विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 192-194
10. सुभद्रा-परिणय
दुर्योधन ने कहा, “मेरे मन में कई बातें आती हैं। एक तो कुछ अच्छे समझदार ब्राह्मणों को लगाकर शनैः शनैः कुन्ती और माद्री के पुत्रों में फूट डलवा दें, अथवा राजा द्रुपद, उसके पुत्र और अमात्यों को धन की बड़ी राशि देकर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर की ओर से उनका मन फेर दें, अथवा यह भी सम्भव है कि हमारे दिये हुए द्रव्य के लोभ से द्रुपद और उसके सहयोगी पाण्डवों को ऐसी पट्टी पढ़ावें कि वे द्रुपद की राजधानी में ही बस जायं। तब उनका हस्तिनापुर से पाप ही कट जायगा, अथवा कुछ ऐसे उपाय-निपुण पुरुषों को लगाया जाय, जो पाण्डवों में आपस में ही फूट डाल दें या द्रौपदी का मन ही उनकी ओर से उचाट कर दें। उसे बहुतों में अपना मन लगाना पड़ता है, इसलिए शायद ऐसा करना सरल हो, अथवा पाण्डवों का ही मन उसकी ओर से फेर दें, या उन सबमें भीमसेन ही तगड़ा है, किसी उपाय से छिपे हुए अपने आदमियों से उसकी समाप्ति करा दें। एक बार उसका काम तमाम हुआ नहीं कि फिर पाण्डव राज्य का हौसला न करेंगे। वही उनका बड़ा भरोसा है। अर्जुन तभी तक युद्ध में अजेय है, जब तक उसकी पीठ पर भीम है। भीम के बिना अर्जुन कर्ण के पैर की धूल भी नहीं। यदि पाण्डव यहाँ आ भी गए तो भी आखिर तो हमारे ही बस में रहेंगे। जैसे चाहें, उनको ठिकाने लगाया जा सकता है, अथवा यहाँ आने पर सुन्दरी स्त्रियां उनमें से एक-एक के मन को ऐसा लुभा दें कि वे फिर द्रौपदी का नाम न लें, या यह भी सम्भव है कि उन्हें लिवा लाने के लिए कर्ण को भेजा जाय और फिर बटमारों को मिलाकर मार्ग में ही उन्हें कटवाकर फेंक दिया जाय। इन उपायों में जो तुम्हें निर्दोष जचे उसी का प्रयोग शीघ्र करो, क्योंकि समय बीत रहा है। मेरी तो राय यही है कि साधु-असाधु किसी भी ढंग से पाण्डवों का निग्रह किया जाय, अथवा हे कर्ण, तुम्हारी समझ में क्या आता है?” यह सुनकर कर्ण ने कहा, “दुर्योधन, मुझे तो तुम्हारी राय ठीक नहीं जंचती। पाण्डव किसी भी तरकीब से बस में नहीं आ सकते। पहले भी तुम उनके निग्रह के लिए बारीक उपाय कर चुके हो। जब बचपन में उनके पंख भी न निकले थे और वे यहीं थे, तब तुम उनका कुछ न बिगाड़ सके तो अब तो उनके पंख निकल आये हैं। वे यहाँ से बाहर हैं और बड़े हो गए हैं, इसलिए अब पाण्डव उपाय-साध्य नहीं हैं। तुम उन्हें विपत्ति में नहीं डाल सकते, भाग्य उनके साथ है। अब वे अपने पितृ-पितामह से प्राप्त हक के दावेदार होकर तुम्हारी ओर शंका में देखते हैं। उनमें आपसी फूट भी नहीं डाली जा सकती। कृष्णा के मन में भी उनकी ओर से भेद डालना कठिन है। जब उनके फटे-हाल होने पर द्रौपदी ने उन्हें वर लिया था तब आज तो वे उजले-चिट्टे हो गए हैं। ....और राजा द्रुपद आर्य हैं, तुम समझते हो कि उन्हें धन का लोभ होगा? राज्य भी दोगे तो भी द्रुपद कौंतेयों को न छोड़ेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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