महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 108 श्लोक 26-50

अष्टाधिकशततम (108) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टाधिकशततम अध्याय: श्लोक 26-50 का हिन्दी अनुवाद


संजय ने कहा- महाराज! पाण्डव तथा सृंजयों द्वारा आपके पुत्र की सेना के पीड़ित होने पर आपके ताऊ भीष्म ने जो कुछ किया था, वह सब आपको बता रहा हूँ। पाण्डु के बड़े भैया! शूरवीर पाण्डव मन में हर्ष और उत्साह भरकर आपके पु़त्र की सेना का संहार करते हुए आगे बढे़। नरेन्द्र! उस समय मनुष्यों, हाथियों और घोड़ों के उस विनाश को रणक्षेत्र में शत्रुओं द्वारा किये जाने वाले अपनी सेना के संहार को भीष्म जी नहीं सह सके। वे महाधनुर्धर दुर्धर्ष वीर भीष्म अपने जीवन का मोह छोड़कर पाण्डवों, पांचालों तथा सृंजयों पर तीखे नाराच, वत्सदन्त और अमांगलिक आदि बाणों की वर्षा करने लगे। राजन! वे अस्त्र-शस्त्र लेकर पाण्डव पक्ष के पाँच श्रेष्ठ महारथियों का रणक्षेत्र में बाणों द्वारा यत्नपूर्वक निवारण करने लगे।

उन्होंने बल और क्रोध से चलाये हुए नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा द्वारा समरांगण में उन पाँचों महारथियों को मार डाला और कुपित होकर असंख्य हाथी-घोड़ों का भी संहार कर डाला। राजन! पुरुषश्रेष्ठ भीष्म ने कितने ही रथियों को रथों से, घुड़सवारों को घोड़ों की पीठों से, शत्रुओं पर विजय पाने वाले हाथी सवारों को हाथियों से तथा सामने आये हुए पैदल सिपाहियों को भी मार गिराया। समरभूमि में फुर्ती दिखाने वाले एकमात्र महारथी भीष्म पर समस्त पाण्डवों ने उसी प्रकार धावा किया, जैसे असुर वज्रधारी इन्द्र पर आक्रमण करते हैं। भीष्म इन्द्र के वज्र के समान दुःसह स्पर्श वाले पैने बाणों की वर्षा कर रहे थे और सम्पूर्ण दिशाओं में भयंकर स्वरूप धारण किये दिखायी देते थे। संग्रामभूमि में युद्ध करते हुए भीष्म का इन्द्रधनुष के समान विशाल धनुष सदा मण्डलाकार ही दिखायी देता था। प्रजानाथ! रणक्षेत्र में आपके पुत्र पितामह के उस कर्म को देखकर अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उस समय कुन्ती के पुत्र खिन्नचित होकर रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए आपके ताऊ शूरवीर भीष्म की ओर उसी प्रकार देखने लगे, जैसे देवता विप्रचित्ति नामक दानव को देखते है। वे मुँह फैलाये हुए काल के समान भीष्म को रोक न सके। दसवाँ दिन आने पर भीष्म जैसे दावाग्नि वन को जला देती है, उसी प्रकार शिखण्डी की रथ सेना को तीखे बाणों की आग में भस्म करने लगे।

तब शिखण्डी ने तीन बाणों से भीष्म की छाती में प्रहार किया। उस समय वे कालप्रेरित मृत्यु तथा क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान जान पड़ते थे। शिखण्डी के द्वारा अत्यन्त घायल हो भीष्म उसकी ओर देखकर अत्यन्त कुपित हो बिना इच्छा के हँसते हुए इस प्रकार बोले- 'अरे, तू इच्छानुसार प्रहार कर या न कर! मैं तेरे साथ किसी तरह युद्ध नहीं करूँगा। विधाता ने जिस रूप में तुझे उत्पन्न किया था, तू वही शिखण्डीनी है। उनकी यह बात सुनकर शिखण्डी क्रोध से मूर्च्छित-सा हो गया और अपने मुँह के कोनों को चाटता हुआ भीष्म से इस प्रकार बोला। क्षत्रियों का विनाश करने वाले महाबाहु भीष्म! मैं भी आपको जानता हूँ। मैंने सुना है कि आपने जमदग्निनन्दन परशुराम जी के साथ युद्ध किया था। आपका यह दिव्य प्रभाव बहुत बार मेरे सुनने में आया है। आपके उस प्रभाव को जानकर भी मैं आज आपके साथ युद्ध करूंगा।

नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! आज पाण्डवों का और अपना भी प्रिय करने के लिये रणक्षेत्र में खूब डटकर आपका सामना करूंगा। मैं आपके सामने सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि आज आपको निश्चय ही मार डालूँगा। मेरी यह बात सुनकर आपको जो कुछ करना हो, वह कीजिये। युद्धविजयी भीष्म जी! आप मुझ पर इच्छानुसार प्रहार कीजिये या न कीजिये; परंतु आज आप मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेंगे। अब इस संसार को अच्छी तरह देख लीजिये।' संजय कहते है- राजन! ऐसा कहकर शिखण्डी ने जिन्हें पहले वचनरूपी बाणों से पीड़ित किया था, उन्हीं भीष्म को झुकी हुई गाँठ वाले पाँच सायकों द्वारा घायल कर दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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