भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 49वें अध्याय में 'भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

धृतराष्ट्र द्वारा संजय से प्रश्न पूछना

धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा और कहा- तात! जब सेनापति श्वेत के शत्रुओं द्वारा युद्धस्थल में मारे जाने पर महान् धनुर्धर पांचालों और पाण्डवों ने क्या किया ? संजय! सेनापति श्वेत युद्ध में मारे गये। उनकी रक्षा के लिये प्रयत्न करने पर भी शत्रुओं को पलायन करना पड़ा तथा अपने पक्ष की विजय हुई ये सब बातें सुनकर मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता हो रही है। शत्रुओं के प्रतीकार का उपाय सोचते हुए मुझे अपने पक्ष के द्वारा गयी अनीति का स्मरण करके भी लज्जा नही आती है। वे वृद्ध एवं वीर कुरूराज भीष्म हम पर सदा अनुराग रखते है (इस कारण ही उन्होंने श्वेत के साथ ऐसा व्यवहार किया होगा)। उस बुद्धिमान विराटपुत्र श्वेत ने अपने पिता के साथ वैर बांध रखा था, इस कारण पिता के द्वारा प्राप्त होने वाले उद्वेग एवं भय से श्वेत ने पहले ही पाण्डवों की शरण ले ली थी। पहले तो वह समस्त सेना का परित्याग करके (अकेला ही) दुर्ग के छिपा रहता था। फिर पाण्डवों के प्रताप से दुर्गम प्रदेश में रहकर निरन्तर शत्रुओं को बाधा पहचाते हुए सदाचार का पालन करने लगा। क्योंकि पूर्वकाल में अपने साथ विरोध करने वाले उन राजाओं के प्रति उसकी बुद्धि दुर्भाव था पर संजय! आश्चर्य तो यह है कि ऐसा शूरवीर श्वेत, जो युधिष्ठिर का बड़ा भक्त था, मारा कैसे गया ? मेरा पुत्र दुर्योधन क्षुद्र स्वभाव का है। वह कर्ण आदि का प्रिय तथा चंचल बुद्धिवाला है। मेरी दृष्टि में वह समस्त पुरुषों में अधम है (इसीलिये उनके मन में युद्ध के लिये आग्रह है)। संजय! मै, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा गान्धारी-इनमें से कोई भी युद्ध नही चाहता था। वृष्णिवंशी भगवान वासुदेव, पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा पुरुषरत्न नकुल-सहदेव भी युद्ध नहीं पसंद करते थे। मैंने, गान्धारी ने और विदुर ने तो सदा ही उसे मना किया है, जमदग्निपुत्र परशुराम ने तथा महात्मा व्यासजी ने भी उसे युद्ध से रोकने का प्रयत्न किया है तथापित, कर्ण, शकुनि, तथा दुःशासन के मत में आकर पापी दुर्योधन सदा युद्ध का ही निश्चय रखता आया है। उसने पाण्डवों को कभी कुछ नही समझा।

