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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
1. उन्हें श्वेता: पुमांसा या गोरे रंग का कहा गया है।[1] इसे ही अन्यत्र चन्द्रवर्चसः मानवाः[2] या चन्द्रमा के रंग के गोरे पुरुष कहा है। और भी, श्वतेतांश्चन्द्रप्रतीकाशान्सर्वलक्षणलक्षितान्[3] कहा गया है। वे अत्यन्त श्वेत वस्त्र पहनते थे और ऐसा कोई अन्न नहीं खाते थे, जिसमें हिंसा हो। 2. वे श्वेतद्वीप के निवासी एकान्त भाव के जाने वाले थे- एकान्तभावोपगताः[4], एकान्तिनस्ते पुरुषाः श्वेतद्वीप-निवासिनः।[5] यहाँ एकान्त धर्म का तात्पर्य अहुरमज्द के धर्म से था, जिसके लिए भारतीय शब्द ब्रह्म या देवहरिमेधस था। 3. वे चन्द्रवर्चस पुरुष पूर्व और उत्तर की ओर मुंह करके हाथ जोड़े हुए मानस जप कर रहे थेः नित्यान्जलिकृतान्ब्रह्म जपतः प्रागुदङ्मुखान। उनके नेत्रों की पलकें स्थिर थीं (निष्पन्दहीनाः)[6], जैसा कि दस्तूर सर्य की ओर दृष्टि के समय आज भी करते हैं। 4. वे अनशन अर्थात निराहार व्रत के अनुयायी थे। आगे कहा गया है कि इस प्रकार के श्वेत पुरुष फेनपाचार्य[7] थे। श्वेतद्वीप निवासी इन पुरुषों को मोक्ष मिलता है। 5. वे उत्तम-उत्तम सुगन्धियों[8] के शौकीन थे, जिन्हें वे वस्त्रों और शरीर में लगाते थे। उन दस्तूर Magi पुरोहितों के वंशज आज भी बम्बई तट पर मानस जप करते देखे जा सकते हैं। 6. वे आंख बन्द किये रहते थे और सब पापों से निवृत्त माने जाते थे। उनके श्वेत वस्त्र और श्वेत वर्ण मानसिक पवित्रता के सूचक थे। उन्हें निरिन्दय और पंचेन्द्रियविविर्जिताः कहा गया है। इसका मुख्य लक्ष्य उनके ब्रह्मचर्य व्रत पर था। वे विवाह नहीं करते थे। [9] इन लक्षणों को सुनकर युधिष्ठिर ने पुनः पूछा कि हमारे यहाँ जो पुरुष मुक्त हो जाते हैं, उनमें तो ये गुण नहीं मिलते, तो आपने अभी श्वेत द्वीप के लोगों के बारे में कहे हैं। वहाँ ऐसे लोगों का जन्म कैसे हुआ?[10] पापरहित होने के लिए जिस सात्वत विधि का उल्लेख है, वह मनसा, वाचा, कर्मणा शुद्ध बनने का उपाय था, जो सर्वांश में ईरानी धर्म से मिलता हैः 1. वाक्-सूक्त = हूख्त 2. मनःशुद्धि-सुमत = हुमत 3. कर्मशुद्धि- हुवश्व इन तीन विशेषताओं को संस्कृत भाषा में इस प्रकार स्पष्ट कहा गया है। नानृता वाक्समभवन्मनौ दृष्टं न चाभवत्। अर्थात वाक में अनृत का अंश नहीं था। मन में कोई दुष्ट भाव नहीं था और शरीर से परमाणु बराबर भी पाप नहीं करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 322।9
- ↑ 322। 9
- ↑ 323। 31-33
- ↑ 349। 25-26
- ↑ 313। 26
- ↑ 322।8
- ↑ 325। 100
- ↑ सुगन्धिनः, 322। 130; 322। 9; 3232। 25
- ↑ अतीन्द्रियाश्चानशनाश्च तत्र निष्पन्दहीनाः सुसुगन्धिनश्च। (322।9)
- ↑ 322।13-अतिन्द्रया निराहारा अनिष्पदाः सुगन्धिनः
- ↑ 322। 250
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