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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
प्रभु ने अत्यन्त ही नम्रता के साथ कहा- 'भगवन! आप ज्ञानी हैं, पण्डित हैं, शास्त्रज्ञ हैं, हम सबके गुरु हैं। आपके सामने मैं कह ही क्या सकता हूँ? किन्तु मैं फिर कहूँगा, यह हृदय की बात नहीं है। विचारों का परिष्कृत स्वरूप है, भगवन! प्रेम ही ब्रह्म का सच्चा स्वरूप है। प्रेम की उपलब्धि ही जीव का चरम लक्ष्य है। वह करने की चीज नहीं। उसका गान वाणी से नहीं, हृदय से होता है, वह कहा नहीं जाता, अनुभव किया जाता है, उसकी सिद्धि नहीं की जाती, वह स्वत: सिद्ध है; उसे साधनों द्वारा कोई प्राप्त नहीं कर सकता, उसकी प्राप्ति तो प्रभु-कृपा से ही होती है। मैं फिर कहता हूँ भगवान शंकर ने केवल मस्तिष्क प्रधान पुरुषों की बुद्धि को अत्यन्त सूक्ष्य करने के ही निमित्त शारीर के भाष्य की रचना की है। उनका हृदय तो प्रभु प्रेम सामने मुक्ति आदि को तुच्छ समझता है। वे स्वयं कहते हैं-
काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितं
केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि:
अस्माकं युदनन्दनाड्.घ्रियुगलध्यानावधानार्थिनां
कि लोकेन दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम्।।
'बहुत लोग प्रतिदिन अनेक कामनाओं के सहित उपासना करके मनोवांछित फल चाहते हैं, कुछ लोग यज्ञ-यागादि के द्वारा स्वर्ग की इच्छा करते हैं। बहुत-से योगादि के द्वारा मुक्ति की प्रार्थना करते हैं, किन्तु हमें तो नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के पदारविन्दों के ध्यान में ही तत्परता के साथ संलग्न रहने की इच्छा है। हमें उत्तम लोकों से क्या? हमें राजा बन जाने से, स्वर्ग से और यहाँ तक कि मोक्ष से क्या लेना? हमें तो सतत उन्हीं अरुण वर्ण के चरणों का ध्यान बना रहे!'
इस श्लोक को कहते-कहते प्रभु का गला भर आया। उनके शरीर में सभी सात्त्विक विकारों का उदय हो उठा। उन्होंने अपने भाव को संवरण करना चाहा, किन्तु वे उसमें समर्थ न हो सके। प्रभु की आँखें ऊपर चढ़ गयीं। शरीर से पसीना निकलने लगा। बेहोश होकर वे वहीं एक तकिय के सहारे लुढ़क गये। उनकी ऐसी दशा देखकर प्रकाशानन्द जी आश्चर्य चकित हो गये और अपने वस्त्र से स्वयं उनको हवा करने लगे। उपस्थित सभी संन्यासियों पर प्रभु की बातों का और उनकी इस अदभुत दशा का बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा। बहुत-से तो उसी समय 'हरि-हरि' करके नाचने लगे। प्रकाशानन्द जी के हृदय में भी खलबली मच गयी। उनका मन बार-बार कह रहा था- 'अरे मूर्ख! तेरे अज्ञान को मिटाने के निमित्त साक्षात श्री हरि संन्यासी का वेष धारण करके तेरे सामने उपस्थित हैं, तू इनके पादपद्मों को पकड़कर अपने पूर्वकृत पापों के लिये क्षमा- याचना क्यों नहीं करता। 'किन्तु इतनी भारी प्रतिष्ठा का लालच अभी उनके हृदय में से समूल नष्ट नहीं हुआ था। वे हृदय से तो प्रभु के चरणों के दास बन चुके थे। हृदय तो उन्होंने उसी समय श्री कृष्ण चैतन्य-नामधारी हरि के चरणाम्भोजों में समर्पित कर दिया था, किन्तु शरीर को अभी लोकजज्जावश बचाये हुए थे।
उसी समय प्रभु को होश हुआ। वे कुछ लज्जित-से हुए तकिये से हटकर एक ओर बैठ गये। उसी समय भोजन के लिये बुलावा आ गया, सभी भोजन करने बैठ गये। प्रभु ने बड़े ही संकोच से संन्यासियों के साथ बैठकर भिक्षा पायी। अन्त में वे श्री प्रकाशानन्द जी के चरणों में प्रमाण करके भक्तों के सहित चन्द्रशेखर के घर चले गये।
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