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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 4
सब मामलों में और बातचीत में राजा के अनुकूल ही रहे। जो अप्रिय और अहित हो, वह न कहे। पण्डित कभी यह न सोच ले कि मैं राजा का प्रियपात्र हूँ। अप्रमाद और संयम से हित और प्रिय का विधान करे। कभी राजा के अनिष्ट की सेवा न करे और न उसके अहितों के साथ मेल करे। अपने पद से विचलित न हो। बुद्धिमान को राजा के दाहिने या बाएं पार्श्व में बैठना चाहिए। शस्त्रधारी रक्षकों का स्थान राजा के पृष्ठ-भाग में होता है। राजा के सामने बैठना अविहित है। राजा की उपस्थिति में किसी बड़े-बूढ़े साथ भी कानाफूसी करके कुछ न कहे, क्योंकि राजा तो क्या, अशक्त व्यक्ति को भी कानाफूसी बहुत अप्रिय लगती है। राजा की गुह्य बात और मनुष्यों से प्रकट न करनी चाहिए। राजा जिससे असूया करे, उससे भाषण न करना चाहिए। अपने को शूर या बुद्धिमान मानकर गर्वित नहीं होना चाहिए। राजा का प्रिय आचरण करने से ही व्यक्ति भोगवान बनता है। राजा से ऐश्वर्य पाकर उसके प्रिय कामों में अप्रमत्त होना उचित है। जिसका कोप महा अनिष्टकर और प्रसाद महाफल वाला होता है, कौन बुद्धिमान मन से भी उसका अनर्थ करना चाहेगा? राजा के सामने होठ बिचकाना या बात कहकर उड़ाना ठीक नहीं। हास्य प्रसंग आने पर जोर से नहीं हसना चाहिए और न एकदम बिल्कुल गुमसुम ही हो जाना चाहिए। मृदुतापूर्वक मन्दस्मित के साथ आन्तरिक प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिए। कुछ मिलने पर जो प्रसन्न न हो, अपमान से व्यथित न हो और जो सदा चौकन्ना रहे उसे ही राजसेवा में रहना उचित है। जो अमात्य राजा या राजपुत्र के साथ जुड़ा रहता है वही चिरकाल तक लक्ष्मी का भाजन होता है। जो पहले के राजा का कृपापात्र होकर कारणवश रोषभाजन बन जाता है, किन्तु फिर भी क्रोध नहीं करता, वह पुनः प्रसाद प्राप्त कर लेता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष में उसे राजा का गुणवादी ही होना चाहिए, जो राज्य में रहकर उसका उपजीवी हो। जो अमात्य अपनी प्रार्थना के पीछे बल का प्रयोग करता है, उसके प्राण संशय में पड़ जाते हैं। सदा अपना श्रेय देखना चाहिए, पर राजा के साथ बाद में नहीं आना चाहिए और न उसके शस्त्राभ्यास आदि के समय उससे आगे निकलने का प्रयत्न करना चाहिए। कार्य के लिए दूसरे को आज्ञा दिए जाने पर जो अपने को सामने लाकर ‘मेरे लिए क्या आज्ञा है?’ यह पूछे, वह राजा के पास रहे। राजसेवक को उष्ण या शीत, रात या दिन में कभी भी आदेश मिलने पर विकल्प न करना चाहिए। कर्म में नियुक्त होने पर सदा अर्थशुचि रहना चाहिए। राजा के साथ बार-बार मंत्रणा करते रहना भी ठीक नहीं। इस प्रकार एक वर्ष तक कहीं निर्वाह करके फिर आप लोग अपने राज्य को लौट आयंगे।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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