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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 22-28
यदि कौरवों के नाश किये बिना कोई सफलता का उपाय पाण्डवों के हाथ लगता तो धर्म की रक्षा हो जाती और इन्हें पुण्य मिलता। यदि यथाशक्ति स्वकर्म पूरा करते हुए दैववश उन्हें मृत्यु का भी सामना करना पड़ा तो उनका मरण भी श्रेयस्कर है। क्या तुम यह मानते हो कि धर्मतंत्र युद्ध से स्थिर रहता है या तुम्हारा यही विचार है कि युद्ध न करने से धर्मतन्त्र बनता है? तुम्हारी बात मुझे कुछ गोलमोल जान पड़ती है। यदि कोई दूसरे की भूमि बलपूर्वक लेना चाहता है तो युद्ध अवश्य होगा। इसीलिए कवच, शस्त्र और धनुष उत्पन्न हुए हैं। इन्द्र ने दस्युओं के वध के लिए ही इन वस्तुओं को बनाया है। हे संजय, कौरवों से जाकर कहना कि ऐसे युद्ध में हमारा वध भी राज्य से अच्छा होगा। कौरवों ने जब द्रौपदी को सभा के बीच बुलवाया तब किसी एक ने भी धर्म की बात न कही। उस समय कर्ण ने अर्जुन के हृदय में जो नुकीला वाग्बाण मारा था, वह आज भी छिदा हुआ है। यदि आज स्वयं मेरे जाने की भी आवश्यकता हो तो मैं हस्तिनापुर चल सकता हूँ। पाण्डवों का उद्देश्य छोड़े बिना यदि शान्ति करा सकूं तो मेरा पुण्य होगा और मैं समझूंगा कि मुझसे अच्छा काम हुआ। दुर्योधन क्रोध का महावृक्ष है। कर्ण उसका तना, शकुनि उसकी शाखा है। दुःशासन फूल-फल है, पर इसकी जड़ निर्बुद्धि धृतराष्ट्र को ही मानना पड़ेगा, अथवा राजा धृतराष्ट्र और उसके पुत्र भारी वन के समान हैं। पाण्डव उसमें रहने वाले व्याघ्र हैं। हे संजय, ऐसा होना चाहिए कि वन और व्याघ्र का नाश न हो। वन न रहे तो व्याघ्र मरा ही हुआ है। बाघ न रहे तो वन कटा जैसा है। इसलिए बाघ वन को बचावे और वन बाघ का पालन करे, यही उचित है। पाण्डवों को हिमालय की तराई में खड़े हुए ऊंचे शालवृक्ष समझो। कौरवों उन मालझन लताओं के समान हैं, जो ऊंचे चढ़कर उन वृक्षों को लपेट लेती हैं। महावृक्ष के आश्रय के बिना लता कभी नहीं बढ़ पाती। पाण्डव शुश्रूषा और युद्ध दोनों के लिए तैयार हैं। धृतराष्ट्र जो उचित समझें, करें।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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