- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 33वें अध्याय में 'कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन करना
सम्बन्ध – पूर्वश्लोक में कृष्ण द्वारा अर्जुन को भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन करने के बाद अब दो श्लोकों में भगवान् अच्छी बुरी जाति के कारण होने वाली विषमता का अपने में अभाव दिखलाते हुए शरणागतिरूप भक्ति का महत्व प्रतिपादन करके अर्जुन को भजन करने की आज्ञा देते हैं। कृष्ण कहते हैं -हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शुद्र तथा पापयोनि[2] चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर[3] परम गति को प्राप्त होते हैं। फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण[4] तथा राजर्षि भक्तजन[5] मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभगुंर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर[6] सम्बन्ध – पिछले श्लोक में भगवान् ने अपने भजन का महत्व दिखलाया और अन्त में अर्जुन को भजन करने के लिये कहा। अतएव अब भगवान् अपने भजन का अर्थात शरणागति का प्रकार बतलाते हुए अध्याय की समाप्ति करते हैं और कहते हैं हे अर्जुन! -मुझमें मनवाला हो[7] मेरा भक्त बन,[8] मेरा पूजन करने वाला हो,[9] मुझको प्रणाम कर।[10] इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके[11] मेरे परायण[12] होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।[13]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 33 श्लोक 29-34
- ↑ पूर्वजन्मों के पापों के कारण चाण्डाल आदि योनियों में उत्पन्न प्राणियों को ‘पापयोनि’ ही माना गया है। इनके सिवा शास्त्रों के अनुसार हूण, भील, खस, यवन आदि म्लेच्छ जाति के मनुष्य भी ‘पापयोनि’ ही माने जाते हैं। यहाँ ‘पापयोनि’ शब्द इन्हीं सबका वाचक है। भगवान् की भक्ति के लिये किसी जाति या वर्ण के लिये कोई रुकावट नहीं है। वहाँ तो शुद्ध प्रेम की आवश्यकता है। श्रीमद्भागवत में भी कहा है-
भक्त्याहमेकया ग्राह्या: श्रद्धयाऽऽत्मा प्रिया: सताम्। भक्ति: पुनाति मन्निष्ठा श्र्वपाकानापि सम्भवात्॥ (11।14।21।)
हे उद्धव! संतों का परमप्रिय ‘आत्मा’ रूप मैं एकमात्र श्रद्धाभक्ति से ही वशीभूत होता हॅू। मेरी भक्ति जन्मतः चाण्डालों को भी पवित्र कर देती है।’ यहाँ ‘पापयोनयः’ पद को स्त्री, वैश्य और शूद्रों का विशेषण नहीं मानना चाहिये; क्योंकि वैश्यों की गणना द्विजो में की गयी है। उनको वेद पढ़ने का और यज्ञादि वैदिक कर्मो के करने का शास्त्र में पूर्ण अधिकार दिया गया है। अतः द्विज होने के कारण वैश्यों को ‘पापयोयनि’ कहना नहीं बन सकता। इसके अतरिक्त छान्दोग्योपनिषद् में जहाँ जीवों की कर्मानुरूप गति का वर्णन है, यह स्पष्ट कहा गया है कि- तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयं योनिमापघरेन ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रयियोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिामापधेरञ्श्र्वयोनिं वा सकूरयोनिं वा चाण्डाल योनिं वा। (अध्याय 5 खण्ड 10 मं० 7) ‘उन जीवों में जो इस लोक में रमणीय आचरण वाले अर्थात् पुण्यात्मा होते हैं, वे शीघ्र ही उत्तम योनि – ब्राह्मणयोनि, क्षतिययोनिं अथवा वैश्ययोनि को प्राप्त करते हैं और जो इस संसार में कपूय (अधम) आचरण वाले अर्थात् पापकर्मा होते हैं, वे अधम योनि अर्थात कुत्ते की, सूकर की या चॉण्डाल की योनि को प्राप्त करते हैं। इससे यह सिद्ध है कि वैश्यों की गणना ‘पापयोनि’ में नहीं की जा सकती। अब रही स्त्रियों की बात--सो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की स्त्रियों का अपने पतियों के साथ यज्ञादि वैदिक कर्मो में अधिकार माना गया है। इस कारण से उनको भी पापयोनि कहना नहीं बन सकता। सबसे बड़ी अडंचन तो यह पड़ेगी कि भगवान् की भक्ति से चाण्डाल आदि को भी परमगति मिलने की बात, जो कि सर्वशास्त्रसम्मत है और जो भक्ति के महत्त्व को प्रकट करती है, कैसे रहेगीॽ अतएव ‘पापयोनयः’ पदको स्त्री, वैश्य और शूद्रों का विशेषण न मानकर शूद्रों की अपेक्षा भी हीन जाति के मनुष्यों का वाचक मानना ही ठीक प्रतीत होता है। क्योंकि भागवत में बतलाया है-
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीर कड़का यवनाः खसादयः।
येअन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुद्धयन्ति तस्मै प्रभपिष्णवे नमः।।(2।4।18)‘जिनके आश्रित भक्तों का आश्रय लेकर किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि अधम जाति के लोग तथा इनके सिवा और भी बड़े से बड़े पापी मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं, उन जगत्प्रभु भगवान् विष्णु को नमस्कार है।‘
- ↑ भगवान् पूर्ण विश्वास करके चौतीसवें श्लोक के कथनानुसार प्रेमपूर्वक सब प्रकार से भगवान् की शरण हो जाना अर्थात् उनके प्रत्येक विधान में सदा संतुष्ट रहना, उनके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का निरन्तर श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करते रहना, उन्हीं को अपनी गति, भर्ता, प्रभु आदि मानना, श्रद्धा भक्तिपूर्वक उनका पूजन करना, उन्हें नमस्कार करना, उनकी आज्ञा का पालन करना और समस्त कर्म उन्हीं के समर्पण कर देना आदि भगवान् की शरण होना है।
