श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी163. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय
अनुराग को शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान[1]प्रवर्द्धनशील कहा गया है। अनुराग हृदय में बढ़ते-बढ़ते जब सीमा के समीप तक पहुँच जाता है तो उसे ही ‘भाव’ कहते हैं। वैष्णव गण इसी अवस्था को ‘प्रेम का श्री गणेश’ कहते हैं। जब भाव परम सीमा तक पहुँचता है तो उसका नाम ‘महाभाव’ होता है। महाभाव के भी ‘रूढ़ महाभाव’ और ‘अधिरूढ़ महाभाव’ दो भेद बताये गये हैं। अधिरूढ़ महाभाव के भी ‘मोदन’ और ‘मादन’ दो रूप कहे हैं। ‘मादन’ ही ‘मोहन’ के भाव में परिणत हो जाता है, तब फिर ‘दिव्योन्माद’ होता है। ‘दिव्योन्माद’ ही ‘प्रेम’ या रति की पराकाष्ठा या सबसे अन्तिम स्थिति है। इसके उद्घूर्णा चित्रजल्पादि बहुत से भेद हैं। यह दिव्योन्माद श्री राधिका जी के ही शरीर में प्रकट हुआ था। दिव्योन्मादावस्था में कैसी दशा होती है, इस बात का अनुमान श्रीमद्भागवत के उक्त श्लोक से कुछ-कुछ लगाया जा सकता है– एंवव्रत: स्वप्रियनामकीर्त्या इस श्लोक में ‘रौति’ और ‘रोदिति’ ये दो क्रियाएं साथ दी हैं। इससे खूब जोरों से ठाह मारकर रोना ही अभिव्यंजित होता है। ‘रु’ धातु शब्द करने के अर्थ में व्यवहृत होती है। जोरों से रोने के अनन्तर जो एक करुणाजनक ‘हा’ शब्द अपने-आप ही निकल पड़ता है वही यहाँ ‘रौति’ क्रिया का अर्थ होगा। इसमें उन्माद की अवस्था का वर्णन नहीं है। यह तो ‘उन्माद की-सी अवस्था’ का वर्णन है। उन्मादावस्था तो इससे भी विचित्र होगी। यह तो सांसारिक उन्माद की बात हुई, अब दिव्योन्माद तो फिर उन्माद से भी बढ़कर विचित्र होगा ! वह अनुभवगम्य विषय है। श्रीराधिका जी को छोडकर और किसी के शरीर में यह प्रकट रूप से देखा अथवा सुना नहीं गया।
भावों की चार दशा बतायी हैं– (1) भावोदय, (2) भावसन्धि, (3) भावशावल्य और (4) भावशान्ति। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रतिक्षणवर्द्धमान
- ↑ श्रीकृष्ण के श्रवण-कीर्तन का ही जिसने व्रत ले रखा है ऐसा पुरुष अपने प्यारे श्रीकृष्ण के नाम-संकीर्तन से उनमें अनुरक्त एवं विह्वलचित्त होकर संसारी लोगों की कुछ भी परवा न करता हुआ कभी तो जोर-जोर से हँसता है, कभी रोता है, कभी चिल्लाता है, कभी गाता है और कभी पागल के समान नाचने लगता है। श्रीमद्भा. 11।2।40