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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 60-72
यह समाचार जानकर तुरन्त दुःशासन दुर्योधन के पास दौड़ा गया और खीजकर बोला, “बड़े कष्ट से यह सब हुआ था, पर बुड्ढे ने सब चौपट कर डाला।[1] सारा जीता हुआ धन फिर शत्रुओं को दे दिया।” सुनते ही दुर्योधन, कर्ण और शकुनि धृतराष्ट्र के पास दौड़े गए और दुर्योधन ने मृदुवाणी से कहा, “सब उपायों से शत्रु को मारना चाहिए, बृहस्पति की यह नीति क्या आपने नहीं सुनी? पाण्डव काले नाग थे, उन्हें कण्ठ में लटकाना कहाँ तक उचित है? अब वे हमें निःशेष किये बिना न मानेंगे। द्रौपदी का क्लेश वे कहाँ भूल सकते हैं? इसलिए पाण्डवों के साथ हम फिर द्यूत खेलकर उन्हें वश में करें। जो हारेगा, वह बारह वर्ष वन में रहेगा और तेरहवें वर्ष अज्ञातवास करेगा। हम राज्य में जमे हैं, सेना भी बहुत है, तेरह वर्ष का व्रत पार करके यदि वे लौट आये तो युद्ध में उन्हें जीत लेंगे। आप आज्ञा दे दें।” यह प्रस्ताव सुनकर निर्बुद्धि धृतराष्ट्र ने कुटिल भाव से चट कहा, “हां-हां, अभी वे रास्ते में होंगे। जल्दी उन्हें लौटा लाओ। पाण्डव यहाँ आकर फिर द्यूत खेलें।” द्रोण, विदुर, अश्वत्थामा, भीष्म और विकर्ण ने बहुत समझाया। गान्धारी भी शोक से डूब गई और कहने लगी, “इन अशिष्ट पुत्रों की बात तुम मत मानो। कुल के घोर नाश का कारण मत बनो।” किन्तु धर्मदर्शिनी गान्धारी की बात भी धृतराष्ट्र ने अनसुनी कर दी और कहा, “जैसा तुम चाहते हो, करो। पाण्डव लौट आवें और द्यूत खेलें।” तुरन्त दूत दौड़ाया गया। मार्ग में से ही युधिष्ठिर धृतराष्ट्र का वचन सुनकर फिर लौट आये। अब तक की दारुण विपत्ति पर उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। फिर वही अपनी टेक की दुहाई देने लगे। उनके आते ही शकुनि ने जुए की नई शर्त सुनाई। पांसा फेंका गया और चट शकुनि ने कहा, “मैंने जीत लिया। अब तुम लोग वनवास करो।" पाण्डव सब प्रकार से हीन होकर वन की ओर चल दिये। द्रौपदी भी उनके साथ चली। केवल कुन्ती को विदुर ने अपने यहाँ रख लिया। पाण्डवों के पुरोहित धौम्य भी उनके साथ हो लिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्थविरो नाशयत्यसौ
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