- ↑ ‘किम’ और ‘पुनः’ का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जब उपर्युक्त अत्यन्त दुराचारी (गीता 9।30) और चाण्डाल आदि नीच जाति के मनुष्य भी (गीता 9।32) मेरा भजन करके परम गति को प्राप्त हो जाते हैं, तब फिर जिनके आचार व्यवहार और वर्ण अत्यन्त उत्तम हैं, ऐसे मेरे भक्त पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्षिलोग मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त हो जायें – इसमें तो कहना ही क्या है!
- ↑ ‘भक्तः’ पद का सम्बन्ध ब्राह्मण और राजर्षि दोनों के साथ है, क्योंकि यहाँ भक्ति के कारण उनको परम गति की प्राप्ति बतलायी गयी है।
- ↑ मनुष्य देह बहुत ही दुर्लभ है। यह बड़े पुण्य बल से और खास करके भगवान् की कृपा से मिलता है और मिलता है केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही। इस शरीर को पाकर जो भगवत्प्राप्ति के लिये साधन करता है, उसी का मनुष्य जीवन सफल होता है। जो इसमें सुख खोजता है, वह तो असली लाभ से वन्चित ही रह जाता है; क्योंकि यह सर्वथा सुखरहित है, इसमें कहीं सुलख लेश भी नहीं है। जिन विषय भोगों के सम्बन्ध को मनुष्य सुखरूप समझता है, वह बार बार जन्म मृत्यु के चक्कर में डालने वाला होने के कारण वस्तुतः दुःखरूप ही है। अतएव इसको सुख रूप न समझकर यह जिस उदे्श्य की सिद्धि के लिये मिला है, उस उदेश्य को शीघ्र से शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहिये; क्योंकि यह शरीर क्षण भंगुर है, पता नहीं, किस क्षण इसका नाश हो जाय! इसलिये सावधान हो जाना चाहिये। न इसे सुखरूप समझकर विषयों में फॅसना चाहिये और न इसे नित्य समझकर भजन में देर ही करनी चाहिये। कदाचिंत् अपनी असावधानी में यह व्यर्थ ही नष्ट हो गया तो फिर सिवा पछताने के और कुछ भी उपाय हाथ में नहीं रह जायगा। श्रुति कहती है –
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विंनष्ट:।
(केनोपनिषद 2।5) ‘यदि इस मनुष्य जन्म में परमात्मा को जान लिया तो तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म में नहीं जाना तब तो बड़ी भारी हानि है।’ इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ऐसे शरीर को पाकर नित्य निरन्तर मेरा भजन ही करो। क्षणभर भी मुझे मत भूलो।
- ↑ भगवान् ही सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वलोक महेश्वर, सर्वातीत, सर्वमय, निर्गुण-सगुण, निराकार साकार, सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य के समुद्र और परम प्रेमस्वरूप हैं- इस प्रकार भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य का यथार्थ परिचय हो जाने से जब साधक को यह निश्चय हो जाता है कि एकमात्र भगवान् ही हमारे परम प्रेमास्पद हैं, तब जगत की किसी भी वस्तु में उसकी जरा भी रमणीय बुद्धि नहीं रह जाती। ऐसी अवस्था में संसार के किसी दुर्लभ से दुर्लभ भोग में भी उसके लिये कोई आकर्षण नहीं रहता। जब इस प्रकार की स्थिति हो जाती है, तब स्वाभाविक ही इस लोक और परलोक की समस्त वस्तुओं से उसका मन सर्वथा हट जाता है, और वह अनन्य तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरन्तर भगवान् का ही चिन्तन करता रहता है। भगवान् का यह प्रेमपूर्ण चिन्तन ही उसके प्राणों का आधार होता है, वह क्षणमात्र की भी उनकी विस्मृति को सहन नहीं कर सकता। जिसकी ऐसी स्थिति हो जाती है, उसी को ‘भगवान् में मनवाला’ कहते है।
- ↑ भगवान् ही परमगति हैं, वे ही एकमात्र भर्ता और स्वामी हैं, वे ही परम आश्रय और परम आत्मीय संरक्षक हैं, ऐसा मानकर उन्हीं पर निर्भर हो जाना, उनके प्रत्येक विधान में सदा ही संतुष्ट रहना, उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करना, भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदि के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि में अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को निमग्न रखना और उन्हीं की प्राप्ति के लिये प्रत्येक कार्य करना- इसी का नाम ‘भगवान् का भक्त बनना’ है।
- ↑ भगवान के मन्दिरों में जाकर उनके मंगलमय विग्रह का यथाविधि पूजन करना, सुविधानुसार अपने अपने घरों में इष्टरूप भगवान् की मूर्ति स्थापित करके उसका विधिपूर्वक श्रद्धा और प्रेम के साथ पूजन करना, अपने हदय में या अन्तरिक्ष में अपने सामने भगवान् की मानसिक मूर्ति स्थापित करके उसकी मानस पूजा करना, उनके वचनों का, उनकी लीला भूमिका और चित्रपट आदि का आदर सत्कार करना, माता-पिता, ब्राह्मण, साधु महात्मा और गुरुजनों को तथा अन्य समस्त प्राणियों को भगवान् का ही स्वरूप समझकर या अन्तर्यामी रूप से भगवान् सबमें व्याप्त हैं, ऐसा जानकर सबका यथायोग्य पूजन, आदर सत्कार करना और तन मन धन से सबको यथायोग्य सुख पहॅुचाने की तथा सबका हित करने की यथार्थ चेष्ठा करना- ये सभी क्रियाऍ ‘भगवान् की पूजा’ ही कहलाती हैं।
- ↑ भगवान् के साकार या निराकार रूप को, उनकी मूर्ति को, चित्रपट को, उनके चरण, चरणपादुका या चरणचिह्नों को, उनके तत्त्व, रहस्य, प्रेम, प्रभाव का और उनकी मधुर लीलाओं का व्याख्यान करने वाले सत शास्त्रों को, माता पिता, ब्राह्मण, गुरु, साधु संत और महापुरुषों को तथा विश्व के समस्त प्राणियों को उन्हीं का स्वरूप समझकर या अन्तर्यामी रूप से उनकों सबमें व्याप्त जानकर श्रद्धा भक्ति सहित, मन, वाणी और शरीर के द्वारा यथायोग्य प्रणाम करना – यही ‘भगवान् को नमस्कार करना’ है।
