श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
173. श्रीमती विष्णुप्रिया देवी
विष्णुप्रिया जी ने अवधूत की धर्मपत्नियों के आगमन का समाचार सुना। उन्होंने उन बेचारियों को पहले कभी नहीं देखा था। हां, वे सुना करती थीं कि अवधूत अब गृहस्थी बनकर रहते हैं। प्रिया जी बाहर तो निकलती ही नहीं थीं। किन्तु जब उन्होंने अवधूत की गृहिणियों का और सीता देवी का समाचार सुना, तब तो अपने प्रिय शिष्य वंशीवदन के घर जाने में कोई आपत्ति न समझीं। वंशीवदन उनके पुत्र के समान था, वंशीवदन का पुत्र चैतन्यदास भी प्रिया जी के चरणों में अत्यधिक भक्ति रखता था, उसके घर को कृतार्थ करने और उसके पुत्र रामचन्द्र को देखने तथा सीता देवी आदि से मिलने के निमित्त प्रिया जी चैतन्यदास के घर पधारीं। चैतन्यदास का घर प्रिया जी के घर के अत्यन्त ही समीप था। प्रिया जी के पधारने से परिवार के सभी लोगों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। नित्यानन्द जी की गृहिणी जाह्नवी देवी ने उठकर विष्णुप्रिया जी का स्वागत किया। दोनों ही महापुरुषों की अर्धांगिनी सगी दो बहिनों के समान परस्पर हृदय से हृदय मिलाकर मिलीं। तब जाह्नवी देवी एकान्त में प्रिया जी को लेकर उनसे स्नेह की बातें करने लगीं। जाह्नवी ने स्नेह से प्रिया जी के कोमल कर को अपने हाथ में लेते हुए कहा– ‘बहिन ! तुम इतना कठोर तप क्यों कर रही हो ? इस शरीर को सुखाने से क्या लाभ ? इसी शरीर से तो तुम हरि नाम ले सकती हो। बहिन ! तुम्हारी ऐसी दयनीय दशा देखकर मेरी छाती फटी जाती है। मेरे पति महाप्रभु की आज्ञा से अवधूतवेष छोड़कर गृहस्थी बन गये। उन्हें इतनी कठोरता अभीष्ट नहीं थी। मेरे पति मुझसे अन्तिम समय में कह गये थे, शरीर को कष्ट देना ठीक नहीं है। बहुत कठोरता काम की नहीं होती।’
धीरे-धीरे आँखों में आंसू भरकर प्रिया जी ने कहा– ‘बहिन ! तुम अपने पति की आज्ञा का पालन करो। मेरे पति तो भिक्षुक बनकर, भिक्षा पर निर्वाह करके, स्त्रियों के स्पर्श से दूर रहकर घोर तपस्वी की तरह जीवन भर रहे। उन्होंने अपने शरीर को कभी सुख नहीं पहुँचाया। मैं तो जितना बन सकेगा, शरीर को सुखाऊँगी’। इतना कहते-कहते प्रिया जी रुदन करने लगीं।
इसके अनन्तर उन्होंने जाकर सीता देवी के पैर छुए। सीता माता ने उनके हाथ पकड़ते हुए कहा– ‘तुम गौरांग की गृहिणी हो, जगन्माता हो, तुम मेरे पैर मत छुआ।’ विष्णुप्रिया जी अधीर होकर वृद्धा सीता माता की गोद में लुढ़क गयीं। सीता माता ने उनके सिर को गोदी में रखते हुए कहा– ‘इस कमलवदन को देखकर ही मैं गौरांग के दु:ख को भूल जाती हूँ। विष्णुप्रिये ! तुम इतनी कठोरता मत करो। मेरे वृद्ध पति तुम्हारे इस कठोर व्रत से सदा खिन्न-से रहते हैं।’ विष्णुप्रिया जी के दोनों कमल के समान बड़े-बड़े नेत्रों से निरन्तर अश्रु निकल रहे थे। सीता माता उन्हें अपने अंचल से पोंछ देतीं और उसी क्षण वे फिर भर आते। सीता देवी के वस्त्र भीग गये, किन्तु विष्णुप्रिया जी के नेत्रों का जल न रुका। रोते-रोते उन्होंने सबसे विदा ली। जाह्नवी देवी ने पूछा– ‘बहिन ! अब कब भेंट होगी ?’
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