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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
प्राचीन भौगोलिक मान्यता के अनुसार कुरुक्षेत्र के चार द्वारपाल थेः अरन्तुक, तरन्तुक, मचक्रुक और रामहृदः एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपंचकं पितामहस्योत्तर वेदिरूच्यते।।[1]
एक ओर तो कुरुक्षेत्र की इतनी महिमा थी कि उसे प्रजापति की उत्तर वेदी और सरस्वती एवं दृष्द्वती नामक नदियों को देवनदी कहा जाता था तथा इनके बीच के प्रदेश के देवनिर्मित देश ब्रह्मावर्त कहलाते थे और इस देश के आचार को सदाचार समझा जाता था।,[3] दूसरी ओर कुरुक्षेत्र का यह उच्चपद गिर गया। कुरुक्षेत्र उस वाहीक देश का एक भाग था, जहाँ मद्र और शाकल के केन्द्र में बाल्हीक के यवन शासक छा गए थे और आर्यदृष्टि से भी पारम्पर्य क्रमागत सदाचार था, वह सब अस्तव्यस्त हो गया था। युनानियों के कारण वाहीक की जो अटपट हालत हुई उसी का मानो आंखों-देखा वर्णन-पर्व में कर्ण और शल्य की ‘तू-तू, मैं-मैं’ के प्रसंग में देखा जाता है। अत्यधिक मधुपान से सुध-बुध खोकर यवन आक्रान्ता गोष्ठियों में अनाचार करते थे, उसी का नग्न चित्र कर्ण-पर्व के वर्णन की पृष्ठभूमि में है। गान्धार-कला में तक्षशिला आदि स्थानों से सलेट या सेलखड़ी की बनी सैंकड़ों गोल तश्वरियां ऐसी मिली हैं, जिन पर मुखामेल मधुपान के दृश्य अंकित हैं। चरित्र के आर्य-मानदण्ड के अनुसार यह वर्णाश्रम एक एकान्त लोप था। अतएव द्वितीय शती ई. पू. में पतंजलि ने आर्यवर्त की भौगोलिक परिभाषा का उल्लेख करते हुए शक-यवनों को आर्यावर्त के बाहर कहा, वाहीक देश अर्थात पंजाब में यवनों का यह उत्पात मिलिन्द या मीनाण्डर के समय में सीमा पर पहुँच गया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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