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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 50-58
प्रातःकाल नित्यकर्मों से निवृत्त होकर सब लोग पुनः भीष्म की सेवा में पहुँचे। वहाँ नारद ने प्रश्न पूछने के लिए कहा, किन्तु किसी का साहस प्रश्न करने का न हुआ और सब कृष्ण से ही प्रश्न पूछने का आग्रह करने लगे। कृष्ण ने बात आरम्भ करते हुए कहा, “हे भीष्म, आप पूर्व और उत्तर काल के धर्मों के कुशल ज्ञाता हैं। आप अनुधर्मों को भी जानते हैं। जैसे पिता अपने पुत्र से कहता है ऐसे ही आप भी सब राजाओं को राजधर्म का उपदेश दीजिये। इनके पुत्र और पौत्र भी जो पूछें, उनका समाधान भी आप कीजिये।”[1] तब भीष्म ने कहा, “अच्छा, मैं अब राजधर्म का प्रवचन करूंगा। मेरी वाणी और मन समाहित हैं। युधिष्ठिर मुझसे इच्छानुसार प्रश्न करें। इससे मुझे प्रसन्नता होगी।” कृष्ण ने कहा, “युधिष्ठिर आपके सामने झिझकते हैं। इन्हें शाप का भी डर है, क्योंकि ये लोक के सर्वनाश का कारण बने। ये आपके सामने आना नहीं चाहते।” भीष्म ने युधिष्ठिर की झेंप मिटाने के लिए कहा कि जैसे ब्राह्मण के लिए दान, अध्ययन, तप धर्म हैं वैसे ही युद्ध क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म है। यह सुनकर युधिष्ठिर विनीत भाव से भीष्म के सामने आये और उन्होंने उनके पैर पकड़ लिये। भीष्म ने भी उनका स्वागत किया और कहा, “हे तात, मत डरो। विश्वास के साथ मुझसे प्रश्न करो।[2] युधिष्ठिर ने कहा, “जो धर्म को जानने वाले हैं, वे राजधर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। आप कृपया उस राजधर्म का कथन कीजिये। समस्त प्राणियों की परम गति राजधर्म है (सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्माः परायणम्) धर्म, अर्थ, काम यह त्रिवर्ग राजधर्म के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्षधर्म भी राजधर्म पर निर्भर है। जैसे अश्व के लिए बागडोर और हाथी के लिए अंकुश होता है, वैसे ही लोक को वश में लाने के लिए राजधर्म है। यदि राजर्षियों का चलाया हुआ धर्म पुष्ट नहीं रहता है तो लोक संस्था विचलित हो जाती है। जैसे सूर्य अपने उदय से आसुरी अन्धकार को नष्ट करता है वैसे ही राजधर्म से लोक की अशुभ गति को हटाया जाता है। इसलिए हे पितामह, आप सर्वप्रथम राजधर्म का कथन कीजिये।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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