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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
यह कहकर उसने ऋष्यश्रृंग के दिए हुए फलों को वहीं छोड़कर अनेक स्वादिष्ट महारस-पदार्थ, सुगंधित मालाएं और सुन्दर वस्त्र उसे दिये और वह ऋष्यश्रृंग के चारों ओर कंदुकक्रीड़ा से फुदकती हुई अपने शरीर से उसके शरीर को संस्पृष्ट करने लगीं। बार-बार के आलिंगन और गात्रसम्पीड़न से ऋष्यश्रृंग के शरीर में विकार आ गया। यह देखकर उस वारांगना ने कहा, ‘‘अब मुझे अग्निहोत्र के लिए जाना है’’ और यह कहकर चली गई। उसके चले जाने पर तरुण ऋष्यश्रृंग मदनमत्त होकर सुध-बुध भूल गया। काश्यप ने लौटकर अपने पुत्र को गहरी उसांसें छोड़ते हुए रोगी की-सी दशा में देखा और पूछा, ‘‘आज समिधा क्यों नहीं लाये? क्या अग्निहोत्र कर चुके? क्या स्रुक और स्रुवा मांज-धो लिये? क्या होमधेनु दुहकर बछड़ा चुख दिया? हे पुत्र, तुम्हें क्या हो गया है? मैं जानना चाहता हूँ कि आज यहाँ कौन आया था।’’ ऋष्यश्रृंग ने सीधे स्वभाव से कहा, आज एक जटाधारी ब्रह्मचारी यहाँ ऐसा आया कि जिसकी आखें कमल-सी खिली हुईं और रंग सोने सा तपता था। मुझे तो ऐसा लगा जैसे कोई देवपुत्र उतर आया हो। उसकी नीली साफ-सुथरी महमहाती जटाओं में सुनहले डोरे गुंथे हुए थे। उसके गले की हंसली, आकाश की बिजली-सी चमकती थी। कंठ से नीचे उसकी छाती पर दो मनोहर पिंड थे। उसका नाभिदेश कृश और कटि चौड़ी थी। झीने वस्त्र के भीतर से सोने की मेखला झांक रही थी, जैसी यह मेरी मेखला है। उसके दोनों पैरों में कुछ झुन–झुन बज रहा था। मेरी अक्षमाला की भाँति उसके हाथों में भी कुछ बजने वाले कलावे थे। उसके वस्त्रों से सुन्दर ये मेरे वस्त्र नहीं है। कोयल-सी उसकी वाणी मेरी अन्तरात्मा को व्यथित कर गई। उसका अद्भुत मुख चित्त को अब भी गुदगुदा रहा है। उसके कानों में विचित्र चक्रवाल-जैसे कुछ थे। जटाएं ललाट पर सुबद्ध और दोनों ओर बराबर विभक्त थीं। उसके पास अनोखा गोल फल था, जिसे दाहिने हाथ से मारती तो भूमि से आकाश की ओर उछलता था। उसे देखकर मेरे मन में ऐसी प्रीति और रति उत्पन्न हुई, जैसी पहले कभी नहीं हुई थी। उसने मेरी जटाएं हाथ में ले अपने शरीर से मर्दन किया। उसने मुझे रसीले फल दिये, जिनके-जैसा छिलका और गूदा हमारे फलों में नहीं। उसने मुझे पीने के लिए जो स्वादिष्ट जल दिया, उसे पीकर मेरा मन खिल गया और मुझे ऐसा लेगा, जैसे पृथ्वी घूम रहीं हो। हे तात! वह मुझे अचेत करके न जाने कहाँ चला गया। मैं उसी के पास जाना चाहता हूँ। और उसके जैसा ही तप करना चाहता हूँ।’’ मृग-शावक की तरह अनजान भाव से वन में यौवन को प्राप्त हुए अपने पुत्र में यह परिवर्तन देखकर वृद्ध विभाण्डक ऋषि कुछ गम्भीर हुए। जिन वाक्यों का अर्थ उनका युवक पुत्र नहीं समझ पाया था, उनके अर्थ को काश्यप मुनि ने समझ लिया। उनके श्रमण-भाव पर भी किसी वनविहारिणी उर्वशी ने कभी अपना सम्मोहन डाला था, किन्तु उस अनुभव से विभाण्डक ने पुत्र की समस्या के समाधान के लिए कुछ लाभ न उठाया। उन्होंने कहा, ‘‘हे पुत्र! वन में इस प्रकार के छलावे मुनियों के तप पर घात लगाए घूमा करते हैं। तुम उनके फेर में न फंसना। उनके दिये हुए माल्य, मधु और भोजन मुनियों के तप को हर लेते हैं।’’ पुत्र के उस विभ्राट पर यों लीपापोती का समाधान करके वृद्ध पिता उस छलना को ढूंढने के लिए वन में चले गए और तीन दिन तक घूमने पर भी उसका पता न पा सके। इसी बीच आश्रम को सूना देख वह फिर आई। उसे देखते ही ऋष्यश्रृंग की पीड़ा भभक उठी। युवक ने कहा, ‘‘जब तक मेरे पिता नहीं आ जाते, तब तक चलो, तुम्हारे आश्रम को चलें।’’ वह तो यही चाहती ही थी। तुरन्त बजरे पर बैठकर उस युवक को अंगराज के यहाँ ले गई। जैसे ही ऋष्यश्रृंग लोमपाद के अन्तःपुर मे पहुँचे, उसके राज्य में वृष्टि हुई और राजा ने अपनी पुत्री शान्ता का विवाह ऋष्यश्रृंग के साथ कर दिया। इस ऋष्यश्रृंग की यह पुरानी कहानी लोक से खिंचकर जातक,[1] रामायण, महाभारत और पुराणों में कुछ अवान्तर भेदों से व्याप्त हो गई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जातक संख्या 526, भाग पाँच
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