श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी152. गोपीनाथ पट्टनायक सूली से बचे
राजपुत्र ने कुछ रोष के साथ कहा- ‘तुम क्या चाहते हो, दो लाख रुपये इन घोड़ों में ही बेबाक कर दें? जितने के होंगे उतने ही तो लगावेंगे।’ गोपीनाथ ने अपने रोष को रोकते हुए कहा- ‘श्रीमान ! घोड़े बहुत बढि़या नस्ल के हैं। इनता मूल्य तो इनके लिये बहुत ही कम है।’ इस बात पर कुपित होकर राजपुत्र ने कहा- ‘दुनिया भर के रद्दी घोड़े इकट्ठे कर रखे हैं और चाहते हैं इन्हें ही देकर दो लाख रूपयों से बेबाक हो जायँ। यह नहीं होने का। घोड़े जितने के होंगे, उतने के ही लगाये जायँगे।’ राजप्रसाद प्राप्त मानी गोपीनाथ अपने इस अपमान को सहन नहीं कर सके। उन्होंने राजपुत्र की उपेक्षा करते हुए धीरे से व्यंग्य के स्वर में कहा- ‘कम से कम मेरे ये घोड़े तुम्हारी तरह ऊपर मुँह उठाकर इधर उधर तो नहीं देखते।’ उनका भाव था कि तुम्हारी अपेक्षा घोड़ों का मूल्य अधिक है। आत्मसम्मानी राजपुत्र इस अपमान को सहन नहीं कर सका। वह क्रोध के कारण जलने लगा। उस समय तो उसने कुछ नहीं कहा। उसने सोचा कि यहाँ हम कुछ कहें तो बात बढ़ जाय और महाराज न जाने उसका क्या अर्थ लगावें। शासन में अभी हम स्वतन्त्र नहीं हैं, यही सोचकर वह वहाँ से चुपचाप महाराज के पास चला गया। वहाँ जाकर उसने गोपीनाथ की बहुत सी शिकायतें करते हुए कहा- ‘पिताजी ! वह तो महाविषयी है, एक भी पैदा देना नहीं चाहता। उलटे उसने मेरा घोर अपमान किया है। उसने मेरे लिये ऐसी बुरी बात कही है, जिसे आपके सामने कहने में मुझे लज्जा आती है। सब लोगों के सामने वह मेरी एक सी निन्दा कर जाय? नौकर होकर उसका ऐसा भारी साहस? यह सब आपकी ही ढील का कारण है। उसे जब तक चाँग पर न चढ़ाया जायेगा तब तक रुपये वसूल नहीं होंगे, आप निश्चय समझिये।’ |