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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 277-283
38. सावित्री-उपाख्यान
एक दिन राजा अश्वपति सभा में बैठे थे कि नारद आ गए। उसी समय सावित्री भी लौट आई। नारद ने देखकर पूछा, ‘‘तुम्हारी यह पुत्री कहाँ गई थी और अब कहाँ से आ रही हैं? यह युवती हुई। इसे पति को क्यों नहीं देते?’’ अश्वपति ने कहा, ‘‘मैंने इसी कार्य के लिए इसे भेजा था। और यह अभी लौटकर आई है।’’ तब पिता के अनुरोध से सावित्री ने कहा, ‘‘शाल्व देश में द्युमत्सेन का राजा था, जो पीछे अन्धा हो गया था। उसका पुत्र अभी बालक ही था कि समीप के राजा ने पहले वैर के कारण उसका राज्य छीन लिया। इस पर वह अपने पुत्र और स्त्री के साथ वन में चला गया। वहीं उसका कुमार पुत्र युवावस्था को प्राप्त हुआ। उसका नाम सत्यवान है। उसे ही मैंने मन से वरण किया है।’’ राजा के पूछने पर नारद ने बताया कि जब वह बालक था तो मिट्टी के घोडे़ बनाता और चित्र में भी घोड़े ही लिखता था, इसलिए उसे चित्राश्व कहने लगे। वह तेजस्वी, बुद्धिमान, क्षमावान और रूपवान है। बस उसमें एक दोष है। एक वर्ष बाद क्षीणायु होकर देह त्याग कर देगा। पिता अश्वपति ने यह बात सावित्री से कही और कहा, ‘‘हे पुत्री! तुम्हारे चुने हुए पति में एक बड़ा दोष है। वह केवल एक वर्ष जीवित रहेगा। अतएव तुम दूसरा वर ढूढ़ो।’’ सावित्री ने उत्तर दिया, ‘‘तीन बातें केवल एक बार की जाती हैं। पैतृक सम्पत्ति का भाग जिसके पास जाना होता है, एक बार ही जाता है। कन्या भी एक ही बार दी जाती है। ‘मैं दान देता हूँ’ इस वाक्य का भी उच्चारण एक ही बार किया जाता है। दीर्घायु हो या अल्पायु, सगुण हो या निर्गुण, अपना पति मैं एक बार चुन चुकी। अब दोबारा नहीं चुनूंगी। मन से निश्चय करके तब वाणी से कहा जाता है और फिर उसी के अनुसार कर्म किया जाता है।’’ उसका यह उत्तर सुनकर नारद ने कहा, ‘‘सावित्री की बुद्धि स्थिर है। उसे इस धर्म-मार्ग से विचलित नहीं किया जा सकता। सत्यवान जैसे गुण दूसरे में नहीं हैं। अतएव उसे ही कन्या देना मुझे उचित लगता है।’’ राजा ने इसे स्वीकार किया। नारद ने आशीर्वाद दिया और चले गए: साधयिष्यामहे तावत् सर्वेषां भद्रमस्तु वः।।[1] सावित्री की कथा में नारद जी के संवाद के बाईस श्लोक गुप्तकाल में जोड़े हुए ज्ञात होते हैं। ऊपर के श्लोक में साधयिष्यामहे (हम जायंगे) पद इसकी ओर संकेत करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 278। 31
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