अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 35वें अध्याय में 'अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना

संबंध- इस प्रकार भगवान के मुख से सब बातें सुनने के बाद अर्जुन की कैसी परिस्थिति हुई और उन्‍होंने क्‍या किया- इस जिज्ञासा पर संजय कहते हैं। संजय बोले- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर कांपता हुआ[2] नमस्‍कार करके, फिर भी अत्‍यंत भयभीत होकर प्रणाम करके[3] भगवान श्रीकृष्‍ण के प्रति गद्गद वाणी से बोला[4] संबंध-अब छत्‍तीसवें से छियालीसवें श्‍लोक तक अर्जुन भगवान के स्‍तवन, नमस्‍कार और क्षमायायना सहित प्रार्थना करते हैं- अर्जुन बोले- हे अन्‍तर्यामिन! यह योग्‍य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्‍त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्‍कार कर रहे हैं।[5]

हे महात्‍मन! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्‍कार न करें; क्‍योंकि हे अनंत! हे देवेश! हे जगन्निवास![6] जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं।[7] आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले[8] तथा जानने योग्‍य[9] और परम धाम[10]हैं। हे अनंतरूप![11] आपसे यह सब जगत व्‍याप्‍त अर्थात परिपूर्ण है।[12] आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्‍द्रमा, प्रजा के स्‍वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिये हजारों बार नमस्‍कार! नमस्‍कार हो!! आपके लिए फिर भी बार-बार नमस्कार! नमस्कार। हे अनन्‍त सामर्थ्‍य वाले! आपके लिये आगे से और पीछे से भी नमस्‍कार! हे सर्वात्मन्! आपके लिये सब ओर से ही नमस्‍कार हो;[13] क्‍योंकि अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्‍याप्‍त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।[14] संबंध-इस प्रकार भगवान की स्‍तुति और प्रणाम करके अब भगवान के गुण, रहस्‍य और माहात्‍म्‍य को यथार्थ न जानने के कारण वाणी और क्रिया द्वारा किये गये अपराधों को क्षमा करने के लिये भगवान से अर्जुन प्रार्थना करते हैं।[1]

आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने ‘हे कृष्‍ण!’ ‘हे यादव!’ ‘हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात कहा है[15] और हे अच्‍युत! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिये विहार, शय्‍या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं- वह सब अपराध अप्रमेयस्‍वरूप अर्थात अचिन्‍त्‍य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूं[16] आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं,[17] हे अनुपम प्रभाव वाले! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है। अतएव हे प्रभो! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्‍तुति करने योग्‍य आप ईश्‍वर को प्रसन्‍न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ।[18] हे देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्‍नी के अपराध स‍हन करते हैं- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्‍य हैं।