|
श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
19. निमाई का अध्ययन के लिये आग्रह
शचीमाता भोजन बना रही थी। आपने आवाज दी- ‘मैया! भगवान् तेरा भला करे, दूध-पूत सदा फलते-फूलते रहें, इस अन्धे को थोड़ी भीख डाल देना।’ माता निकलकर बाहर आयीं और इनका ऐसा रूप देखकर आश्चर्य के साथ कहने लगीं- ‘निमाई! तू कैसे होता जा रहा है, भला, ब्राह्मण के बालक को ऐसा रूप बनाना चाहिये। तू घर-घर से भीख माँग रहा है, तेरे घर में क्या कमी है? ऐसा खेल ठीक नहीं होता।’ आपने उसी समय पट्टी खोलकर कहा- ‘अम्मा! निर्धन ब्राह्मण का मूर्ख बालक अन्धा ही है, वह भीख माँगने के सिवा और कर ही क्या सकता है? मुझे पढ़ावेगी नहीं तो मुझे भीख ही तो माँगनी पड़ेगी।’ इनकी बात सुनकर शचीदेवी की आँखों में मारे प्रेम के आँसू आ गये, उन्होंने इन्हें जल्दी से गोद में लेकर पुचकारा। साथ के बच्चों को थोड़ी-थोड़ी मिठाई देकर बिदा किया और इन्हें स्नान कराके भोजन कराने लगी। ये जान-बूझकर उपद्रव करने लगे। जब ये घर पर रहते और कोई चीज बेचने वाला उधर आता तो माता से बार-बार आग्रह करते हमें अमुक चीज दिला दो। मिठाई वाला आता तो मिठाई लेने को कहते, फलवाला आता तो फलों के लिये आग्रह करते। चाट बिकने आती तो चाट ही खाने को माँगते। न दिलाने पर खूब जोरों से रोते और जब तक उसे पा नहीं लेते तब तक बराबर रोते ही रहते। चीज मिलने पर उसमें से थोड़ी-सी खा लेते, शेष को वैसे ही छोड़ देते।
माता बार-बार प्यार से समझाती- ‘बेटा! तू जानता नहीं, तेरे पिता निर्धन हैं, उनके पास इतने पैसे कहाँ से आये। तू दिनभर भाँति-भाँति की चीजों के लिये रोया करता है, जो भी बिकने आता है उसी के लिये आग्रह करने लगता है। इतने पैसे मैं कहाँ से लाऊँ?’ आप कहते- ‘हमें पढ़ने न दोगी तो हम ऐसा ही करेंगे। जब पढ़ेंगे नहीं तो यही करते रहेंगे। हमें इससे क्या मतलब, या तो हमें पढ़ने दो नहीं तो हम ऐसे ही माँगा करेंगे।’ इनकी ऐसी बातें सुनकर माता सोचती, इससे तो इसे पढ़ने ही दिया जाय तो अच्छा है, किन्तु विश्वरूप का स्मरण आते ही वह डर जाती और फिर उसे मिश्र जी के सामने ऐसा प्रस्ताव करने का साहस न होता। ये और भी अधिकाधिक चंचल होते जाते। एक दिन आपने गुस्से में आकर घर में से बहुत-से मिट्टी के बर्तन निकाल-निकालकर आँगन में फोड़ दिये और आप पास के ही एक धूरे पर जा बैठे। वहाँ उसी प्रकार अशुद्ध हाँड़ियों को अपनी भुजाओं में पहन लिया। टूटी-फूटी टोकरी को सिर पर रख लिया और खपड़े घिस-घिसकर उससे शरीर को मलने लगे।
|
|