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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 47
71. भीष्म स्तवराज
26. जो इस सृष्टि की रक्षा के लिए जीवों को राग और स्नेह के बन्धन रूपी मोह से युक्त रखता है, उस मोहात्मा भगवान को नमस्कार है। इस प्रकार यह नमःद्वात्रिंशिका स्तोत्र संस्कृत साहित्य में बेजोड़ है। यह गुप्त युग के किसी महान कवि की असाधारण कृति है। भीष्म की योग-निष्ठा और अध्यात्मिक भक्ति का इसमें प्रत्यक्ष दर्शन होता है। वैसे तो ईश्वर सहस्रधात्मा है किन्तु उसके द्वात्रिंशिकात्मा स्वरूप की कल्पना से इस स्तोत्र का जन्म हुआ। प्राचीन कल्पना के अनुसार स्तोत्र वाग्यज्ञ माना जाता था। उसका फल द्रव्य-यज्ञ से भी अधिक था और उसका करना सबके लिए सुगम था। इसी भावना से स्तोत्र कण्ठ करके घर पर या मन्दिर में देवता के सामने पढ़ा जाता था कि उसके द्वारा वाग्यज्ञ का विधान हो रहा है।[1] भीष्म के योग और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें कृष्ण के त्रैकालिक सर्वज्ञता का वरदान दिया। अध्याय 47 में योग और समाधि की झांकी थी। उसमें कोई कहीं गया आया नहीं। कथा का जो सिलसिला चल रहा था। उसके अनुसार युधिष्ठिर, कृष्ण, सात्यकि, चारों भाई, कृपाचार्य, युयुत्सु, सूत और संजय, अपने-अपने रथों में बैठकर कुरुक्षेत्र में भीष्म के पास जा पहुचें। कुरुक्षेत्र के प्रसंग में भार्गव परशुराम का चरित्र दे दिया गया है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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