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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 178
जब हिमालय के प्रवास से पाण्डव काम्यक वन में वापस आ गए तब अनेक ब्राह्मण उनसे मिलने आये। उनमें से एक ने सूचना दी कि शीघ्र ही कृष्ण और बहु-संवत्सरजीवी महातपस्वी मार्कण्डेय आपसे मिलने के लिए आने वाले हैं। वह यह कह ही रहा था कि शैव्य और सुग्रीव नामक अश्वों से युक्त रथ पर सत्यभामा के साथ देवकी-पुत्र कृष्ण वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने रथ से उतरकर यथाविधि धर्मराज की वन्दना की और धौम्य का पूजन किया। अर्जुन का आलिंगन करके फिर द्रौपदी को सान्त्वना दी। सत्यभामा भी द्रौपदी से मिली। सब पाण्डव कृष्ण से मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। कृष्ण ने द्रौपदी से कहा, ‘‘हे कृष्णा, तुम्हारे पाँचों पुत्रों का मन अपने नाना या मामा के घरों में उतना नहीं लगता। उन्हें धनुर्वेद में रुचि है, और वे आनर्त देश के वृष्णिपुर में रहकर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे हैं। तुम या आर्या कुन्ती उनके लिए जैसी वृत्ति की कामना करती हो, सुभद्रा उनके लिए सदा उसी प्रकार का प्रबन्ध रखती है। अनिरुद्ध के लिए जो सब प्रबन्ध है, वही उनके लिए भी है। अभिमन्यु अपने उन भाइयों को गुरु कह तरह स्वयं अस्त्र-शिक्षा देता है।’’ यह कहकर कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा, ‘‘अन्धक, कुकुर और दशार्हों के योद्धा आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए प्रतीक्षा में हैं। अश्व, रथ, हस्ती और पदाति से युक्त हमारी सेना आपके लिए सुसज्जित है। आप उससे हस्तिनापुर पर चढ़ाई करके दुर्योधन का नाश करें।’’ महात्मा कृष्ण से यह मत सुनकर धर्मराज ने अंजलिपूर्वक कहा, ‘‘हे केशव निस्संदेह पाण्डवों की गति आप ही हैं। समय आने पर अवश्य हम वैसा करेंगे। किन्तु प्रतिज्ञा के अनुसार अभी बारह वर्ष हमने बिताये हैं। अज्ञातावास का समय भी जब हम समाप्त कर लेंगे तब आपके वचनों का पालन करेंगे।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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