- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 38वें अध्याय में 'भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
अर्जुन द्वारा कृष्ण से प्रश्न पूछना
सम्बन्ध- इस प्रकार जीवन-अवस्था में ही तीनों गुणों से अतीत होकर मनुष्य अमृत को प्राप्त हो जाता है- इस रहस्य युक्त बात को सुनकर गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत बनने के उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं- हे वासुदेव! इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है। तथा हे प्रभो! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है। सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान उसके प्रश्नों में से ‘लक्षण’ और ‘आचरण’ विषयक दो प्रश्नों का उत्तर चार श्लोकों द्वारा देते हैं।[2]
कृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देना
भगवान बोले- हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को[3] और रजोगुण के कार्य रूप प्रवृत्ति को[4] तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को[5] भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है। जो साक्षी के सदृश्य स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता[6] और गुण ही गुणों में बरतते हैं- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है[7] एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता।[8] जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला,[9] मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला[10] और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाववाला है।[11] जो मान और अपमान में सम है,[12] मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है[13] एवं सम्पूर्ण आरम्भ में कर्तापन के अभिमान-से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।[14]
सम्बन्ध-इस प्रकार अर्जुन के दो प्रश्नों का उत्तर देकर अब गुणातीत बनने के उपाय विषयक तीसरे प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। यघपि इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने गुणातीत बनने का उपाय अपने को अकर्ता समझकर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दन ब्रह्म में नित्य निरन्तर स्थित रहना बतला दिया था। एवं उपयुर्क्त चार श्लोकों में गुणातीत के जिन लक्षण और आचरणों का वर्णन किया गया है, उसको आर्दश मानकर धारण करने का अभ्यास भी गुणातीत बनने का उपाय माना जाता हैं किन्तु अर्जुन ने इस उपाय से भिन्न दूसरा कोई सरल उपाय जानने की इच्छा से प्रश्न किया था, इसलिये प्रश्न के अनुकूल भगवान दूसरा सरल उपाय बतलाते हैं- जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है,[15] वह भी इन तीनों गुणों को भली-भाँति लांघकर सच्चिदानन्दन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है।[16] सम्बन्ध-उपयुक्त श्लोक में सगुण परमेश्वरी की उपासना का फल निर्गुण-निराकार ब्रह्म की प्राप्ति बतलाया गया तथा इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में ‘अमृत’ की प्राप्ति बतलाया गया। अतएव फल में विषमता की शंका का निराकरण करने के लिये सबकी एकता का प्रतिपादन करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एकरस आनंद का आश्रय मैं हूँ।[17]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 22-27
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 17-21
- ↑ गुणातीत पुरुष के अंदर ज्ञान, शांति और आनंद नित्य रहते हैं; उनका कभी अभाव नहीं होता। इसीलिये यहाँ सत्त्वगुण कार्यों में केवल प्रकाश के विषय में कहा है कि उसके शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण यदि अपने आप सत्त्वगुण की प्रकाश-वृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है तो गुणातीत पुरुष उससे द्वेष नहीं करता और जब तिरोभाव हो जाता है। तो पुनः उसके आगमन की इच्छा नहीं करता उसके प्रादुर्भाव और तिरोभाव में सदा एक सी स्थिति रहती हैं।
- ↑ नाना प्रकार के कर्म करने की स्फुरणा का नाम प्रवृत्ति है। इसके सिवा जो काम, लोभ, स्पृहा और आसक्ति आदि रजोगुण के कार्य है-वे गुणातीत पुरुष में नहीं होते। कर्मों का आरम्भ गुणातीत के शरीर-इन्द्रियों द्वारा भी होता है, वह प्रवृत्ति के अन्तर्गत ही आ जाता है अतएव यहाँ रजोगुण के कार्यों में से केवल ‘प्रवृत्ति’ में ही राग-द्वेष का अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि किसी भी स्फुरणा और क्रिया के प्रादुर्भाव और तिरोभाव में सदा ही उसकी एक सी ही स्थिति रहती हैं।
- ↑ अन्तःकरण की जो मोहिनी वृत्ति है- जिससे मनुष्य को तन्द्रा, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थायें प्राप्त होती हैं तथा शरीर, इन्द्रिय, और अन्तःकरण में सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश का अभाव सा हो जाता है।-उसका नाम ‘मोह’ है। इसके सिवा जो अज्ञान और प्रमाद आदि तमोगुण के कार्य है, उसका गुणातीत में अभाव हो जाता है; क्योंकि अज्ञान तो ज्ञान के पास आ नहीं सकता और प्रमाद बिना कर्ताके करे कौन इसलिये यहाँ तमोगुण के कार्य में केवल ‘मोह’ के प्रादुर्भाव और तिरोभाव में राग-द्वेष का अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि गुणातीत पुरुष के शरीर में तन्द्रा, स्वप्न या निद्रा आदि तमोदगुण की वृत्तियाॅ व्याप्त होती है, तब तो गुणातीत उनसे द्वेष नहीं करता और जब वे निवृत्त हो जाती है, तब वह उनके पुनरागमन की इच्छा नहीं करता। दोनों अवस्थाओं में ही उसकी स्थिति सदा एक सी होती है।
