उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

कृष्ण द्वारा उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन करना

सम्बन्ध- भगवान ने तेरहवें से चालीसवें श्लोक तक संन्यास यानी सांख्य का निरूपण किया। फिर इकतालीसवें श्लोक से यहाँ तक कर्मयोग रूप त्याग का तत्त्व समझाने के लिये स्वाभाविक कर्मों का स्वरूप और उनकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश करके तथा कर्मयोग में भक्ति का सहयोग दिखलाकर उसका फल भगवत्प्राप्ति बतलाया; किंतु वहाँ संन्यास के प्रकरण यह बात नहीं कही गयी कि संन्यास का क्या फल होता है और कर्मों में कर्तापन का अभिमान त्याग कर उपासना के सहित सांख्ययोग का किस प्रकार साधन करना चाहिये। अतः यहाँ उपासना के सहित विवेक और वैराग्यपूर्वक एकान्त में रहकर साधन करने की विधि और उसका फल बतलाने के लिये पुनः सांख्ययोग प्रकरण आरम्भ करते हैं। सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरण वाला[2] पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्‍य सिद्धि प्राप्त होता है।[3] जो कि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उस नैष्‍कर्म्‍यसिद्धि को[4]जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्मा को प्राप्त होता है,[5] उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तु संक्षेप में ही मुझसे समझ।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त[6] तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला,[7] सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करके[8] मन, वाणी और शरीर वश में कर लेने वाला,[9] राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके[10] भलीभाँति दृढ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमण्‍ड, काम, क्रोध ओर परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहने वाला,[11] ममता रहित[12] और शांतियुक्त पुरुष[13] सच्चिदानन्‍दन ब्रह्मा में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है।[1] फिर वह सच्चिदानन्‍दन ब्रह्मा में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मन वाला योगी न तो किसी के लिये शोक करता है। और न किसी की आकांक्षा ही करता है।[14] ऐसा समस्त प्राणियों में सम्भाव वाला योगी मेरी परा भक्ति को[15] प्राप्त हो जाता है। उस परा भक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मै जो हुं और जितना हूँ ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है[16] तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।[17][18]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 47-53
  2. अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर में, उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में तथा समस्त भागों और चराचर प्राणियों के सहित समस्त जगत में जिसकी आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है; जिसके मन-बुद्धि की कहीं किंचिन्मात्र भी संलग्नता नहीं हो रही है- वह ‘सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला’ है जिसकी स्पृहा का सर्वथा अभाव हो गया है, जिसको किसी भी सांसारिक वस्तु की किंचिन्मात्र भी परवा नहीं रही है, उसे ‘स्पृहारहित’ कहते हैं। जो जिसका इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण अपने वश में किया हुआ है, उसे ‘जीते हुए अन्तःकरण वाला’ कहते हैं। जो उपर्युक्त तीनों गुणो से सम्पन्न होता है, वही मनुष्य सांख्ययोग के द्वारा परमात्मा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति कर सकता हैं।
  3. संन्यास-ज्ञानयोग यानी सांख्ययोग स्वरूप भगवान ने इक्यावनवें से तिरपनवें श्लोक तक बतलाया है इस साधक का फल जो कि कर्मबन्धन से सर्वथा छूटकर सच्चिदानन्दघन निर्विकार परमात्मा यथार्थ ज्ञान को प्राप्त हो जाना है, वही ‘परम नैष्‍कर्म्‍यसिद्धि’ है, जिसको संन्यास के द्वारा प्राप्त किया जाता है।
  4. जो ज्ञानयोग की अंतिम स्थिति है, जिसको पराभक्ति और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, जो समस्त साधनों की अवधि है, जो पूर्वश्लोक ‘नैष्‍कर्म्‍यसिद्धि’ के नाम से कही गयी है, वही यहाँ ‘सिद्धि’ के नाम तथा वही ‘परा निष्ठा’ के नाम से कही गयी हैं।
  5. नित्य-निर्विकार, निर्गुण-निराकार, सच्चिदानन्दघन, पूर्णब्रह्म परमात्मा का वाचक यहाँ ब्रह्म पद है और तत्त्वज्ञान के द्वारा पचपनवें श्लोक के वर्णनानुसार अभिन्नभाव से उसमें प्रविष्ट हो जाना ही उसको प्राप्त होना है।