संजय! मेरा तो विश्वास है कि दुर्योधन पर घोर संकट प्राप्त होने वाला है। श्वेत के मारे जाने और भीष्म की विजय होने से अत्यन्त क्रोध में भरे श्रीकृष्ण सहित अर्जुन ने युद्ध स्थल में क्या किया ? तात! अर्जुन से मुझे अधिक भय बना रहता है और वह भय कभी शांत नही होता क्योंकि कुन्तीपुत्र अर्जुन शूरवीर तथा शीघ्रतापूर्वक अस्त्र संचालन करने वाला है। मै समझता हूँ कि वह अपने बाणों द्वारा शत्रुओं के शरीरों को मथ डालेगा। इन्द्रकुमार अर्जुन भगवान विष्णु के समान पराक्रमी और महेन्द्र के समान बलवान है। उसका क्रोध और संकल्प कभी व्यर्थ नही होता। उसे देखकर तुमलोगों के मन में क्या विचार उठा था ? अर्जुन वेदज्ञ, शौर्य सम्पन्न, अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी, इन्द्रस्त्र का ज्ञाता, अमेय आत्मबल से सम्पन्न, वेग पूर्वक आक्रमण करने वाला और बड़े-बड़े़ संग्रामों में विजय पाने वाला है। वह ऐसे-ऐसे अस्त्रों का प्रयोग करता है, जिसका हल्का सा स्पर्श भी वज्र के समान कठोर है। महारथी अर्जुन अपने हाथ में सदा तलवार खींचे ही रहता है और उसका प्रहार करके विकट गर्जना करता है।[1] संजय! द्रुपद के परम बुद्धिमान पुत्र बलवान् धृष्टद्युम्न ने श्वेत के युद्ध में मारे जाने पर क्या किया ? पहले भी कौरवों द्वारा पाण्डवों का अपराध हुआ है उससे तथा सेनापति वध से महामना पाण्डवों के हृदय में आग-सी लग गयी होगी, यह मेरा विश्वास है। दुर्योधन के कारण पाण्डवों के मन में जो क्रोध है, उसका चिन्तन करके मुझे न तो दिन में शांति मिलती है, न रात्रि में ही। संजय! वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ, यह सब मुझे बताओ।

संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर देना

संजय ने कहा- राजन्! स्थिर होकर सुनिये। इस युद्ध के होने में सबसे बड़ा अन्याय आपका ही है। इसका सारा दोष आपको दुर्योधन के माथे नही मढ़ना चाहिये। जैसे पानी की बाढ़ निकल जाने पर पुल बांधने का प्रयास किया जाय अथवा घर में आग लग जाने पर उसे बुझाने के लिये कुआं खोदने की चेष्टा की जाय, उसी प्रकार आपकी यह समझ है। उस भयंकर दिन के पूर्वभाव का अधिकांश व्यतीत हो जाने पर आपके और पाण्डवों के सैनिकों में पुनः युद्ध आरम्भ हुआ।

शंख का युद्ध

विराट के सेनापति श्वेत को मारा गया और राजा शल्य को कृतवर्मा के साथ रथ पर बैठा हुआ देख शंख क्रोध से जल उठा, मानो अग्नि में घी की आहुति पड़ गयी हो। उस बलवान वीर ने इन्द्रधनुष के समान अपने विशाल शरासन को कानों तक खींचकर मद्रराज शल्य को युद्ध में मार डालने की इच्छा से उन पर धावा किया। विशाल रथ सेना के द्वारा सब और से घिरकर बाणों की रक्षा करते हुए उसके शल्य के रथ पर आक्रमण किया। मतवाले हाथी के समान पराक्रम प्रकट करने वाले शंख को धावा करते देख आपके सात रथियों ने मौत के दांतो में फॅसे हुए मद्रराज शल्य को बचाने की इच्छा रखकर उन्हें चारों और से घेर लिया। राजन्! उन रथियों के नाम ये हैं- कोसलनरेश बृहद्वल, मगघदेशीय जयत्सेन, शल्य के प्रतापी पुत्र रुक्मरथ, अवन्ति के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण तथा बृहत्क्षत्र के पुत्र सिंधुराज जयद्रथ। इन महामना वीरों के फैलाये हुए अनेक रूप-रंग के विचित्र धनुष बादलों में बिजलियों के समान दष्टिगोचर हो रहे थे। उन सब ने शंख के मस्तक पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, मानो ग्रीष्म ऋतु के अन्त में वायु द्वारा उठाये हुए मेघ पर्वत पर जल बरसा रहे हो। उस समय महान् धनुर्धर सेनापति शंख ने कुपित होकर तेज किये हुए भल्ल नाम सात बाणों द्वारा उन सातों रथियों के धनुष काटकर गर्जना की। तदनन्तर महाबाहु भीष्मने मेघ के समान गर्जना करके चार हाथ लंबा धनुष लेकर रणभूमि में शंख पर धावा किया।

