श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी156. निन्दक के प्रति भी सम्मान के भाव
अयि दीनदयार्द्र नाथ हे मथुरानाथ कदावलोक्य से। पुरी महाराज के निधन के अनन्तर ईश्वरपुरी महाराज तो गौड़-देश की ओर चले गये और रामचन्द्रपुरी तीर्थों में भ्रमण करते रहे। भ्रमण करते-करते ये प्रभु की कीर्ति और प्रशंसा सुनकर पुरी में आये। आकर उन्होंने अपने ज्युष्ठ गुरुभ्राता परमानन्द जी पुरी के चरणों में प्रणाम किया और फिर प्रभु से मिलने के लिये गये। प्रभु इनका परिचय पाकर उठकर खड़े हो गये और इनके चरणों में गुरुभाव से श्रद्धा के साथ प्रणाम किया और भी प्रभु के साथी बहुत से विरक्त भक्त वहाँ आ गये, सभी ने गुरुभाव से पुरी को प्रण्धाम किया और बहुत देर तक भगवत्सम्बन्धी बातें होती रहीं। प्रभु के पास आये हुए अतिथियों का भार इन्हीं सब विरक्त वैष्णवों पर था। वे लोग भिक्षा करके लाते थे और उसी से आगत अतिथियों का स्वागत सत्कार करते रहे। महाप्रभु की भिक्षा का कोई नियम नहीं था, जो भी भक्त निमन्त्रण करके प्रसाद दे जाय उसे ही प्रभु पा लेते थे। सार्वभौम भट्टाचार्य आदि गृहस्थी भक्त प्रभु को अपने घर पर भी बुलाकर भिक्षा कराते थे और विरक्त भक्त भी बारी-बारी से प्रभु को भिक्षा करा दिया करते थे। सामान्यतया प्रभु की भिक्षा में चार आने का खर्च था। चार आने के प्रसाद में प्रभु की भिक्षा का काम चल जाता और सब तो इधर उधर से भिक्षा कर लाते थे। केवल श्री ईश्वापुरी के शिष्य काशीश्वर और सेवक गोविन्द ये दो प्रभु के ही समीप भिक्षा पाते थे। इन चार आनों के प्रसाद में तीनों का ही काम चल जाता था। इसके अतिरिक्त प्रेम के कारण कोई और भी अधिक मिष्टान्न आदि पदार्थ ले आवे तो प्रभु उसकी भी अवहेलना नहीं करते थे। प्रसाद में उनकी भेद बुद्धि नहीं थी। भक्त प्रेमपूर्वक प्रभु का आग्रह कर करके खूब खचिालाते थे और प्रभु भी उनके आग्रह को मानकर इच्छा न होने पर भी थोड़ा खा लेते थे। उस दिन नवागत रामचन्द्रपुरी का निमन्त्रण जगदानन्द जी ने किया। मन्दिर से प्रसाद लाकर उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें भिक्षा करायी। वे तो प्रेमी थे, प्रभु को जिस प्रकार प्रेम पूर्वक आग्रह के साथ भिक्षा कराते थे, उसी प्रकार आग्रह कर करके उन्हें भी खूब खिलाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे दीनों के ऊपर दया करने वाले प्रभो! हे दयालो! हे मथुरानाथ। तुम्हारे मनोहर मुखकमल को कब देख सकूँगा? यह हदय तुम्हें न देखने के कारण कातर होकर तुम्हारे लिये छटपटा रहा है, चारो ओर घूम रहा है, प्राणवल्लभ! अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? (पद्यावल्याम्)