प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 39वें अध्याय में 'प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

सम्बध- पूर्व में कृष्ण ने अर्जुन को पहले और तीसरे श्लोकों में संसार वृक्ष के नाम से क्षर पुरुष का वर्णन किया, उसमें जीवरूप अक्षर पुरुष के बन्धन हेतु तथा उसके द्वारा मनुष्य योनि में अहंता-ममता और आसक्तिपूर्वक किये हुए कर्मों को बताया तथा उस बंधन से छूटने का उपाय और सृष्टिकर्ता आदि पुरुष पुरुषोत्म की शरण ग्रहण करना बताया। अब इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उपयुक्त प्रकार से बॅधे हुए जीव का क्या स्वरूप है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, उसे कौन कैसे जानता है अतः इन सब बातों का स्पष्टीकरण करने के लिये पहले कृष्ण अर्जुन को जीव का स्वरूप बतलाते है-

कृष्ण द्वारा अर्जुन से जीव के स्वरूप का वर्णन करना

कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है[2] और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को[3] आकर्षण करता हैं। सम्बन्ध-यह जीवात्मा मनसहित छः इन्द्रियों को किस समय, किस प्रकार और किस लिये आकर्षित करता है तथा वे मनसहित छः इन्द्रियां कौन-कौन है- ऐसी जिज्ञासा होने पर अब दो श्लोकों में इसका इसका उत्तर दिया जाता है- वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।[4][1] यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।[5] शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को-इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्त्व से जानते हैं।[6] यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं[7] किंतु जिन्‍होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यक्ष करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।[8][9]

सम्बन्ध-छठे श्लोक पर दो शंकाएं होती है- पहली यह कि सबके प्रकाशक सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि आदि तेजोमय पदार्थ परमात्मा को क्यों नहीं प्रकाशित कर सकते और दूसरी यह कि परमधाम को प्राप्त होने के बाद पुरुष वापस क्‍यों नहीं लौटते। इनमें से दूसरी शंका के उत्तर में सातवें श्लोक में जीवात्मा को परमेश्वर सनातन अंश बतलाकर ग्यारहवें श्लोक तक उसके स्वरूप, स्वभाव और व्यवहार का वर्णन करते हुए उसका यथार्थ स्वरूप जानने वालों की महिमा कही गयी। अब पहली शंका का उत्तर देने के लिये भगवान् बारहवें से पन्द्रवें श्लोक तक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्यसहित अपने स्वरूप का वर्णन करते हैं। सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है, उसको तू मेरा ही तेज जान।[10] और मैं ही पृथ्वी प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हॅू।[11] और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।[12] मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।[13][9] मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है[14] और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हॅू[15] तथा वेदान्त का कर्ता[16] और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।