[19] संबंध- इस प्रकार भगवान से अपने अपराधों के लिये क्षमा-याचना करके अब अर्जुन दो श्लोक में भगवान से चतुर्भुजरूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं- मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्‍याकुल भी हो रहा है,[20] इसलिये आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्‍न होइये। मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूं,[21] इसलिये हे विश्वरूप! हे सहस्रबाहो! आप उसी चतुर्भुजरूप से प्रकट होइये।[22][23]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 35-40
  2. इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि श्रीकृष्‍ण ने उस घोर रूप को देखकर अर्जुन इतने व्‍याकुल हो गये कि भगवान के इस प्रकार आश्वासन देने पर भी उनका डर दूर नहीं हुआ; इसलिये वे डर के मारे कांपते हुए ही भगवान से उस रूप का संवरण करने के लिये प्रार्थना करने लगे।
  3. इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान ने अनन्‍त ऐश्वर्यमय स्‍वरूप को देखकर उस स्‍वरूप के प्रति अर्जुन की बड़ी सम्‍मान्‍य दृष्टि हो गयी थी और वे डरे हुए थे ही। इसी से वे हाथ जोडे़ हुए बार-बार भगवान को नमस्‍कार और प्रणाम करते हुए उनकी स्‍तुति करने लगे।
  4. इसका अभिप्राय यह है कि अर्जुन जब भगवान की स्‍तुति करने लगे, तब आश्चर्य और भय के कारण उनका हृदय पानी-पानी हो गया, नेत्रों में जल भर गया, कण्‍ठ रुक गया और इसी कारण उनकी वाणी गद्गद हो गयी। फलत: उनका उच्‍चारण अस्‍पष्‍ट और करुणापूर्ण हो गया।
  5. भगवान के द्वारा प्रदान की हुई दिव्‍य दृष्टि से केवल अर्जुन ही यह सब देख रहे थे, सारा जगत नहीं। जगत का हर्षित और अनुरक्‍त होना, राक्षसों का डरकर भागना और सिद्धों का नमस्‍कार करना- ये सब उस विराट रूप के ही अंग है। अभिप्राय यह है कि यह वर्णन अर्जुन को दिखलायी देने वाले विराट रूप का ही है, बाहरी जगत का नहीं। उनको भगवान का जो विराट रूप दिखता था, उसी के अंदर ये सब दृश्‍य दिखलायी पड़ रहे थे। इसी से अर्जुन ने ऐसा कहा है।
  6. यहाँ ‘महात्‍मन, ‘अनन्‍त’, ‘देवेश’ और ‘जगन्निवास’- इन चार संबोधनों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव व्‍यक्‍त किया है कि आप समस्‍त चराचर प्राणियों के महान आत्‍मा हैं, अंतरहित हैं- आपके रूप, गुण और प्रभाव आदि की सीमा नहीं है; आप देवताओं के भी स्‍वामी हैं और समस्‍त जगत के एकमात्र परमाधार हैं। यह सारा जगत आप में ही स्थित है तथा आप इसमें व्‍याप्‍त हैं। अतएव इन सबका आपको नमस्‍कार आदि करना सब प्रकार से उचित ही है।
  7. जिसका कभी अभाव नहीं होता, उस अविनाशी आत्‍मा को ‘सत्’ और नाशवान अनित्‍य वस्‍तु मात्र को ‘असत्’ कहते हैं; इन्‍हीं को गीता के सातवें अध्‍याय में परा और अपरा प्रकृत्ति तथा पंद्रहवें अध्‍याय में अक्षर और क्षर पुरुष कहा गया है। इनसे परे परम अक्षर सच्चिदानंदघन परमात्‍मतत्त्‍व है। अर्जुन अपने नमस्‍कारादि के औचित्‍य को सिद्ध करते हुए कह रहे हैं कि यह सब आपका ही स्‍वरूप है। अतएव आपको नमस्‍कार आदि करना सब प्रकार से उचित है।
  8. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप इस भूत, वर्तमान और भविष्‍य समस्‍त जगत को यथार्थ तथा पूर्णरूप से जानने वाले, सबके नित्‍य द्रष्‍टा हैं; इसलिये आप सर्वज्ञ है, आपके सदृश सर्वज्ञ कोई नहीं है (गीता 7:26)
