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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 50-58
भीष्म ने कहा, “महान धर्म को प्रणाम है।[1] मैं राजधर्म का वर्णन करूंगा। हे युधिष्ठिर, तुम राजधर्मों का सार सुनो। पहली बात यह है कि राजाओं को प्रजारंजन की कामना से शासन में प्रवृत्त होना चाहिए। ऐसा करके राजा लोक से उऋण होता है और सम्मान पाता है। राजा को अकर्मण्य और उदासीन न रहकर सदा उत्थान का सेवन करना चाहिए। उत्थान के बिना भाग्य कुछ नहीं कर सकता। दैव और उत्थान दोनों में उत्थान ही प्रधान है। समारम्भ को निर्बल देखकर विषाद मत करो, किन्तु समारम्भ को अपनाओ। सत्य के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से राजा को सिद्धि नहीं मिलती। सत्य में लगा हुआ राजा इस लोक में और परलोक में सुखी होता है। सत्य ही ऋषियों का परम धन है। राजा यदि मृदु होता है तो लोग उसे दबाना चाहते हैं, यदि वह तीक्ष्ण होता है तो लोग उससे भयभीत होते हैं। अतः उसे चाहिए कि मृदु और तीक्ष्ण दोनों उपायों का अवलम्बन करे। “ब्राह्मणवृत्ति वाले लोग उदण्ड्य होते हैं। मनु का कथन है कि ब्राह्मण-वृत्ति से क्षत्रिय वृत्ति का जन्म उसी प्रकार होता है, जैसे पत्थर से लोहे का। जो लोकतन्त्र को बिगाड़ते हैं उनका निग्रह करना राजा का आवश्यक कर्तव्य है। उशना के राज्य-शास्त्र में कहा है कि वेदान्त ज्ञानी भी युद्धभूमि में शस्त्र लेकर आवे तो उसका अवश्य निग्रह करना चाहिए। यदि बड़े धर्म का लोप हो रहा हो तो अवश्य उसकी रक्षा करनी चाहिए। उससे तो एक व्यक्ति का पुण्य दूसरे के पाप को काटता है। राजा को चाहिए कि प्रज्ञाशील, गुणी व्यक्तियों का संचय करे, वही नरदुर्ग है। बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र में कहा है कि क्षमाशील राजा का नीच लोग परिभव करने लगते हैं। इसलिए राजा को मृदु या बहुत तीक्ष्ण भी न होना चाहिए। वसन्त में जैसे सूर्य न बहुत शीत होता है और न बहुत उष्ण, ऐसी वृत्ति राजा की होनी चाहिए। राजा को व्यसनों से बचना चाहिए। अपने और पराये की भली प्रकार जांच करनी चाहिए। जैसे गर्भिणी अपने मन की बात छोड़कर गर्भ के हित में बरतती है ऐसे ही राजा को भी होना चाहिए। यदि लोक हित की मांग हो तो अपने मन की प्रिय बात को टाल देनी चाहिए। धैर्य का त्याग करना उचित नहीं। राज्य धर्म में धैर्य का आश्रय मुख्य है। अपने भृत्यों से परिहास नहीं करना चाहिए इससे बुराई उठ खड़ी होती है। सेवक लोग मर्याद छोड़ देते हैं, और राजा की बात की अवहेलना करते हैं। राजसेवक न मांगने योग्य वस्तु मांगने लगते हैं। भूमि पर अधिकार जमाने लगते हैं। रिश्वत और वंचना से लोगों को ठगने लगते हैं और सारे राज्य को जालसाजी से जर्जर कर देते हैं। राजा के स्त्री अंगरक्षकों से मिल जाते हैं और उनके तुल्य वेष बदल लेते हैं। निर्लज्ज होकर बात करते हैं। राजा की सवारी को उपयोग में लाने लगते हैं। राजा को अपने भृत्यों के साथ हंसोड़पन की आदत छोड़नी चाहिए। अनुजीवी कहने लगते हैं कि राजा हमारी मुट्ठी में है।”[2] भीष्म ने पुनः कहा, “राजा को उद्यम का मार्ग अपनाना चाहिए। उद्यम का अर्थ उत्थान और युद्ध है। जो राजा युद्ध नहीं करता, वह पृथ्वी में विलीन हो जाता है। उसे क्षत्रिय वैसे ही ग्रस लेते हैं जैसे सर्प बिल में बैठे हुए चूहों और मेढ़कों को। जो संधि के योग्य हैं उनसे मेल करो और जो विरोध के योग्य हैं उनसे युद्ध करो। तुम्हारे सप्तांग राज्य में जो विपरीत रहता हो वह गुरु या मित्र भी हो तो वध के योग्य है। बृहस्पति के मतानुसार राजा मरुत्त ने पहले ही ऐसा कहा था। कार्य-अकार्य को न जानने वाले और अपथ या कुमार्ग में प्रवृत्त गुरु का भी त्याग करना आवश्यक है। राजा सगर ने पुरवासियों के हित के लिए अपने पुत्र असमन्जस को छोड़ दिया। उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को इसलिए छोड़ कि वह ब्राह्मणों से अच्छा व्यवहार न करता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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