सम्बन्ध-कृष्ण द्वारा अर्जुन से पहले से छठे श्लोक तक वृक्षरूप से संसार का दृढ वैराग्य के द्वारा उसके छेदन का, परमेश्वर की शरण में जाने का, परमात्मा को प्राप्त होने वाले पुरुषों कि लक्षणों का और परमधाम स्वरूप परमेश्वर की महिमा का वर्णन करते हुए अश्वत्थ वृक्षरूप क्षर पुरुष का प्रकरण पूरा किया। फिर उसके बाद तदनन्तर सातवें श्लोक से ‘जीव’ शब्द वाच्य उपासक अक्षर पुरुष का प्रकरण आरम्भ करके उसके स्वरूप, शक्ति स्वभाव और व्यवहार का वर्णन करने के बाद उसे जानने वालों की महिमा कहते हुए ग्यारहवें श्लोक तक उस प्रकरण को पूरा किया। फिर बारहवें श्लोक से उपास्यदेव ‘पुरुषोत्तम’ का प्रकरण आरम्भ करके पन्द्रहवें श्लोक तक उसके गुण, प्रभाव और स्वरूप का वर्णन करते हुए उस प्रकरण को भी पूरा किया। अब अध्याय की समाप्ति तक पूर्वोक्त तीनों प्रकरणों का सार संक्षेप में बतलाने के लिये अगले श्लोकों-में क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन करते हैं- इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी, ये दो प्रकार के पुरुष है। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। इन दोनों उत्तम पुरुष तो अन्य ही है,[17] जो तीनों लोकों मे प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है।[18] क्‍योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं[19] इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है,[20] वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।[21] हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोंपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।[22][23]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 4-8
  2. जैसे सर्वत्र समभाव से स्थित विभागरहित महाकश घडे़ और मकान आदि के सम्बन्ध से विभक्त-सा प्रतीत होने लगता है और उन घड़े आदि में स्थित आकाश महाकश का अंश माना जाता है, उसी प्रकार यद्यपि मैं विभाग रहित समभाव से सर्वत्र व्याप्त हूं, तो भी भिन्न-भिन्न शरीरों के सम्बन्ध से पृथक् पृथक् विभक्त सा प्रतीत होता हूँ ( गीता 13/16) और उन शरीरों मे स्थित जीवा मेरा अंश माना जाता है तथा इस प्रकार का यह विभाग अनादि है, नवीन नहीं बना है। यही भाव दिखलाने के लिये जीवात्मा को भगवान् ने अपना सनातन अंश बतलाया है।
  3. पांच ज्ञानेन्द्रियां और एक मन- इन छहों की ही सब विषयों अनुभव करने में प्रधानता है, कमेन्द्रियों का कार्य भी बिना ज्ञानेन्द्रियों के नहीं चलता इसलिये यहाँ मन के सहित इन्द्रियों की संख्या छः बतलायी गयी है। अतएव पांच कमेन्द्रियों का इनमें अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए।
  4. यहाँ आधार के स्थान में स्थूल शरीर है, गन्ध के स्थान में सूक्ष्म शरीर है जो वायु के स्थान में जीवात्मा है। जैसे वायु गन्ध को एक स्थान से उडाकर दूसरे स्थान में ले जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राणों के समुदायरूप सूक्ष्म शरीर को एक स्थूल शरीर से निकालकर दूसरे स्थूलशरीर में ले जाता है। यद्यपि जीवात्मा परमात्मा का ही अंश होने के कारण वस्तुतः नित्य और अचल है, उसका कहीं आना-जाना नहीं बन सकता, तथापि सूक्ष्मशरीर के साथ इसका सम्बन्ध होने के कारण सूक्ष्मशरीर के द्वारा एक स्थूलशरीर से दूसरे स्थूलशरीर में जीवात्मा का जाना-सा प्रतीत होता है इसलिये यहाँ ‘संयाति’ क्रिया का प्रयोग करके जीवात्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना बतलाया गया है। गीता के दूसरे अध्याय के 22 वें श्लोक में भी यही बात कही गयी हैं।
  5. वास्तव में आत्मा न तो कर्मों का कर्ता है और न उनके फलस्वरूप विषय एवं सुख-दुःखादिका भोक्ता ही किंतु प्रकृति और उसके कार्यों के साथ जो उसका अज्ञान से अनादि सम्बन्ध माना हुआ है, उसके कारण वह कर्ता-भोक्ता बना हुआ है। (गीता 13/21) श्रुति में भी कहा है- ‘आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भाक्तेत्याहुर्मनीषिणः।’ (कठोपनिषद् 1/3/4) अर्थात् ‘मन’ बुद्धि और इन्द्रियों से युक्त आत्मा को ही ज्ञानीजन भोक्ता- ऐसा समझते हैं।’
  6. ज्ञानीजन शरीर छोड़कर जाते समय, शरीर में रहते समय और विषयों का उपभोग करते समय हरेक अवस्था में ही वह आत्मा वास्तव में प्रकृति से सर्वथा अतीत, शुद्ध, बोधस्वरूप और असंग ही है-ऐसा समझते हैं।
  7. जिनका अन्तःकरण शुद्ध है और अपने वश में है तथा जो आत्मस्वरूप को जानने के लिये निरन्तर श्रवण, मनन और निदिध्यासनादि प्रयत्न करते रहते हैं, ऐसे उच्चकोटि के साधक ही ‘यत्न करने वाले योगीजन’ है तथा जिस जीवात्मा का प्रकरण चल रहा है और जो शरीर के सम्बन्ध से हृदय में स्थित कहा जाता है, उसके नित्य-शुद्ध विज्ञानानन्दमय वास्तविक स्वरूप को यर्थाथ जान लेना ही उनका ‘इस आत्मा को तत्त्व से जानना’ है।
