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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 12-23
‘‘सचमुच तुम ऐसे ही हो’’, यह कहते हुए भीम ने केश पकड़कर उसे धरती में दे मारा। तब दोनों एक-दूसरे से गुथ गए। वह भवन उनके संघर्ष और धक्कों से कांप उठा। तब शार्दूल के समान भीम ने उसे मृग के समान पछाड़कर उसके हाथ-पैर और ग्रीवा तोड़कर प्राणान्त कर डाला और तत्काल अपने स्थान पर लौट आया। तभी द्रौपदी ने सभापलों को सूचित किया, ‘‘देखो, मेरे गन्धर्व पतियों ने कीचक का वध कर डाला है।’’ सूचना पाकर कीचक के भाई-बन्धु वहाँ दौड़े आये और उसके शरीर का संस्कार करने के लिए ले चले। तभी खम्भे के पीछे खड़ी हुए द्रौपदी को देखकर उपकीचक ने कहा, ‘‘अरे, इस असती को भी क्यों नहीं मार देते, जिसके कारण कीचक के प्राण गए? अथवा सूतपूत्र के साथ ही इसका दाह करना चाहिए।’’ तब उन्होंने विराट से कहा, ‘‘आप आज्ञा दीजिए कि कीचक के साथ इसका हम दाह कर दें, क्योंकि इसी के लिए कीचक मारा गया है।’’ राजा विराट उन अपने सूत कीचकों के बल को जानता था। उसकी हिम्मत न हुई कि रोके। अतएव दबकर उसने अनुमति दे दी। तब उन कीचकों ने द्रौपदी को पकड़ लिया और उसे बांधकर श्मशान की ओर चले। द्रौपदी न रोते हुए पुकारकर कहा, ‘‘जय, जयन्त, वियज, जत्सेन और जयद्बल नामक मेरे गन्धर्व पति कृपा कर सुनें। ये सूतपुत्र मुझे ले जा रहे हैं।’’ कृष्णा के रुदन को सुनकर भीमसेन बिना कुछ विचारकर वहाँ कूद पड़े और कहले लगे, ‘‘ऐ सैरन्ध्री, मैं तुम्हारी बात सुनता हूँ। तुम मत डरो।’’ यह कहकर उसने वहीं प्राकार पर से एक वृक्ष उखाड़ लिया और कीचकों के पीछे दौड़ा। सिंह के समान क्रुद्ध भीम को आते हुए देखकर कीचक और उपकीचक द्रौपदी को छोड़कर भागे, किन्तु भीम ने उनमें से सैकड़ों का वध कर डाला। तब लोगों ने दौड़कर राजा विराट से पुकार की, ‘‘गान्धर्वों ने सैकड़ों सूतपुत्रों को मार डाला है और वह सैरन्ध्री छूटकर फिर से तुम्हारे घर आ रही है। सैरन्ध्री के कारण तुम्हारे इस पुर का नाश न हो, उससे पहले ही कुछ उपाय करो।’’ उसके वचन सुनकर विराट ने आज्ञा दी, ‘‘एक ही अग्नि में सब कीचकों की दाह-क्रिया करो।’’ फिर रानी सुदेष्णा से कहा, ‘‘सैरन्ध्री यहाँ आवे तो उससे कहो, जहाँ चाहे चली जाय। वह गन्धर्वों से रक्षित है। अतएव मैं स्वयं उससे कहने का साहस नहीं करता। पर स्त्रियों को दोष नहीं, अतः तुम कह सकती हो।’’ भय से छूटकर जब द्रौपदी नगर मे लौटी तो उसे देखकर लोग भागने लगे। गन्धर्वों के डर से कुछ ने नेत्र मूंद लिये। जब वह राजभवन में पहुँची तो सुदेष्णा ने राजा की आज्ञा से उससे कहा, ‘‘हे सैरन्ध्री, तुम शीघ्र यहाँ से चली जाओ। तुम्हारे गन्धर्वों से राजा को अपने पराभव का भय है।’’ द्रौपदी ने कहा, ‘‘हे रानी तेरह दिन राजा मुझे और क्षमा करें। उसके बाद मेरे गन्धर्व पति मुझे यहाँ से ले जायंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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