  9. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जो जानने के योग्‍य है, जिसको जानना मनुष्य जन्‍म का उद्देश्‍य है, गीता के तेरहवें अध्‍याय में बारहवें से सतरहवें श्लोक तक जिस ज्ञेय तत्त्व का वर्णन किया गया है- वे साक्षात परब्रह्म परमेश्वर आप ही हैं।
  10. इससे अर्जुन ने यह बतलाया है कि जो मुक्त पुरुषों की परम गति है, जिसे प्राप्‍त होकर मनुष्‍य वापस नहीं लौटता; वह साक्षात परम धाम आप ही हैं (गीता 8:21)।
  11. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके रूप असीम और अगणित हैं, उनका पार कोई पा ही नहीं सकता।
  12. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि सारे विश्व के प्रत्‍येक परमाणु में आप व्‍याप्‍त हैं, इसका कोई भी स्‍थान आप से रहित नहीं है।
  13. ’सर्वे’ नाम से सम्‍बोधित करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप सबके आत्‍मा, सर्वव्‍यापी और सर्वरूप हैं; इसलिये मैं आपको आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दाहिने-बायें---सभी ओर से नमस्‍कार करना हूँ।
  14. अर्जुन इस कथन से भगवान की सर्वता को सिद्ध करते हैं। अभिप्राय यह है कि आपने इस सम्‍पूर्ण जगत को व्‍याप्‍त कर रखा है। विश्व में क्षुद्र से भी क्षुद्रतम अणुमात्र भी ऐसी कोई जगह या वस्‍तु नहीं है, जहाँ और जिसमें आप न हों। अतएव सब कुछ आप ही है। वास्‍तव में आपसे पृथक जगत कोई वस्‍‍तु ही नहीं है, यही मेरा निश्चय है।
  15. इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपकी अप्रतिम और अपार महिमा को न जानने के कारण ही मैंने आपको अपनी बराबरी का मित्र मान रखा था, इसीलिये मैंने बातचीत में कभी आपके महान गौरव और सर्वपूज्‍य महत्त्व का ख्‍याल नहीं रखा; अत: प्रेम या प्रमाद से मेरे द्वारा निश्चय ही बड़ी भूल हुई। बड़े-से-बडे़ देवता और महर्षिगण जिन आपके चरणों की वंदना करना अपना सौभाग्‍य समझते हैं, मैंने उन आपके साथ बराबरी का बर्ताव किया। प्रभो! कहाँ आप और कहाँ मैं! मैं इतना मूढ़मति हो गया कि आप परम पूजनीय परमेश्वर को मैं अपना मित्र ही मानता रहा और किसी भी आदरसूचक विशेषण का प्रयोग न करके सदा बिना सोचे-समझे ‘कृष्‍ण’, ‘यादव’ और ‘सखे’ आदि कहकर आपको तिरस्‍कारपूर्वक पुकारता रहा।
  16. यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि प्रभो! आपका स्‍वरूप और महत्त्‍व अचिन्‍त्‍य है। उसको पूर्णरूप से तो कोई भी नहीं जान सकता। किसी को उसका थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है तो वह आपकी कृपा से ही होता है। यह आपके परम अनुग्रह का ही फल है कि मैं-जो पहले आपके प्रभाव को नहीं जानता था और इसीलिये आपका अनादर किया करता था- अब आपके प्रभाव को कुछ-कुछ जान सका हूँ। अवश्‍य ही ऐसी बात नहीं है कि मैंने आपका सारा प्रभाव जान लिया है; सारा जानने की बात तो दूर रही- मैं तो अभी उतना भी नहीं समझ पाया हूं, जितना आपकी दया मुझे समझा देना चाहती है। परंतु जो कुछ समझा हूं, उसी से मुझे यह भलीभाँति मालूम हो गया है कि आप सर्वशक्तिमान साक्षात परमेश्वर हैं। मैंने जो आपको अपनी बराबरी का मित्र मानकर आपसे जैसा बर्ताव किया, उसे मैं अपराध मानता हूँ और ऐसे समस्‍त अपराधों के लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ।