  8. जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है अर्थात् न तो निष्काम कर्म आदि के द्वारा जिनके अन्तःकरण का मल सर्वथा धुल गया है एवं न जिन्‍होंने भक्ति आदि के द्वारा चित्त को स्थिर करने का ही कभी समुचित अभ्यास किया है, ऐसे मलिन और विक्षिप्त अन्तःकरण वाले पुरुषों को ‘अकृतात्मा’ कहतें हैं। ऐसे मनुष्य अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाने की चेष्टा न करके यदि केवल उस आत्मा को जानने के लिये शास्त्रलोचन रूप प्रयत्न करते रहें तो भी उसके तत्त्व को नहीं समझ सकते।
  9. 9.0 9.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 9-14
  10. सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि में स्थित समस्त तेज को अपना तेज बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उन तीनों में और वे जिनके देवता है-ऐसे नेत्र, मन और वाणी में वस्तु को प्रकाशित करने की जो कुछ भी शक्ति है-वह मेरे ही तेज का एक अंश है। इसीलिये छठे श्लोक में भगवान् ने कहा है कि सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि -ये सब मेरे स्वरूप को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं हैं।
  11. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि इस पृथ्वी में जो भूतों को धारण करने की शक्ति प्रतीत होती है तथा इसी प्रकार और किसी में जो धारण करने की शक्ति है, वह वास्तव में उसकी नहीं, मेरी ही शक्ति का अंश है। अतएव में स्वयं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपने बल से समस्त प्राणियो को धारण करता हूँ।
  12. ‘औषधिः’ शब्द पत्र, पुष्प और फल आदि समस्त अंग प्रत्यंगों के सहित वृक्ष, लता और तृण आदि जिनके भेद है-ऐसी समस्त वनस्पतियों का वाचक है तथा ‘मैं ही चन्द्रमा बनकर समस्त औषधियों का पोषण करता हूं’ इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि जिस प्रकार चन्द्रमा में प्रकाशन शक्ति मेरे ही प्रकाश का अंश है, उसी प्रकार जो उसमें पोषण करने की शक्ति है, वह भी मेरा ही शक्ति का अंश है अतएव मैं ही चन्द्रमा के रूप में प्रकट होकर सबका पोषण करता हूँ।
  13. यहाँ भगवान् यह बतला रहे हैं कि जिस प्रकार अग्नि की प्रकाशन शक्ति मेरे ही तेज का अंश है, उसी प्रकार उसका जो उष्णत्व है अर्थात् उसकी जो पाचन, दीपन करने की शक्ति है, वह भी मेरी ही शक्ति का अंश है अतएव मैं ही प्राण और अपान से संयुक्त प्राणियों के शरीर में निवास करने वाले वैश्वानर अग्नि के रूप् में भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य पदार्थों को अर्थात दांतों से चबाकर खाये जाने वाले रोटी, भात आदि निगलकर खाये जाने वाले रबडी, दूध, पानी आदि चाटकर खाये जाने वाले शहद, चटनी आदि को चूसकर खाये जाने वाले ऊख आदि- ऐसे चार प्रकार के भोजन को पचाता हूँ।
  14. पहले देखी सुनी या किसी प्रकार की अनुभव की गयी वस्तु या घटनादि के स्मरण का नाम ‘स्मृति’ है। किसी भी वस्तु को यथार्थ जान लेने की शक्ति का नाम ‘ज्ञान’ है तथा संशय, विपर्यय आदि वितर्क-जाल का वाचक ‘ऊहन’ है और उसके दूर होने का नाम ‘अपोहन’ है। ये तीनों मुझसे ही होते है, यह कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि सबके हृदय में स्थित मैं अन्तर्यामी परमेश्वर ही सब प्राणियों के कर्मानुसार उपयुक्त स्मृति, ज्ञान और अपोहन आदि भावों को उनके अन्तःकरण में उत्पन्न करता हूं
  15. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि वेदों में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्डात्मक जितने भी वर्णन हैं, उन सबका अंतिम लक्ष्य संसार में वैराग्य उत्पन्न करके सब प्रकार के अधिकारियों को मेरा ही ज्ञान करा देना है। अतएव उनके द्वारा जो मनुष्य मेरे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं, वे ही वेदों के अर्थ को ठीक समझते हैं। इसके विपरित जो लोग सांसारिक भोगों में फंसे रहते हैं, वे उनके अर्थ को ठीक नहीं समझते।
  16. इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि वेदों में प्रतीत होने वाले विरोधी का वास्तविक समन्वय करके मनुष्य को शांति प्रदान करने वाला मैं ही हूँ।
  17. ‘उत्तम पुरुष’ नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वशक्तिमान, परमदयालु, सर्वगुण सम्पन्न पुरुषोत्तम भगवान का वाचक है, वह पुर्वोक्त क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से विलक्षण और अत्यन्त श्रेष्ठ है।
  18. विलक्षण और अत्यन्त श्रेष्ठ है। जो तीनों लोकों में प्रविष्ट रहकर उनके नाश होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता, सदा ही निर्विकार, एकरस रहता है तथा जो क्षर और अक्षर-इन दोनों का नियामक और स्वामी तथा सर्वशक्तिमान ईश्वर है एवं जो गुणातीत, शुद्ध और सबका आत्मा है- वही परमात्मा ‘पुरुषोत्तम’ है।

