श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी158. भक्त कालिदास पर प्रभु की परम कृपा
झाड़ू भक्त ने कहा- ‘मालिक ! आपकी इस बात को मैं मानता हूँ कि भगवद्भक्त वर्ण और आश्रमों से परे होता है। वह सबका गुरु और पूजनीय होता है, उससे बढ़कर कोई भी नहीं होता, किन्तु वह भक्त होना चाहिये। मैं अधम भला भक्तिभाव क्या जानूँ। मुझे तो भगवान में तनिक भी प्रीति नहीं। मैं तो संसारी गर्त में फँसा हुआ नीच विषयी पुरुष हूँ।’ कालिदास जी ने कहा- ‘सचमुच सच्चे भक्त तो आप ही हैं। जो अपने को भक्त मानकर सबसे अपनी पूजा कराता है, अपने भक्तिभाव का विज्ञापन बाँटता फिरता है, वह तो भक्त नहीं दुकानदार है, भक्ति के नाम पर पूजा प्रतिष्ठा खरीदने वाला बनिया है। सच्चा भक्त तो आपकी तरह सदा अमानी, अहंकार रहित, सदा दूसरों को मान प्रदान करने वाला होता है, उसे इस बात का स्वप्न में भी अभिमान नहीं होता कि मैं भक्त हूँ। यही तो उनकी महत्ता है। आप छिपे हुए सच्चे भगवद्भक्त हैं। हीन कुल में उत्पन्न होकर आपने बपने को छिपा रखा है, फिर भी ऐसी अलौकिक कस्तूरी है कि वह कितनी भी क्यों न छिपायी जाय, सच्चे पारखी तो उसे पहचान ही लेते हैं। कृपा करके अपनी चरण धूलि से मेरे अंग को पवित्र बना दीजिये।’ इस प्रकार कालिदास जी बहुत देर तक उनसे आग्रह करते रहे, किन्तु झाड़ू भक्त ने उसे स्वीकार नहीं किया। अन्त में वे दोनों पति पत्नी को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके उनसे विदा र्हुए झाड़ू भक्त शिष्टाचार के अनुसार उन्हें थोड़ी दूर घर से बाहर तक पहुँचाने के लिये उनके पीछे-पीछे आये। जब कालिदास जी ने उनसे आग्रह पूर्वक लौट जाने को कहा तो वे लौट गये। कालिदास जी वहीं खड़े रहे। झाड़ू भक्त जब अपनी कुटिया में घुस गये तब जिस स्थान पर उनके चरण पड़े थे, उस स्थान की धूलि को उठाकर उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीर पर लगाया और एक ओर घर के बाहर छिप कर बैठ गये। रात्रि का समय था। झाड़ू भक्त की स्त्री ने अपने पति से कहा- ‘कालिदास जी ये प्रसादी आम दे गये हैं, इन्हें भगवत-अर्पण करके पा लो। भक्त का दिया हुआ प्रसाद है- इसके पाने से कोटि जन्मों के पाप कटते हैं।’ |