  17. इस कथन से अर्जुन ने अपराध क्षमा करने के औचित्‍य का प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं- ‘भगवन! यह सारा जगत आप ही से उत्‍पन्‍न है, अतएव आप ही इसके पिता हैं; संसार में जितने भी बड़े-बड़े़ देवता, महर्षि और अन्‍यान्‍य समर्थ पुरुष हैं, उन सबमें सबकी अपेक्षा बड़े ब्रह्मा जी हैं; क्‍योंकि सबसे पहले उन्‍हीं का प्रादुर्भाव होता है और वे ही आपके नित्‍य ज्ञान के द्वारा सबको यथायोग्‍य शिक्षा देते हैं, परंतु हे प्रभो! वे ब्रह्मा जी भी आप ही से उत्‍पन्‍न होते हैं और उनको वह ज्ञान भी आप ही से मिलता है। अतएव हे सर्वेश्वर! सबसे बडे़, सब बड़ों-से-बड़ें और सबके एकमात्र महान गुरु आप ही हैं। समस्‍त जगत जिन देवताओं की और महर्षियों की पूजा करता है, उन देवताओं के और महर्षियों के भी परम पूज्‍य तथा नित्‍य वंदनीय ब्रह्मा आदि देवता और वसिष्‍टादि महर्षि यदि क्षणभर के लिये आपके प्रत्‍यक्ष पूजन या स्‍तवन का सुअवसर पा जाते हैं तो अपने को महान भाग्‍यवान समझते हैं। अतएव सब पूजनीय के भी परम पूजनीय आप ही है, इसलिये मुझ क्षुद्र के अपराधों को क्षमा करना आपके लिये सभी प्रकार से उचित है।
  18. जो सबका नियमन करने वाले स्‍वामी हों, उन्‍हें ‘ईश’ कहते हैं और जो स्‍तुति के योग्‍य हों, उन्‍हें ‘ईड्य’कहते हैं। इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि हे प्रभो! इस समस्‍त जगत का नियमन करने वाले यहाँ तक कि इन्द्र, आदित्य, वरुण, कुबेर और यमराज] आदि लोकनियंता देवताओं को भी अपने नियम में रखने वाले आप-सबके एकमात्र महेश्वर हैं और आपके गुण गौरव तथा महत्त्व का इतना विस्‍तार है कि सारा जगत सदा-सर्वदा आपका स्‍तवन करता रहे त‍ब भी उसका पार नहीं पा सकता; इसलिये आप ही वस्‍तुत: स्‍तुति के योग्‍य हैं। मुझमें न तो इतना ज्ञान है और न वाणी में ही बल हैं कि जिससे मैं स्‍तवन करके आपको प्रसन्‍न कर सकूं। मैं अबोध भला आपका क्‍या स्‍तवन करूं? मैं आपका प्रभाव बतलाने में जो कुछ भी कहूंगा वह वास्‍तव में आपके प्रभाव की छाया को भी न छू सकेगा; इसलिये वह आपके प्रभाव को घटाने वाला ही होगा। अत: मैं तो बस, इस शरीर को ही लकड़ी की भाँति आपके चरणप्रांत में लुटाकर-समस्‍त अंगों के द्वारा आपको प्रणाम करके आपकी चरणधूलि के प्रसाद से ही आपकी प्रसन्‍नता प्राप्‍त करना चाहता हूँ। आप कृपा करके मेरे सब अपराधों को भुला दीजिये और मुझ दीन पर प्रसन्‍न हो जाइये।
  19. यहाँ अर्जुन यह प्रार्थना कर रहे है कि जैसे अज्ञान में प्रमादवश किये हुए पुत्र के अपराधों को पिता क्षमा करता है, हंसी-मजाक में किये हुए मित्र के अपराधों को मित्र सहता है और प्रेमवश किये हुए प्रियतमा पत्‍नी के अपराधों को पति क्षमा करता है- वैसे ही मेरे तीनों ही कारणों से बने हुए समस्‍त अपराधों को आप क्षमा कीजिये।
  20. अर्जुन ने इससे यह भाव दिखलाया है कि आपके इस अलौकिक रूप में जब मैं आपके गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य की ओर देखकर विचार करता हूँ तब तो मुझे बड़ा भारी हर्ष होता है कि ‘अहो! मैं बड़ा ही सौभाग्‍यशाली हूं, जो साक्षात परमेश्वर-की मुझ तुच्‍छ पर इतनी अनंत दया और ऐसा अनोखा प्रेम है कि जिससे वे कृपा करके मुझको अपना यह अलौकिक रूप दिखला रहे हैं; परंतु इसी के साथ जब आपकी भयावनी विकराल मूर्ति की ओर दृष्टि जाती है, तब मेरा मन भय से कांप उठता है और मैं अत्‍यंत व्‍याकुल हो जाता हूँ।
