श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी163. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय
एवं बुवाणा विरहातुरा भृशं श्रीशुकदेव जी राजा परीक्षित से कह रहे हैं– ‘राजन ! जिनके चित्त श्रीकृष्ण में अत्यन्त ही आसक्त हो रहे हैं, जो भविष्य में हाने वाले विरह-दु:ख को स्मरण करके घबड़ायी हुई नाना भाँति के आर्तवचनों को कहती हुई और लोक लाज आदि बात की भी परवा न करती हुई वे व्रज की स्त्रियां ऊँचे स्वर से चिल्ला-चिल्लाकर हा गोविन्द ! हा माधव ! ! हा दामोदर ! ! ! कह-कहकर रुदन करने लगीं।’ यही वर्तमान विरह का सर्वोत्तम उदाहरण है। प्यारे चले गये, अब उनसे फिर भेंट होगी या नहीं इसी द्विविध का नाम ‘भूत विरह’ है। इसमें आशा-निराशा दोनों का सम्मिश्रण है। यदि मिलन की एकदम आशा ही न रहे तो फिर जीवन का काम ही क्या? फिर तो क्षणभर में इस शरीर को भस्म कर दें। प्यारे के मिलन की आशा तो अवश्य है, किन्तु पता नहीं वह आशा कब पूरी होगी। पूरी होगी भी या नहीं, इसका भी कोई निश्चय नहीं। बस, प्यारे एक ही बार, दूर से ही थोडी ही देर के लिये क्यों न हो, दर्शन हो जायँ। बस, इसी एक लालसा से वियोगिनी अपने शरीर को धारण किये रहती है। उस समय उसकी दशा विचित्र होती है। सारधारणतया उस विरह की दश दशाएं बतायी गयी हैं। वे ये हैं– चिन्तात्र जागरोद्वेगो तानवं मलिनांगता। ‘चिन्ता, जागरण, उद्वेग, कृशता, मलिनता, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, मोह और मृत्यु- ये ही विरह की दश दशाएँ हैं।’ अब इनका संक्षिप्त विवरण सुनिये– नाहिन रह्यो मन में ठौर। प्यासे फिर नींद कहां? नींद तो आँखों में ही आती है आँखें ही रूप की प्यासी हैं, ऐसी अवस्था में नींद वहाँ आ ही नहीं सकती। इसलिये विरह की दूसरी दशा ‘जागरण’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उज्ज्वलनीलमणि श्रृं. 64