उस समय महाधनुर्धर महाबली भीष्म को युद्ध के लिये उद्यतदेख पाण्डवसेना वायु के वेग से डगमग होने वाली नौका की भाँति कॉपने लगी। यह देख अर्जुन तुरन्त ही शंख के आगे आ गये। उनके आगे आने का उद्देश्य यह था कि आज भीष्म के हाथ से शंख को बचाना चाहिये। फिर तो महान् युद्ध आरम्भ हुआ। उस समय रणक्षेत्र में जूझने वाले योद्धाओं का महान हाहाकार सब और फेल गया। तेज के साथ तेज टक्कर ले रहा है, यह कहते हुए सब लोग बड़े विस्मय में पड़ गये। भरतश्रेष्ठ! उस समय राजा शल्य ने हाथ में गदा लिये अपने विशाल रथ से उतर कर शंख के चारों घोड़ो को मार डाला।[2] घोडे़ मारे जाने पर शंख तुरन्त ही तलवार लेकर रथ से कूद पड़ा और अर्जुन के रथ पर चढ़कर उसने पुनःशांति की सांस ली। तत्पश्चात् भीष्म के रथ से शीघ्रतापूर्वक पंखयुक्त बाण पक्षी के समान उड़ने लगे, जिन्होंने पृथ्वी और आकाश सबको आच्छादित कर दिया।

भीष्म का प्रचंड युद्ध

योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म पांचाल, मत्स्य, केकय तथा प्रभद्रक वीरों को अपने बाणों से मार मार कर गिराने लगे। राजन्! भीष्म ने समरभूमि में सव्यसाची अर्जुन को छोड़कर सेना से घिरे हुए पांचालराजा द्रुपद पर धावा किया और और अपने प्रिय सम्बन्धी पर बहुत-से बाणों की वर्षा की। जैसे ग्रीष्म ऋतु में आग लगने से सारे वन दग्ध हो जाते है, उसी प्रकार द्रुपद की सारी सेनाएं भीष्म के बाणों से दग्घ दिखायी देने लगी। उस समय भीष्म रणभूमि में धूमरहित अग्नि के समान खडे़ थे। जैसे दुपहरी में अपने तेज से तपते हुए सूर्य की ओर देखना कठिन है, उसी प्रकार पाण्डव-सेना सैनिक भीष्म की और दृष्टि पात करने में भी असमर्थ हो गये। पाण्डव योद्धा भय से पीड़ितहो सब लोग देखने लगे परन्तु सर्दी से पीड़ित हुई गौओं की भाँति उन्हें अपना कोई रक्षक नही मिला। राजन्! गंगानन्दन भीष्म के बाणों से पीड़ित हुई वह युधिष्ठिर की (श्वेत-परिधानविभूषित) सेना सिंह के द्वारा सतायी हुई सफेद गाय के समान प्रतीत होने लगी। भारत! पाण्डव-सेना के सैनिक बहुत-से मारे गये, बहुत से भाग गये, कितने रौद डाले गये और कितने ही उत्साह-शून्य हो गये। इस प्रकार पाण्डव दल में बड़ा हाहाकार मच गया था। उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म अपने धनुष को खींचकर गोल बना देते और उसके द्वारा विषैले सर्पो की भाँति भयंकर प्रज्वलित अग्रभाग वाले बाणों की निरन्तर वर्षा करते थे। भारत! नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले भीष्म सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों से एक रास्ता बना देते और पाण्डव रथियों को चुन-चुनकर-उनके नाम ले-लेकर मारते थे। इस प्रकार सारी सेना मथित हो उठी, व्यूह भंग हो गया और सूर्य अस्ता चल को चले गये उस समय अंधेरे में कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। भरतश्रेष्ठ! इधर, उस महान् युद्ध में भीष्म का वेग अधिकाधिक प्रचण्ड होता जा रहा था, यह देख कुन्ती के पुत्रों ने अपनी सेनाओं को युद्धक्षेत्र से पीछे हटा लिया।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-18
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 49 श्लोक 19-39
  3. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 49 श्लोक 40-53

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