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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
26. तीर्थ-यात्रा-2
इस प्रकार मार्गशीर्ष की पूर्णमासी बीतने पर अगले दिन पुष्य नक्षत्र में वल्कल-चीर, मृगचर्म और जटा धारण करके उन्होंने प्रस्थान किया। साथ में इन्द्रसेन-प्रमुख उनके निजी भृत्य, कुछ रसोइये और परिचारक तथा चौदह रथ भी चले। पूर्व की ओर चलते हुए वे क्रमशः नैमिषारण्य में पहुँचे, जहाँ गोमती नदी के पुण्य तीर्थ हैं। वहाँ से कन्यातीर्थ (सम्भवतः कान्यकुब्ज), अश्वतीर्थ (कन्नौज के समीप गंगा-कालिन्दी-संगम), गोतीर्थ, बालकोटि और वृषप्रस्थ गिरि होते हुए उन्होंने बाहुदा नदी में स्नान किया। बाहुदा की पहचान के विषय में मतभेद है, पर सम्भवतः यह रामगंगा थी। वहाँ से आगे देवयजन-भूमि गंगा-यमुना के संगम प्रयाग में पहुँचे। यहीं प्रजापति की यज्ञ-वेदी थी। इसके अनन्तर प्रयाग से दक्षिण की ओर के स्थान महीधर का उल्लेख है, जो वर्तमान मैहर का पुराना नाम था। पूरब की ओर राजर्षि गय के तीर्थ गयशीर्ष का उल्लेख है। वहाँ भी एक अक्षयवट था। वहाँ पाण्डवों ने एक चातुर्मास्य बिताया। इसी प्रसंग में महाभारत की दृष्टि पुनः दक्षिण की ओर जाती है और वह अगस्त्य-आश्रम का वर्णन करते हैं। यह स्थान कालिंजर के बीच में कहीं था। महाभारत में अगस्त्य-आश्रम को दुर्जयापुरी कहा गया है। प्रयाग से लेकर नासिक तक एवं उससे भी आगे दक्षिणी समुद्र तक अगस्त्य के आश्रमों की परम्परा कई स्थानों में बताई जाती है। यहाँ अगस्तय-आश्रम के समीप ही भागीरथी का उल्लेख है। उससे ज्ञात होता है कि प्रयाग के दक्षिण की ओर गंगा के कछार में कहीं एक अगस्त्य आश्रम था। मणिमतीपुरी में रहने वाले इल्वल और उसके भाई वातापि के उपद्रव को अगस्त्य ने शान्त किया था। विदर्भराज की पुत्री लोपामुद्रा ने अगस्त्य को अपना पति चुना। तब दोनों ने गंगा-द्वार में जाकर तप किया और उनसे दृढ़स्यु इध्मवाह नामक पुत्र हुआ। अगस्त्य की कथा संक्षेप में सुनकर युधिष्ठिर ने फिर विस्तार से उसी कथा को जानना चाहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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