    क्षर, अक्षर और ईश्वर इन तीनों तत्त्वों का वर्णन श्वेताश्वतारोपनिषद् में इस प्रकार आया है-
    क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानाबीशते देव एकः।

    ‘प्रधान यानी प्रकृति का नाम क्षर है और उसके भोक्ता अविनाशी आत्मा का नाम अक्षर है। प्रकृति और आत्मा-इन दोनों शासन एक देव (पुरुषोत्तम) करता है।

  19. अपने को ‘क्षर’ पुरुष से अतीत बतलाकर भगवान ने यह दिखलाया है कि मैं क्षर पुरुष से सर्वथा सम्बन्धरहित और अतीत हूँ। अक्षर से अपने को उत्तम बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि क्षर पुरुष की भाँति मैं अतीत तो नहीं हूं, क्‍योंकि वह मेरा ही अंश होने के कारण अविनाशी और चेतन है किंतु उससे मैं उत्तम अवश्य हूँ क्‍योंकि वह अल्पज्ञ है, मैं सर्वज्ञ हूँ वह नियम्य है, मैं नियामक हूँ वह मेरा उपासक है, मैं उसका स्वामी उपास्यदेव हूँ और वह अल्पशक्ति सम्पन्न है, मैं सर्वशक्तिमान् हूं; अतएव उसकी अपेक्षा से मैं सब प्रकार से उत्तम हूँ।
  20. इस कथन से भगवान ने यह बताया है कि मुझ सर्वशक्तिमान, समाधार, समस्त जगत सृजन, पालन, और संहार आदि करने वाले, सबके परम सुहृदय सबसे एकमात्र नियंता, सर्वगुणसम्पन्न, परमदयालु, परमप्रेमी, सर्वान्तयामी, सर्वव्यापी परमेश्वर को उपयुक्त श्लोको में वर्णित प्रकार से क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से उत्तम निर्गुण-सगुण-गुणातीत और सर्वगुणसम्पन्न साकार-निराकार, व्यक्ताव्यक्त स्वरूप परम पुरुष मान लेना ही मुझको ‘पुरुषोत्तम’ जानना है।
  21. भगवान को पुरुषोत्तम समझने वाले पुरुष जो समस्त जगत से प्रेम हटाकर केवल मात्र परम प्रेमास्पद एक परमेश्वर में ही पूर्ण प्रेम करना एवं बुद्धि से भगवान के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य, लीला, स्वरूप और महिमा पर पूर्ण विश्वास करना उनके नाम, गुण, प्रभाव, चरित्र और स्वरूप आदि श्रद्धा और प्रेमपूर्वक मान से चिन्तन करना, कानों से श्रवण करना, वाणी से र्कीतन करना, नेत्रो से दर्शन करना, एवं उनकी आज्ञा के अनुसार सब कुछ उनका समझकर तथा सब में उनको व्याप्त समझकर कर्तव्य-कर्मो द्वारा सबको सुख पहुँचाने हुए उनकी सेवा आदि करना है-यही भगवान को सब प्रकार से भजना है।
  22. इस अध्याय में वर्णित भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूप आदि को भलीभाँति समझकर भगवान को पूर्वोक्त प्रकार से साक्षात् पुरुषोत्तम समझ लेना ही इस शास्त्र को तत्त्व से जानना है तथा उसे जानने वाले का जो उस पुरुषोत्तम भगवान को अपरोक्षभाव से प्राप्त कर लेना है, यही उसका बुद्धिमान अर्थात ज्ञानवान हो जाना है और समस्त कतर्व्‍यों को पूर्ण कर चुकना-सबके फल को प्राप्त हो जाना ही कृतकृत्य हो जाना है।
  23. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 39 श्लोक 15-20

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| दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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