  6. पूर्वार्जित पाप के संस्कारों से रहित अन्तःकरण वाला ही ‘विशुद्ध बुद्धि से युक्त’ कहलाता है।
  7. जहाँ का वायुमण्डल पवित्र हो, जहाँ बहुत लोगों का आना जाना न हो, जो स्वभाव से ही एकान्त और स्वच्छ हो या झाड़-बुहारकर और धोकर जिसे स्वच्छ बना लिया गया हो- ऐसे नदीतट, देवालय, वन और पहाड़ी की गुफा आदि स्थानों में निवास करना ही ‘एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करना’ है।
  8. इन्द्रियों और अन्तःकरण का समस्त विषयों से सम्बन्ध-विच्छेद कर देना ही उनका संयम करना है।
  9. मन, वाणी और शरीर में इच्छाचारिता का तथा बुद्धि के विचलित करने की शक्ति का अभाव कर देना ही उसको वश में कर लेना है।
  10. एक लोक या परलोक के किसी भी भोग में, किसी भी प्राणी तथा किसी भी पदार्थ, क्रिया अथवा घटना में किंचिन्मात्र भी आसक्ति या द्वेष न रहने देना ‘राग-द्वेष का सर्वथा नाश कर देना’ है।
  11. शरीर, इन्द्रियों और अन्तःकरण में जो आत्मबुद्धि है, जिसके कारण मनुष्य मन, बुद्धि और शरीर द्वारा किये जाने वाले कर्मों में अपने को कर्ता मान लेता है। उसका नाम ‘अहंकार’ है। धन, जन, विद्या, जाति और शारीरिक शक्ति आदि के कारण होने वाला जो गर्व उसका नाम ‘दर्प’ यानी घमण्‍ड है। इस लोक और परलोक के भोगों को प्राप्त करने की इच्छा का नाम ‘काम’ है। अपने मन में प्रतिकुल आचरण करने वाले पर और नितिविरुद्ध व्यवहार करने वाले पर जो अन्तःकरण उत्तेजना भाव उत्पन्न होता है- जिसके कारण मनुष्य के नेत्र लाल हो जाते हैं, होठ फटने लगते हैं, हृदय में जलन होने लगती है, और मुख विकृत हो जाता है- उनका नाम ‘क्रोध’ है। भोग्यबुद्ध से सांसारिक भोग-सामग्रियों के संग्रह का नाम ‘परिग्रह’ है। अतएव इस सब का त्याग करके पूवोक्त प्रकार से सात्त्विक धृति के द्वारा मन-इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर समस्त स्फुरणाओं का सर्वथा अभाव करके, नित्य-निरन्तर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मा का अभिन्नभाव से चिन्तन करना (गीता 6:25) तथा उठते-बैठते, सोते-जागते एवं शौच-स्नान, खान-पान आदि आवश्यक क्रिया करते समय भी नित्य-निरन्तर परमात्मा के स्वरूव का चिन्तन करते रहना एवं उसी को सबसे बढ़कर परम कर्तव्य समझना ‘ध्यानयोग परायण रहना’ है।
  12. मन और इन्द्रियों के सहित शरीर में समस्त प्राणियों में, कर्मों में, समस्त भोगों में एवं जाति, कुल, देश, वर्ण और आश्रम में ममता का सर्वथा त्याग कर देना ही ‘ममता से रहित होना’ है।
  13. जिसके अन्तःकरण में विक्षेप का सर्वथा अभाव हो गया है और जिसका अन्तःकरण अटल शांति और शुद्ध सात्त्विक प्रसन्नता से व्याप्त रहता है, वह उपरत पुरुष ‘शांतियुक्त’ कहा जाता है।
  14. ब्रह्माभूत योगी की सर्वत्र ब्रह्माबुद्धि हो जाने के कारण संसार की किसी भी वस्तु में उसकी भिन्न सत्ता, रमणीय-बुद्धि और ममता नहीं रहती। अतएव शरीरादि के साथ किसी का संयोग-वियोग होने में उसका कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं; इस कारण वह किसी भी हालत में किसी भी कारण से किंचिन्मात्र भी चिंता या शोक नहीं करता और वह पूर्णकाम हो जाता है, इसलिये वह कुछ भी नहीं चाहता।
  15. जो ज्ञानयोग का फल है, जिसको ज्ञान की निष्ठा और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, उसी को ‘परा भक्ति’ कहा है।
  16. इस प्रकार भक्तिरूप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने से साथ ही वह योगी उस तत्त्वज्ञान के द्वारा मेरे यथार्थ रूप को जान लेता है; मेरा निर्गुण-निराकार रूप क्या है तथा सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूप क्या है, मैं निराकार से साकार कैसे होता हूँ और पुनः साकार से निराकार कैसे होता हूं- इत्यादि कुछ भी जानना उसके लिये शेष नहीं रहता।
  17. परमात्मा के तत्त्व ज्ञान और उनको प्राप्ति में अंतर यानी व्यवधान नहीं होता, परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ जानना और उनमें प्रविष्ट होना-दोनों एक साथ होते हैं। परमात्मा सबके आत्मरूप होने से वास्तव में किसी को अप्राप्त नहीं है, अतः उसके यथार्थ स्वरूप ज्ञान होने के साथ ही उसकी प्राप्ति हो जाती है।
  18. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 54-60

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भीष्मवध पर्व
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