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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
177. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक
प्यारे ! इनमें विद्युत का संचार नहीं हुआ है। अपनी विरहरूपी बिजली इनमें भर दो, जिससे ये तुम्हारे नाम का शब्द सुनते ही चौंककर खड़े हो जायँ। हे मेरे विधाता ! इनकी सुस्ती मिटा दो, इनमें ऐसी शक्ति भर दो जिससे फुरहुरी आती रहे। बस, जहाँ तुम्हारे नाम की ध्वनि सुनी, वहीं दोनों नेत्र लबालब अश्रु से भर आये, वाणी अपने आप ही रुक गयी, शरीर के सभी रोम बिलकुल खड़े हो गये। प्यारे तुम्हारे इन मधुर नामों को लेते हुए कभी मेरी ऐसी स्थिति हो भी सकेगी क्या!
श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
(7)
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्दविरहेण मे।।
हाय रे प्यारे ! लोग कहते हैं आयु अल्प है, किन्तु प्यारे ! मेरी आयु तो तुमने अनन्त कर दी है और तुम मुझे अमर बनाकर कहीं छिप गये हो। हे चोर ! जरा आकर मेरी दशा तो देखो। तुम्हें बिना देखो मेरी कैसी दशा हो रही है, जिसे लोग ‘निमेष’ कहते हैं, पलक मारते ही जिस समय को व्यतीत हुआ बताते हैं, वह समय मेरे लिये एक युग से भी बढ़कर हो गया है। इसका कारण है तुम्हारा विरह। लोक कहते हैं, वर्षा चार ही महीने होती है, किन्तु मेरा जीवन तो तुमने वर्षामय ही बना दिया है। मेरे नेत्रों से सदा वर्षा की धाराएं ही छूटती रहती हैं, क्योंकि तुम दीखते नहीं हो, कहीं दूर जाकर छिप गये हो। नैयायिक चौबीस गुण बताते हैं, सात पदार्थ बताते हैं। इस संसार में विविध प्रकार की वस्तुएँ बतायी जाती हैं, किन्तु प्यारे मोहन! मेरे लिये तो यह सम्पूर्ण संसार सूना-सूना सा ही प्रतीत होता है, इसका एकमात्र कारण है तुम्हारा अदर्शन। तुम मुझे यहाँ फँसाकर न जाने कहाँ चले गये हो, इसलिये मैं सदा रोता-रोता चिल्लाता रहता हूँ –
श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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