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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 1-6
हस्तिनापुर के नगर-द्वार से बाहर निकलकर पाण्डव द्रौपदी के साथ उत्तर की ओर चले। जैसे ही यह समाचार नगर में फैला, शोकसंतप्त पुरवासी कौरव, भीष्म, द्रोण, विदुरादि को बुरा-भला कहने लगे और बाहर निकलकर युधिष्ठिर से बोले, “जहाँ आप जायेंगे वहीं हम भी चलेंगे, हमारा यहाँ रहना व्यर्थ है।” तृष्णा का रोग
युधिष्ठिर ने उनके स्नेह से व्यथित हो उन्हें समझा-बुझाकर वापस भेजा और स्वयं रथ पर बैठकर गंगा के किनारे हो लिये। फिर भी कुछ ब्राह्मण उनके साथ रह गए। युधिष्ठिर ने कहा, “स्वयं अपने लिए भोजन का प्रबन्ध करते हुए और मेरे लिए क्लेश पाते हुए आपको मैं कैसे देख सकूंगा?” इस पर विद्वान शौनक उन्हें समझाने लगे, “आपके संदृश जन शरीर और मन के कष्टों से दुःखित नहीं होते। जनक का अनुभव-वाक्य है कि सब संसार मन और दुःखों के कष्ट से पीड़ित है। शारीरिक व्याधि का उपाय चिकित्सा से और मानस दुःखों की शान्ति ज्ञान से होती है। मन के दुःखों का मूल स्नेह है। कोटर में रखी हुई अग्नि जैसे समूल वृक्ष को जला देती है, वैसे ही थोड़ा-सा राग भी धर्मार्थी को नष्ट कर डालता है। जो ज्ञानी हैं वे राग से अभिभूत नहीं होते। राग के कारण तृष्णा बढ़ती है और वह बढ़ती हुई मनुष्य को सदा चिंताओं में डाल देती है। तृष्णा प्राणान्तक रोग है। तृष्णा का आदि-अन्त नहीं। निर्बुद्धि मनुष्य अपने भीतर उत्पन्न हुए लोभ से नाश को प्राप्त हो जाता है। हे युधिष्ठिर, संतोष ही परम सुख है और सब अस्थिर है, इसलिए तुम तृष्णा को वश में रखना।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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