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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 4
आश्रितों से विदा लेने का यह अवसर पाण्डवों के जीवन में अवश्य ही अत्यन्त मार्मिक रहा होगा। उसी समय धौम्य का भी मन भर आया और उन्होंने कहा, ‘‘जो सुहृद होते हैं उन्हें यदि कुछ हित की बात विदित हो तो अनुरागवश अवश्य कहनी चाहिए, इसलिए मैं भी आपसे कुछ कहूँगा। आप संकेत से अभिप्राय समझ लें। इसके बाद धौम्य ने सैंतीस श्लोकों में राज्याश्रय में रहने की मनोवृत्ति और आचार का विवेचन किया। यह प्रकरण तत्कालीन किसी अर्थशास्त्र या राजशास्त्र का अंश ज्ञात हाता है राजा को प्रसन्न रखना सांप को खिलाने-जैसा समझा जाता था। धौम्य का यह उपदेश कुछ उसी प्रकार का है जैसा बाण ने ‘हर्षचरित’ में राजदरबार में रहने वालों के विषय में लिखा है। धौम्य ने कहा, ‘‘हे राजपुत्रों, राजा के यहाँ निवास करने की विधि (राजवसति) मैं कहता हूँ, जिससे राजभृत्य राजकुल में पहुँच कर फिर भ्रष्ट नहीं होते। समझदार व्यक्ति के लए तो राजकुल में रहना कठिन ही है, और फिर सम्मान-योग्य आप लोगों के लिए वहाँ अज्ञात और अपमानित अवस्था में वर्ष भर का निवास कष्टकर ही होगा। वैसे तो जिसका भाग्य-द्वार खुलता है, वही राजद्वार तक पहुँचता है, पर फिर भी राजा का विश्वास न करना चाहिए। वहाँ उसी आसन या पद की इच्छा करे, जिस पर दूसरे की आँख न हो। मैं राजा का चहेता हूँ, यह सोचकर कभी राजा के निजी यान, पर्यंक, पीठ, हाथी या रथ पर न बैठें। जहाँ बैठने से दुष्टों के मन में अपने लिए खलबली मच जाय, जहाँ तक हो वहाँ न बैठना चाहिए। बिना पूछे राजा से उपदेश की बात न कहे। समय पर राजा का सम्मान करके स्वयं चुप रहे। जिसका वचन मिथ्या हो जाता है, ऐसे व्यक्ति से राजा द्वेष करने लगता है एवं जिसका मंत्र सच्चा नहीं बैठता, वह मंत्री राजा का सम्मान खो देता है। प्राज्ञ को उचित है कि राजदाराओं में और अन्तःपुरचारी जनों के प्रति मैत्री का भाव न बढ़ावे। छोटे-से-छोटे काम भी राजा की जानकारी में ही करें। तब उसे क्षति न उठानी पड़ेगी। अग्नि और देवता के समान यत्न से राजसेवा करनी होती है। सेवा में तनिक भी अनृत भाव आ जाने से फिर राजा बिना हिंसा किए नहीं मानता। स्वामी जैसी आज्ञा दे, वैसा ही करना चाहिए। प्रमाद, अवहेलना और कोप को दूर रखे। समस्त मंत्रणाओं के समय (समर्थनासु सर्वासु) हितकारी और प्रिय मत ही देना चाहिए। प्रिय की अपेक्षा भी हितकारी कहना अच्छा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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