श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी176. महाप्रभु के वृन्दावनस्थ छ: गोस्वामिगण
4 – श्री रघुनाथदास जी गोस्वामी श्री रघुनाथदास जी का वैराग्य, गृहत्याग और पुरी निवास का वृत्तान्त तो पाठक पढ ही चुके होंगे। महाप्रभु तथा श्रीस्वरूप गोस्वामी के तिरोभाव के अनन्तर ये अत्यन्त ही दु:खी होकर वृन्दावन चले आये। इनकी इच्छा थी कि हम गोवर्धन पर्वत से कूदकर अपने प्राणों को गँवा दें, किन्तु श्रीरूप-सनातन आदि के समझाने-बुझाने पर इन्होंने शरीर त्याग का विचार परित्याग कर दिया। ये राधाकुण्ड के समीप सदा वास करते थे। कहते हैं, ये चौबीस घंटे में केवल एक बार थोड़ा-सा मट्ठा पीकर ही रहते थे। ये सदा प्रेम में विभोर होकर ‘राधे-राधे’ चिल्लाते रहते। इनका जन्म संवत अनुमान से 1416 शकाब्द बताया जाता है, इन्होंने अपनी पूर्ण आयु का का उपभोग किया। जय शकाब्द 1512 में श्री निवासाचार्य जी गौड देश को आ रहे थे, तब इनका जीवित रहना बताया जाता है। इनका त्याग-वैराग्य बडा ही अदभुत और अलौकिक था। इन्होंने जीवन भर कभी जिह्वा का स्वाद नहीं लिया, सुन्दर वस्त्र नहीं पहने और भी किसी प्रकार के संसारी सुख का भोग नहीं किया। लगभग सौ वर्षों तक ये अपने त्याग-वैराग्मय श्वासों से इस स्वार्थपूर्ण संसार के वायुमण्डल को पवित्रता प्रदान करते रहे। इनके बनाये हुए (1) स्तवमाला, (2) स्तवावली और (3) श्रीदानचरित– ये तीन ग्रन्थ बताये जाते हैं। इनके समान त्यागमय जीवन किसका हो सकता है ? राजपुत्र होकर भी इतना त्याग ! दास महाशय ! आपके श्रीचरणों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं। प्रभो ! इस वासनायुक्त अधम के हृदय में भी अपनी शक्ति का संचार कीजिये। |