- ↑ जिन जीवों का गुणों के साथ सम्बन्ध है, उनको ये तीनों गुण उनकी इच्छा न होते हुए भी बलात्कार से नाना प्रकार के कर्मों में और उनके फलभोगों में लगा देते हैं। एवं उनको सुखी-दुखी बनाकर विक्षेप उत्पन्न कर देते हैं तथा अनेकों योनियों में भटकाते रहते हैं परन्तु जिसका इन गुणों से सम्बन्ध नहीं रहता, उस पर इन गुणों का कोई प्रभाव नहीं रह जाता। गुणों के कार्यरूप शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण अवस्थाओं का परिर्वतन तथा नाना प्रकार के सांसारिक पदार्थों का संयोग वियोग होते रहने पर भी वह अपनी स्थिति में सदा निर्विकार एकरस रहता है यही उसका गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जाना है।
- ↑ इन्द्रिय, मन बुद्धि और प्राण आदि समस्त करण और शब्दादि सब विषय- ये सभी गुणों के ही विस्तार है; अतएव इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि का जो अपने अपने विषयों में विचरना है- वह गुणों का ही गुणें में बरतना है, आत्मा का इसमें कुछ भी सम्भव नहीं हैं। आत्मा नित्य, चेतन, सर्वथा असंग, सदा एकरस, सच्चिदानन्दन है- ऐसा समझकर निर्गुण-निराकार सच्च्दिानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा में जो अभिन्नभाव से सदा के लिये नित्य स्थित हो जाना है, वही ‘गुण’ ही गुणों में बरत रहे हैं यह समझकर परमात्मा में स्थित रहना’ है।
- ↑ गुणातीत पुरुषों को गुण विचलित नहीं कर सकते, इतनी ही बात नहीं है वह स्वयं भी अपनी स्थिति से कभी किसी भी काल में विचलित नहीं होता।
- ↑ साधारण मनुष्यों की स्थिति प्रकृति के कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीन प्रकार के शरीरों में से किसी एक में रहती ही है अतः वे ‘स्वस्थ’ नहीं है, किंतु ‘प्रकृतिस्थ’ हैं और ऐसे पुरुष ही प्रकृति के गुणों को भोगने वाले हैं (गीता 13/21), इसलिये वे सुख-दुख सम नहीं हो सकते। गुणातीत पुरुष का प्रकृति और उसके कार्य से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता अतएव वह ‘स्वस्थ’ है- अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित है। इसलिये शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में सुख और दुःखों का प्रादुर्भाव और तिरोभाव होते रहने पर भी गुणातीत पुरुष का उनसें उनसे कुछ भी सम्बन्ध न रहने के कारण वह उनके द्वारा सुखी-दुखी नहीं होता उसकी स्थिति सदा सम ही रहती है यही उसका सुख-दुःख को समान समझना है।
- ↑ जो पदार्थ शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि के अनुकुल हो तथा उनका पोषक, सहायक एवं सुखप्रद हो, वह लोकदृष्टि से ‘प्रिय’ कहलाता है और जो पदार्थ उनके प्रतिकूल हो, उनका क्षयकारक, विरोधी एवं ताप पहूंचाने वाला हो, वह लोकदृष्टि से ‘अप्रिय’ माना जाता है। साधारण मनुष्यो को प्रिय वस्तुओं के संयोग में और अप्रिय के वियोग में राग और हर्ष तथा अप्रिय के संयोग में और प्रिय के वियोग में द्वेष और शोक होते हैं किंतु गुणातीत में ऐसा नहीं होता, वह सदा-सर्वदा राग-द्वेष और हर्ष-शोक से सर्वथा अतीत रहता है।
- ↑ किसी के सच्चे या झूठे दोषों का वर्णन करना निन्दा है और गुणों का बखान करना स्तुति है इन दोनों का सम्बन्ध- अधिकतर नाम से और कुछ शरीर से है। गुणातीत पुरुष का ‘शरीर’ और उसके ‘नाम’ से किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न रहने के कारण उसे निन्दा या स्तुति के कारण शोक या हर्ष कुछ भी नहीं होता।
- ↑ मान और अपमान का सम्बन्ध अधिकतर शरीर से है। अतः जिनका शरीर में अभिमान है, वे संसारी मनुष्य मान में राग और अपमान में द्वेष करते हैं इससे उनको मान में हर्ष और अपमान में शोक होता है तथा वे मान करने वाले के साथ प्रेम और अपमान करने वाले से वैर भी करते हैं परन्तु ‘गुणातीत’ पुरुष का शरीर से कुछ भी सम्बन्ध न रखने के कारण न तो शरीर का मान होने से उसे हर्ष होता है। और न अपमान होने से शोक ही होता है। उसकी दृष्टि में जिसका मान-अपमान होता है, जिसके द्वारा होता एवं जो मान-अपमानरूप कार्य है-ये सभी मायिक और स्वप्रवत है अतएव मान-अपमान से उसमें किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष और हर्ष-शोक नहीं होते। यही उसका मान और अपमान में सम रहना है।
- ↑ यद्यपि गुणातीत पुरुष का अपनी और से किसी भी प्राणी में मित्र या शत्रु भाव नहीं होता, इसलिये उसकी दृष्टि में कोई मित्र अथवा वैरी नहीं है, तथापित लोग अपनी भावना के अनुसार उसमें मित्र और शत्रुभाव की कल्पना कर लेते हैं किंतु वह दोनों पक्षवालों में समभाव रखता है, उसके द्वारा बिना राग-द्वेष के ही सम्भाव से सब के हित की चेष्टा हुआ करती है, वह किसी का भी बुरा नहीं करता और उसकी किसी में भी भेदबुद्धि नहीं होती। यही उसका मित्र और वैरी के पक्षों में सम रहना हैं।
