्धा और विश्वास के साथ इस प्रकार समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का सर्वथा त्याग करके भगवान की आज्ञानुसार उन्‍हीं की प्रसन्नता के लिये अपना कर्तव्य पालन करते हुए अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा समस्त जगत की सेवा करना- समस्‍त प्राणियों को सुख पहुँचाना ही अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करना है।
  21. प्रत्येक मनुष्य, चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रम में स्थित हो, अपने कर्मों से भगवान की पूजा करके परम सिद्धिरूप परमात्मा को प्राप्त कर सकता है; परमात्मा को प्राप्त करने में सबका समान अधिकार है। अपने श्रम दम आदि कर्मों को उपर्युक्त प्रकार से भगवान के सर्मपण करके उनके द्वारा भगवान की पूजा करने वाला ब्राह्मण जिस पद को प्राप्त होता है, अपने शूरवीरता आदि कर्मों के द्वारा भगवान की पूजा करने वाला वैश्य तथा अपने सेवा सम्बन्धी कर्मों द्वारा भगवान की पूजा करने वाला शूद्र भी उसी परमपद को प्राप्त होता है। अतएव कर्मबन्धन से छूटकर परमात्मा को प्राप्त करने का एक बहुत ही सुगम मार्ग है। इसलिये मनुष्य को उपयुक्त भाव से अपने कर्तव्यपालन द्वारा परमेश्‍वर की पूजा करने का अभ्यास करना चाहिये।
  22. जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किंतु वे अनुष्ठान करने वाले के लिये विहित न हों, दूसरों के लिये ही विहित हो- ऐसे भलीभाँति आचरित कर्मों की अपेक्षा अर्थात जैसे वैश्य और क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सद्गुणों की अधिकता है, गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास आश्रम के धर्मों में सद्गुणों की बहुलता है, इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्य और क्षत्रिय कर्म गुणयुक्त है, ऐसे परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है भाव यह है कि जैसे देखने में कुरूप और गुणरहित होने पर भी स्त्री के लिये अपने ही पति का सेवन करना कल्याणप्रद है, उसी प्रकार देखने में गुणों से हीन होने पर भी तथा उसके अनुष्ठान में अंगवैगुण्य हो जाने पर भी जिसके जिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्याणप्रद है
  23. क्षत्रिय का स्वधर्म युद्ध करना और दुष्टों को दण्ड देना आदि है; उसमें अहिंसा और शांति आदि गुणों की कमी मालूम होती है। इसी तरह वैश्य के ‘कृषि’ आदि कर्मों में भी हिंसा आदि दोषों की बहुलता है, इस कारण ब्राह्मण के शांतिमय कर्मों की अपेक्षा वे भी विगुण यानी गुणहीन है एवं शूद्रों के कर्म वैश्यों और क्षत्रियों की अपेक्षा भी निम्न श्रेणी के हैं। इसके सिवा उन कर्मों के पालन में किसी अंग का छूट जाना भी गुण की कमी हैं। उपर्युक्त प्रकार से स्वधर्म में गुणों की रहने पर भी वह गुणयुक्त परधर्म अपेक्षा श्रेष्ट हैं।
  24. दूसरे का धर्म पालन करने से उसमें हिंसादि दोष कम होने पर भी परवृत्तिच्छेदन आदि पाप लगते है; किंतु अपने स्वाभाविक कर्मों का न्यायपूर्वक आचरण करते समय उनमें जो आनुषंगिक हिंसादि पाप बन जाते है, वे उसको नहीं लगते।
  25. जो स्वाभाविक कर्म श्रेष्ठ गुणों से युक्त हो, उनका त्याग न करना चाहिये- इसमें तो कहना ही क्या है; पर जिनमें साधारणतः हिंसादि दोषों का मिश्रण दिखता हो, वे भी शास्त्रविहित एवं न्यायोचित होने के कारण दोषयुक्त दिखने पर भी वास्तव में दोषयुक्त नहीं हैं। इसलिये उन कर्मों का भी त्याग नहीं करना चाहिये।
  26. जिस प्रकार धूएं से अग्नि ओतप्रोत रहती है, धूआं अग्नि से सर्वथा अलग नहीं हो सकता- उसी प्रकार आरम्भ मात्र दोष से ओतप्रोत है, क्रियामात्र में किसी-न-किसी प्रकार से किसी-न-किसी अंश में प्राणियों की हिंसा हो जाती है।; क्‍योंकि संन्यास, आश्रम में भी शौच, स्नान और भिक्षाटनादि कर्म द्वारा किसी-न-किसी अंश में प्राणियों की हिंसा होती है और ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मों में भी आरम्भ की बहुलता होने से क्षुद्र प्राणियों की हिंसा होती है। इसलिये किसी भी वर्ण-आश्रम में कर्म साधारण दृष्टि से सर्वथा दोषरहित नहीं है। और कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता (गीता 3:5) इस कारण स्वधर्म का त्याग कर देने पर भी कुछ-न-कुछ कर्म तो मनुष्य को करना ही पड़ेगा तथा वह तो कुछ करेगा, वही दोषयुक्त होगा। इसलिये अमुक कर्म नीचा है या दोषयुक्त है- ऐसा समझकर मनुष्य को स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; बल्कि उसमें ममता, आसक्ति और फलेच्छारूप दोषों का त्याग करके उनका न्याययुक्त आचरण करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध होकर उसे शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
  27. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 47-53

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भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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