  21. महाभारत-युद्ध में भगवान ने शस्त्र-ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और अर्जुन के रथ पर वे अपने हाथों में चाबुक और घोड़ों की लगाम थामे विराजमान थे; परंतु इस समय अर्जुन भगवान के इस द्विभुज रूप को देखने से पहले उस चतुर्भुज रूप को देखना चाहते हैं, जिसके हाथों में गदा और चक्रादि हैं।
  22. (1) यदि चतुर्भुज रूप श्रीकृष्‍ण का स्‍वाभाविक रूप होता तो फिर ‘गदिनम्’ और ‘चक्रहस्‍तम्’ कहने की कोई आवश्‍यकता न थी, क्‍योंकि अर्जुन उस रूप को सदा देखते ही थे। वरं ‘चतुर्भुज’ कहना भी निष्‍प्रयोजन था; अर्जुन का इतना ही कहना पर्याप्‍त होता कि मैं अभी कुछ देर पहले जो रूप देख रहा था, वही दिखलाइये।
    (2) पिछले श्‍लोक में ‘देवरूपम्’ पद आया है, जो आगे इक्‍यावनवें श्‍लोक में आये हुए ‘मानुषं रूपम्’ से सर्वथा विलक्षण अर्थ रखता है; इससे भी सिद्ध है कि देवरूप से श्री विष्‍णु का ही कथन किया गया है।
    (3) आगे पचासवें श्‍लोक में आये हुए ‘स्‍वकं रूपम्’ के साथ ‘भूय:’ और ‘सौम्‍यवपु:’ के साथ ‘पुन:’ पद आने से भी यहाँ पहले चतुर्भुज और फिर द्विभुज मानुषरूप दिखलाया जाना सिद्ध होता है।
    (4) आगे बावनवें श्‍लोक में ‘सुदुर्दर्शम्’ पद से यह दिखलाया गया है कि यह रूप अत्‍यंत दुर्लभ है और फिर कहा गया है कि देवता भी इस रूप को देखने की नित्‍य आकांक्षा करते हैं। यदि श्रीकृष्‍ण का चतुर्भुज रूप स्‍वाभाविक था, तब तो वह रूप मनुष्‍यों को भी दिखता था; फिर देवता उसकी सदा आकांक्षा क्यों‍ करने लगे? यदि यह कहा जाय कि विश्वरूप लिये ऐसा कहा गया है तो ऐसे घोर विश्वरूप की देवताओं को कल्‍पना भी क्‍यों होने लगी, जिसकी दाढ़ों में भीष्‍म-द्रोणादि चूर्ण हो रहे हैं। अतएव यही प्रतीत होता है कि देवतागण वैकुण्‍ठवासी श्रीविष्‍णुरूप के दर्शन की ही आकांक्षा करते हैं।
    (5) विराट स्‍वरूप की महिमा आगे अड़तालीसवें श्‍लोक में ‘न वेदयज्ञाध्‍ययनै:’ इत्‍यादि के द्वारा गायी गयी, फिर तिरपनवें श्‍लोक में ‘नाहं वेदैर्न तपसा’ आदि में पुन: वैसी ही बात आती है। यदि दोनों जगह एक ही विराट रूप की महिमा है तो इसमें पुनरूक्तिदोष आता है; इससे भी सिद्ध है कि मानुषरूप दिखलाने के पहले भगवान ने अर्जुन को चतुर्भुज देवरूप दिखलाया और उसी की महिमा में तिरपनवां श्‍लोक कहा गया।
    (6) इसी अध्‍याय के चौबीसवें और तीसवें श्‍लोकों में अर्जुन ने ‘विष्‍णो’ पद से भगवान को सम्‍बोधित भी किया है। इससे भी उनके विष्‍णुरूप देखने की आकांक्षा प्रतीत होती है। इन हेतुओं से यही सिद्ध होता है कि यहाँ अर्जुन भगवान श्रीकृष्‍ण से चतुर्भुज विष्‍णुरूप दिखलाने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं।

  23. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 35 श्लोक 41-46

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जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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