- ↑ अभिप्राय यह है कि इस अध्याय के बाईसवें, तेईसवें, चोबीसवें और पचीसवें श्लोकों में जिन लक्षणों का वर्णन किया गया है, उन सब लक्षणों से जो युक्त है, उसे लोग ‘गुणातीत’ कहते हैं। यही गुणातीत पुरुष की पहचान के चिह्न है और यही उसकी आचार-व्यवहार है। अतएव जब तक अन्तःकरण में राग-द्वेष, विषमता, हर्ष-शोक, अविद्या, और अभिमान का लेशमात्र भी रहे, तब तक साधक को समझना चाहिये कि अभी गुणातीत अवस्था नहीं प्राप्त हुई है।
- ↑ केवल मात्र एक परमेश्वर ही सबसे श्रेष्ट है वे ही हमारे स्वामी, शरण लेने योग्य, परम गति और परम आश्रय तथा माता-पिता, भाई-बंधु, परम हितकारी और सर्वस्व है उसके अतिरिक्त हमारा और कोई नहीं- ऐसा समझकर उसमें जो स्वार्थ-रहित अतिशय श्रद्धापूर्वक अनन्य प्रेम है अर्थात जिस प्रेम में स्वार्थ, अभिमान और व्यभिचार का जरा भी दोष न हो। जो सर्वथा और सर्वदा पूर्ण और अटल रहे, जिसका तनिक-सा अंश भी भगवान से भिन्न वस्तु के प्रति न हो और जिसके कारण क्षणमात्र की भी भगवान की विस्मृति असह्य हो जाय, उस अनन्य प्रेम का नाम ‘अव्यभिचारी भक्तियोग’ है। ऐसे भक्तियोग के द्वारा जो निरन्तर भगवान के गुण, प्रभाव और लीलाओं का श्रवण-कीर्तन मनन, उसके नामों का उच्चारण, जप तथा उनके स्वरूप का चिन्तन आदि करते रहना है एवं मन, बुद्धि और शरीर आदि तथा समस्त पदार्थों को भगवान का ही समझकर निष्काम भाव से अपने को केवल निमित्तमात्र समझते हुए उनके आज्ञानुसार उन्हीं की सेवारूप में समस्त क्रियाओं को उन्हीं के लिये करते रहना है-यही अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा भगवान को निरन्तर भजना है।
- ↑ गुणातीत होने से साथ ही मनुष्य ब्रह्मभाव को अर्थात जो निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्द पूर्णब्रह्म है, जिसको पा लेने के बाद कुछ भी पाना काफी नहीं रहता, उसकों अभिन्नभाव से प्राप्त करने के योग्य बन जाता है और तत्काल ही उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
- ↑ गीता के पांचवें अध्याय के इकीसवें श्लोक में जो ‘अक्षय सुख’ के नाम से, छठे अध्याय के ईक्कीसवें श्लोक में ‘आत्यन्तिक सुख’ के नाम से और अठाईसवें श्लोक में ‘अत्यन्त सुख’ के नाम से कहा गया है, उसी नित्य परमात्मानंद को यहाँ ‘ऐकान्तिक सुख’ अर्थात् अखण्ड एकरस आनंद कहा गया है। उसका आश्रय (प्रतिष्ठा) अपने को बतलाकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि वह नित्य परमानंद मेरा ही स्वरूप है, मुझसे भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं है अतः उसकी प्राप्ति मेरी ही प्राप्ति है।
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भीष्मवध पर्व
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| कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ
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| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध
| भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध
| शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम
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| भीष्म द्वारा श्वेत का वध
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| कौरव सेना की व्यूह रचना
| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
| भीष्म और अर्जुन का युद्ध
| धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध
| भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध
| भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध
| भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध
| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
| भीष्म का पराक्रम
| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
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| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
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| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
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| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध
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| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
| इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय
| भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय
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| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
| भीष्म का रणभूमि में पराक्रम
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध
| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
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| भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन
| भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना
| नवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा
| कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना
| उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ
| शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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