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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
ऋषिगंगा नाम का कारण भी महाभारत की कथा के अनुसार यह था कि ऋषभकूट पर्वत पर ऋषभ नाम के एक ऋषि ने अपना आश्रम बनाया। उन्हें एकान्तवास और मौन प्रिय था उन्होंने यह नियम बनाया कि कोई यहाँ आकर शब्द न करे। वायु तक को उन्होंने आदेश दिया कि किसी भी प्रकार का शब्द न हो। यदि कोई पुरुष वहाँ कुछ शब्द करना चाहे तो मेघ उसे रोक देते थे। कहा जाता है कि एक बार देवता नन्दा नदी के समीप पहुँच गये। उनके पीछे देव-दर्शन के इच्छुक कुछ मनुष्य भी वहाँ जा पहुँचे। देवों को यह अच्छा न लगा। तब से उन्होंने नन्दा देवी के इस प्रदेश को मनुष्यों के लिए अगम्य बना दिया। नन्दादेवी की जो ऊबड़-खाबड़ स्थली है, उसके साथ इस अनुश्रुति का मेल ठीक बैठता है। आज भी पर्वतारोहियों के लिए यह महागिरि अत्यन्त दुर्गम माना जाता है। नन्दप्रयाग के बाद नन्दकोट और त्रिशूलशिखरों के जलों को लेकर पिण्डरगंगा कर्णप्रयाग के संगम पर अलकनन्दा से मिलती है। इससे आगे चौथा प्रयाग रुद्रप्रयाग है, जहाँ केदारनाथ पर्वत की ओर से आने वाली मन्दाकिनी अलकनन्दा में मिली है। उसके आगे टिहरी-गढ़वाल में गंगोत्री की ओर से आई हुई भागीरथी देवप्रयाग में अलकनन्दा से मिलती है और उनकी संयुक्त धारा गंगा नाम लेकर ऋषिकेश होती हुई कनखल में हिमालय से होती हुई भूतल पर उतरी है। इसी को गंगाद्वार भी कहते हैं। जिस समय पाण्डव तीर्थ यात्रा करते हुए गंगाद्वार में पहुँचे, उस समय युधिष्ठिर ने भी भीम से कहा, ‘‘यहाँ से आगे हिमालय का जो प्रदेश है, वह अत्यन्त दुर्गम और जोखिम से भरा हुआ है। अच्छा हो तुम द्रौपदी को लेकर यहीं गंगाद्वार में ठहरो और हम इस हिमालय के भीतरी प्रदेश के दर्शन करके लौट आयं।’’[1] द्रौपदी ने इसे स्वीकार न किया। किन्तु अभी पिछली शताब्दी तक जब यातायात के साधन और हिमालय के पथ इतने सुलभ न हुए थे तब तक बदरी-केदारखंड की यात्रा बड़े साहस का काम समझी जाती थी और उसमें जोखिम भी पूरा था। फिर भी द्रौपदी की तरह अनेक स्त्री-पुरुष अपने संकल्प-बल से वहाँ जाते ही थे। लोमश-तीर्थयात्रा के इस प्रकरण का भौगोलिक वर्णन ऊपर से उलझा हुआ जान पड़ता है। इसका केन्द्र हिमालय पर गंगा का प्रस्रवण क्षेत्र है, जहाँ से भूगोल का सूत्र बार-बार छिटककर फिर उसी बिन्दु पर आ मिलता हैं। ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न दिशाओं में यात्रा की कई पट्टियाँ उपाख्यानों के इस जमघट में आगे-पीछे जमा दी गई हैं। यही कारण है जो गंगा, कैलास और विशाल-बदरी का भूगोल इस एक ही प्रकरण में कई बार यहाँ आ गया है, मानो कथा-प्रसंग के निर्माण में कई कारीगरों का हाथ रहा हो, जो सब अपनी बात कहना और पारस्परिक असंगति को न देखते हुए ग्रंथ में रखना भी चाहते थे। महाभारत के कलेवर को जो उपबृंहण हुआ, उसमें रचना-शैली की यह विशेषता प्रायः मिलती है। यात्रा की पहली पट्टी नन्दा-अपरनन्दा से हटकर पूरब में कौशिकी नदी (वर्तमान कोसी) और वहाँ से गंगा-सागर-संगम[2] चली जाती है। कौशिकी या कोसी उत्तरी बिहार और पूर्वी नेपाल की बड़ी विशेषता है। कौशिकी के तट पर विश्वामित्र का आश्रम कहा जाता है[3] आजकल विश्वामित्र का मुख्य आश्रम बक्सर के समीप चरित-वन में माना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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