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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 178
इसके बाद युधिष्ठिर ने ताड़ लिया कि यह नागराज साधारण जीव नहीं, वेद-वेदांग में पारंगत है। अब उन्होंने प्रश्न करना शुरू किया और पूछा, ‘‘बताओ, किस कर्म से उत्तम गति प्राप्त होती है।’’ सर्प ने कहा, ‘‘पात्र को दान देने से, मीठे वचन बोलने से, सत्य कहने से और अहिंसा का पालन करने से मनुष्य स्वर्ग जाता है, ऐसा मेरा मत है।’’ युधिष्ठिर ने पूछा, ‘‘दान और सत्य, इनमें कौन बड़ा है? अहिंसा और प्रिय वाक्य इन दोनों में भी छोटा-बड़ा कौन है?’’ सर्प ने उत्तर दिया, ‘‘इन चारों की छुटाई-बड़ाई कार्य-कारण के अनुसार होती है। कभी दान से सत्य भारी और कभी सत्य से दान भारी होता है। इसी प्रकार अहिंसा प्रिय वचनों से बड़ी और कभी प्रिय वचन अहिंसा से उच्चतर होते हैं। कार्य के अनुसार इन चारों गुणों का गौरव-लाघव जाना जाता है।’’ इसके अनन्तर युधिष्ठिर ने कई दार्शनिक प्रश्न किये, जिनके ब्याज से सर्प ने अध्यात्म विषयों की व्याख्या की और अन्त के कहा, ‘‘हे धर्मराज, कभी मैं भी दिव्य विमान में विचरण करता था। सहस्रों ब्रह्मर्षि मेरी पालकी उठाते थे। मैंने अगस्त्य ऋषि को पैर से छू दिया। बस, इसी शाप के कारण मेरा पतन हुआ। आज आपके इस साधु-संभाषण से मैं शाप-मुक्त हुआ। अहिंसा, सत्य, दम, दान, योग और तप ये ही मनुष्य के सच्चे सखा हैं, जाति और कुल सहायक नहीं। आपके भाई भीम को मैंने सकुशल छोड़ा। आपका कल्याण हो।’’ यह कहकर वह नागराज स्वर्ग को चला गया और युधिष्ठिर भीम के साथ आश्रम को लौट आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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