- ↑ यहाँ 'आत्मा' शब्द मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर का वाचक है; तथा इन सबको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् में लगा देना ही आत्मा को उसमें युक्त करना है।
- ↑ इस प्रकार सब कुछ भगवान् को समर्पण कर देना और भगवान् को ही परम प्राप्य, परम गति, परम आश्रय और अपना सर्वस्व समझना ‘भगवान् के परायण’ होना है।
- ↑ इसी मनुष्य शरीर में ही भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाना, भगवान् को तत्त्व से जानकर उनमें प्रवेश कर जाना अथवा भगवान् के दिव्य लोक में जाना, उनके समीप रहना अथवा उनके जैसे रूप आदि को प्राप्त कर लेना- ये सभी भगवत्प्राप्ति ही हैं।
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| उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध
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| कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद
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| अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडवों की व्यूह रचना
| उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध
| पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़
| दुर्योधन और भीष्म का संवाद
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| कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना
| अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति
| कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण
| भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध
| अभिमन्यु का पराक्रम
| धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध
| धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध
| भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार
| भीमसेन का पराक्रम
| सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़
| भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम
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| नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन
| भगवान श्रीकृष्ण की महिमा
| ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता
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| भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध
| भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध
| कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध
| कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध
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| कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
| श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़
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| शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय
| धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध
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| युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय
| महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना
| भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय
| सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ
| अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण
| युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ
| भीमसेन का पुरुषार्थ
| भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध
| धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम
| द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा
| व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध
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| दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप
| कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार
| इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध
| अलम्बुष द्वारा इरावान का वध
| घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध
| घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध
| घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन
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| दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था
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| विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन
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| शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध
| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
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| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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