श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
दो प्रकार के पुरुष होते हैं- एक ह्दय प्रधान, दूसरे मस्तिष्क प्रधान। ह्दय प्रधान कम होते हैं, मस्तिष्क प्रधान अधिक होते हैं। मस्तिष्क प्रधान वाले बिना तर्क के किसी बात को मानते ही नहीं। जैसे विष की ओषधि विष ही है, अग्नि के जले को तेल लगाकर अग्नि से से ही टीक होता है, उसी प्रकार तर्क वालों की बुद्धि को तर्क द्वारा ही परास्त करना चाहिये। तर्क करते-करते बुद्धि को इतने सूक्ष्य विषय में ले जाना चाहिये कि वहाँ से आगे जाने की बुद्धि की शक्ति ही न रहे। तर्क करने से स्थूल बुद्धि सूक्ष्म हो जाती है और सूक्ष्म बुद्धि ही परमार्थ की ओर बढ़ सकती है। भगवान शंकर ने तर्क और युक्तियों द्वारा भगवत्तत्त्व को इसी खूबी के साथ वर्णन किया है कि भारी-से भारी तार्किक भी वहाँ से आगे नहीं बढ़ सकता। सचमुच भगवान शंकर ने तर्क का अन्त कर डाला है। वेदान्त श्रवण और पठन का इतना ही प्रयोजन है कि जिनकी बुद्धि तार्किक है वे उसके द्वारा उसे सूक्ष्म और परिष्कृत बनाकर उसे परमार्थगामिनी बनावें। सदा तर्को में ही फंसे रहना लक्ष्य नहीं हैं, क्योंकि परमार्थ का मार्ग तो तर्कातीत है। अज्ञान में और श्रद्धा में आकाश-पाताल का अन्तर है। अज्ञानी को भी तर्क नहीं उठता; किन्तु वह परमार्थ की ओर थोड़े ही बढ़ सकता हैं, जब तक उसे सच्ची श्रद्धा न हो। और जिसके हृदय में श्रद्धा है, वह कभी अज्ञानी रह ही नहीं सकता; क्योंकि सच्ची श्रद्धा तो विचार का अन्त होने पर होती है। जहाँ तर्क और शंका उठना पूर्व जन्मकृत पापों का फल हैं, वहाँ तर्क उठने पर आलसी और अज्ञानियों की भाँति उसे दबाना भी महापाप है। ऐसा आलसी परमार्थी हो ही नहीं सकता। वह असली श्रद्धालु न होकर श्रद्धालु बनने का ढोंग करता है और ढोंगी से भगवान बहुत दूर रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीकृष्णचरणाम्भोजं सत्यमेव विजानताम्। जगत् सत्यमसत्यं वा नेतरेति मतिर्मम।।